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5.11.15

अच्छी और मौलिक चिकित्सा पद्धति कौन सी?

डॉ. चंचलमल चोरडिया

रोग की अवस्था में आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार षरीर में वात, पित्त और कफ का असन्तुलन होने लगता है। आधुनिक चिकित्सक को मल, मूत्र, रक्त आदि के परीक्षणों में रोग के लक्षण और षरीर में रोग के कीटाणुओं तथा वायरस दृश्टिगत होने लगते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक ऐसी स्थिति से षरीर के निर्माण में सहयोगी पंच तत्त्व-पृथ्वी, हवा, जल, अग्नि और आकाष का असन्तुलन अनुभव करते हैं। चीनी एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेषर के विषेशज्ञों के अनुसार षरीर में यिन-यांग का असंतुलन हो जाता है। एक्यूप्रेषर के प्रतिवेदन बिन्दुओं की मान्यता वाले चिकित्सकों को व्यक्ति की हथेली और पगथली में विजातीय तत्त्वों का जमाव प्रतीत होने लगता है।



सुजोक बीयोल मेरेडियन सिद्धान्तानुसार रोगी के षरीर में पंच ऊर्जाओं (वायु, गर्मी, ठण्डक, नमी और षुश्कता) का आवष्यक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। चुम्बकीय चिकित्सक षरीर में चुम्बकीय ऊर्जा का असन्तुलन अनुभव करते हैं। ज्योतिश षास्त्री ऐसी परिस्थिति का कारण प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव बतलाते हैं। आध्यात्मिक योगी ऐसी अवस्था का कारण पूर्वार्जित अषुभ असाता वेदनीय कर्मों का उदय मानते हैं। होम्योपेथ और बायोकेमिस्ट की मान्यतानुसार षरीर में आवष्यक रासायनिक तत्त्वों का अनुपात बिगड़ने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगती है।

आहार विषेशज्ञ षरीर में पौश्टिक तत्त्वों का अभाव बतलाते हैं। षरीर में अम्ल-क्षार, ताप-ठण्डक का असन्तुलन बढ़ने लगता है। कहने का आषय यही है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार षरीर में इन विकारों की उपस्थिति को रोग अथवा अस्वस्थता का कारण मानते हैं। जो जैसा कारण बतलाता है, उसी के अनुरूप उपचार और परहेज रखने का परामर्ष देते हैं। सभी को आंषिक सफलताएँ भी प्राप्त हो रही है तथा सफलताओं एवं अच्छे परिणामों के लम्बे-लम्बे दावे अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों के सुनने को मिल रहे हैं। विज्ञान के इस युग में किसी पद्धति को बिना सोचे-समझे अवैज्ञानिक मानना, न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता। आज उपचार के नाम पर रोग के कारणों को दूर करने के बजाय अपने-अपने सिद्धान्तों के आधार पर रोग के लक्षण मिटाने का प्रयास हो रहा है। उपचार में समग्र दृश्टिकोण का अभाव होने से तथा रोग का मूल कारण पता लगाये बिना उपचार किया जा रहा है। अर्थात् रोग से राहत ही उपचार का लक्ष्य बनता जा रहा है।  

कोई चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण नहीं होती और न कोई भी चिकित्सा पद्धति ऐसी है जिसमें कोई विशेशता ही न हों। अर्थात् जो अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्त, मान्यताएँ, धारणाएँ हैं, वे ही संपूर्ण सत्य हों? सरकार द्वारा आधुनिक चिकित्सा पद्धति को ही मौलिक, वैज्ञानिक, प्रभावशाली मानने के कारण अन्य प्रभावशाली चिकित्सा पद्धतियाँ स्वास्थ्य मंत्रालय के दृष्टिकोण से वैकल्पिक, अवैज्ञानिक, अविकसित, अनुपयोगी, अनावश्यक, बतलाकर उपेक्षा करना कदापि उचित नहीं।

हम किसी बात पर विश्वाश न करें परन्तु उस संबंध में बिना पूर्ण जानकारी अविश्वास करना भी उचित नहीं? ऐसे व्यक्तियों के चिंतन को वैज्ञानिक नहीं कहा जा सकता। जिस विशय का ज्ञान न हों, आधुनिक चिकित्सकों का उस विषय पर अभिमत देना नासमझी है। कारण चाहे जो हों, तथाकथित अच्छी प्रभावशाली स्वावलंबी मौलिक चिकित्सा पद्धतियां वर्तमान में सरकारी उपेक्षा की शिकार है। सरकार द्वारा न तो उन पर शोध को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न उनके प्रशिक्षण व उपचार व्यवस्था की तरफ सरकार का विशेश ध्यान ही जा रहा है। सरकारी मान्यता और सहयोग का तो प्रश्न ही नहीं। उनकी प्रभावशालीता, अच्छाइयों को बिना सोचे समझें, बिना अध्ययन किये नकारा जा रहा है। भले ही वे चिकित्सा के मापदंडों में सरकारी मान्यता प्राप्त वैज्ञानिक समझी जाने वाली आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से काफी आगे हों।

क्या स्वास्थ्य मंत्रालय से संबंधित नीति निर्माताओं ने उन पद्धतियों के विशेशज्ञों से परामर्श कर समझने का प्रयास किया? प्रकृति का यह मौलिक सिद्धान्त है कि रोग जिस स्थान, वातावरण एवं परिस्थितियों में उत्पन्न होता है,  उसका उपचार उसी वातावरण, परिस्थितियों एवं धरती के अवयवों में समाहित होता है। अतः अहिंसात्मक, स्वावलम्बी, चिकित्सा पद्धतियों के सिद्धान्त, उपचार का तरीका क्षेत्र की जलवायु, संस्कृति व वातावरण के ज्यादा अनुकूल होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह छोड़ अनेकान्त दृश्टि से वर्तमान परिपेक्ष्य में पुनः शोध व व्यापक चिंतन आवश्यक है। आधुनिक चिकित्सकों को अन्य प्रभावशाली चिकित्सा पद्धतियों का भी सैद्धान्तिक ज्ञान कराया जाना चाहिये, जिससे चिकित्सकों का चिंतन बहुपक्षीय हो सकें।

आज हमारे स्वास्थ्य पर चारों तरफ से आक्रमण हो रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियों में स्वास्थ्य गौण हैं। भ्रामक विज्ञापनों तथा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक प्रदूशित, पर्यावरण, दुर्व्यसनों एवं दुश्प्रवृत्तियों पर प्रभावशाली कानूनी प्रतिबंध नहीं हैं, अपितु वे सरकारी संरक्षण में पनप रही है। आज राश्ट्रीयता, नैतिकता, स्वास्थ्य के प्रति सजगता थोथे नारों और अन्धाःनुकरण तक सीमित हो रही है। परिणाम स्वरूप जो मांसाहार एवं थ्ंेज थ्ववक नहीं खिलाना चाहिये व खिलाया जा रहा है। जो शराब एवं ठण्डे पेय नहीं पिलाना चाहिये उसे सरकार पैसे के लोभ में पिला रही है। जो काम-वासना, क्रूरता, हिंसा आदि के दृश्यों को सार्वजनिक रूप से टी.वी. पर नहीं दिखाया जाना चाहिये, मनोरंजन के नाम पर दिखाया जा रहा हैं। जो नहीं पढ़ाना चाहिये वह भी कभी-कभी पढ़ाया जा रहा है एवं जो हमारी संस्कृति, समाज एवं राश्ट्र के लिये यौन-शिक्षा जैसी घातक, गतिविधियाँ हैं, वे निसंकोच करवाई जा रही है। आज रक्षक ही भक्षक हो रहे हैं। खाने में मिलावट, आम बात हो गयी हैं। सारा वातावरण पाश्विक वृत्तियों से दूशित हो रहा हैं।

सरकारी तंत्र को सच्चाई जानने, समझने व उसकी क्रियान्विति में कोई रूचि नहीं है। सारे सोच का आधार है भीड़ एवं संख्या बल। क्योंकि जनतंत्र में उसी के आधार पर नेताओं का चुनाव और नीतियां निर्धारित होती हैं। फलतः उनके माध्यम से राश्ट्र विरोधी, जन साधारण के लिये अनुपयोगी, स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली कोई भी गतिविधि व्यक्तिगत स्वार्थवश आराम से चलायी जा सकती हैं। जन्म से पूर्व डॉक्टरों की दवा लेने वाले, विभिन्न जांच प्रक्रियाओं से रोग होने पर बचपन से ही गुजरने वाले, भविश्य में संक्रामक एवं असाध्य रोगों से क्यों पीड़ित हो जाते हैं?उनकी रोग प्रतिकारात्मक क्षमता क्यों क्षीण हो जाती है? इस संबंध में आधुनिक चिकित्सकों का स्पश्टीकरण क्या है एवं उसमें कितनी यथार्तता है?

विज्ञान का आधार होता है सत्यदृश्टि, सनातनदृश्टि, अनेकांतदृश्टि, समग्रदृश्टि। इसके विपरीत जिसमें आग्रह है, दुराग्रह है, एकान्त मान्यताओं एवं धारणाओं का पोशण होता है, मायावी आचरण है, वहां कितना ही विज्ञापन क्यों न हो वह सोच विज्ञान का नहीं हो सकता। विज्ञान की पहली शर्त है ‘‘सच्चा सो मेरा न कि मेरा सो सच्चा।’’ प्राप्त सूचनाओं, प्रमाणों तथा प्रयोगों एवं परीक्षणों से उपलब्ध आंकड़ों का व्यवस्थित लिपिबद्ध संकलन और प्रस्तुतिकरण भौतिक विज्ञान का एक पक्ष मात्र है। जब तक धर्म, कर्म, नियति, स्वभाव व काल के प्रभावों को नकारा जाएगा, स्वास्थ्य विज्ञान का सत्य समझ में नहीं आयेगा। आत्मा एवं अध्यात्म की उपेक्षा करने वाला आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान अधूरा है, अपूर्ण है।
स्वास्थ्य के प्रति सच्चा एवं वैज्ञानिक दृश्टिकोण क्या?

जब तक चिकित्सक का दृश्टिकोण शरीर को स्वस्थ करने के साथ मन और आत्मा को स्वस्थ बनाने का नहीं होगा, उपचार अधूरा होगा। जो स्वयं अपूर्ण है वह पूर्णता की बात करने का दावा कैसे कर सकता है? उससे विरोधाभास होगा। जहां विरोधाभास होगा वहां दुष्प्रभावों की संभावना रहेगी। उपचार प्रारम्भ करने से पूर्व हमें हमारा विवेक जाग्रत रखना है। हानि-लाभ, उपयोगी-अनुपयोगी, करणीय-अकरणीय की प्राथमिकताओं के आधार पर चिंतन कर स्वयं का आचरण करना होगा। विकार रोग है। अतः जो उपचार शरीर, मन, वाणी एवं आत्मा के विकारों को जितना जल्दी एवं स्थायी रूप से दूर करने में सक्षम होते हैं, वे ही चिकित्सा पद्धतियाँ सर्वश्रेश्ठ एवं वैज्ञानिक कहलाने का दावा कर सकती है। स्वास्थ्य के प्रति यही सच्चा और वैज्ञानिक दृश्टिकोण होता है।

अच्छी चिकित्सा पद्धति के लिए आवश्यक होता है, रोग के मूल कारणों का प्रारम्भिक अवस्था में ही सही निदान, तुरन्त दुश्प्रभावों से रहित प्रभावशाली स्थायी उपचार। जो पद्धति सहज, सरल, सस्ती, स्वावलंबी एवं अहिंसक होने के साथ-साथ शरीर, मन, वाणी, भाव और आत्मा के विकारों को कम करने में सक्षम हो। जिन चिकित्सा पद्धतियों में करणीय-अकरणीय, भक्ष्य-अभक्ष्य, अहिंसा-हिंसा, न्याय-अन्याय, वर्जित-अवर्जित का विवेक हों, वे ही चिकित्सा पद्धतियां अपने आपको वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेश्ठ होने का दावा कर सकती हैं?

स्वावलम्बी या परावलम्बी। सहज अथवा दुर्लभ। सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा महंगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक। अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुश्प्रभावों से रहित अथवा दुश्प्रभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा मात्र राहत पहुंचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली।

चिकित्सा के क्षेत्र में लम्बे चौड़े दावों के बावजूद दुःख जो रोग का मूल कारण होता है, तनाव, भय, निराशा, अधीरता, क्रोध, घृणा, द्वेष जैसे आवेग नकारात्मक सोच जो रोग के कारणों के जनक होते हैं, उनको मांपने, समझने और दूर करने का सर्व मान्य उपाय तक नहीं है। आधुनिक चिकित्सा में आत्मा, मन एवं भावों की उपेक्षा होने से निदान एवं उपचार आंशिक और अधूरा होता हैं। प्रायः प्रत्येक अंग, उपांग, अवयव व इन्द्रियों आदि के अलग-अलग विशेशज्ञ होते हैं। परिणाम स्वरूप उपचार शरीर को एक इकाई मान कर नहीं किया जाता हैं, जबकि शरीर के सभी तंत्रों में पूर्ण रूप से आपसी सहयोग होता है। प्रत्येक रोग का थोड़ा ज्यादा, प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष प्रभाव पूरे शरीर पर भी पड़ता हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में शरीर का उपचार करने से उसका प्रभाव शारीरिक स्तर पर भी पूर्ण रूप से नहीं होता। अतः आधुनिक उपचार के दुष्प्रभावों के कारण जब दर्द असहनीय हो राहत की ही प्राथमिकता हो अर्थात् जहाँ अन्य कोई प्रभावशाली विकल्प उपलब्ध न हो, तो ही करना चाहिए। जहाँ अन्य विकल्प हों यथा संभव उससे बचना ही श्रेयस्कर होता है।

उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा पद्धतियाँ मौलिक हैं और कौनसी वैकल्पिक? मौलिकता का मापदण्ड भ्रामक विज्ञापन अथवा संख्याबल नहीं होता। अतः हमें स्वीकारना होगा कि स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ भी मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां नहीं हैं? किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो अनुभूत सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है?

डॉ. चंचलमल चोरडिया
chanchalmal chordia
चोरड़िया भवन
जालोरी गेट के बाहर
जोधपुर-342003 (राज.)
cmchordia.jodhpur@gmail.com

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