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18.3.16

सुखदेव न उकसाते तो भगत सिंह के प्रेम और नारी पर इतने अनूठे विचारों से हम सब वंचित रह जाते

राजशेखर व्यास
खूबसूरत शख्सियत रखने वाला नौजवान, हरदिल अजीज, शहीदों का शहजादा भगतसिंह भी कभी प्रेम करता होगा, ऐसा कोई सोच भी नहीं पाता, सोच भी नहीं सकता। पता नहीं क्यों ‘भगतसिंह’ का नाम लेते और याद आते ही हमारे दिमाग में उनका क्रांतिकारी रूप सामने आता है और हम यह मान लेते हैं कि एक क्रांतिकारी और विशेषकर भगतसिंह का तो प्रेम या नारी से कोई वास्ता नहीं होना चाहिए। दरअसल, ऐसा नहीं है।


अमर शहीद भगतसिंह एक बेहद खुशमिजाज, जिंदादिल, मस्त और भोले-भाले भावुक मनुश्य थे, हमेशा गुनगुनाने वाले। वह नौजवान अगर फांसी पर न चढ़ा होता तो संभवतः एक भावुक कवि, एक संवेदनशील साहित्यकार, एक कोमल गायक और दार्शनिक होता। उनके बैठने-उठने, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने तक में एक करीना था। बाह्य सुंदरता-स्वच्छता ही नहीं, आंतरिक सुंदरता-स्वच्छता का भाव भी उनमें बेहद गहरा था। बाहरी गंदगी से उन्हें इतनी चिढ़ न थी, जितनी नफरत उन्हें भीतरी गंदगी से थी। (डकैती को, भले ही उसका उद्देश्य देश-सेवा ही क्यों न हो, वह पसंद नहीं करते थे, उससे परेशान होते थे। उन्हें आतंकवादी, डकैत, फासिस्ट कहने वाले कृपया ध्यान दें)। कलाकार का कल्पनाषील मन संवेदनशील होता है। अतः जिनके घर डाका पड़ा है, उनके निर्दोष मन की विह्वलता को वह अनुभव करते थे। जब पहली बार योगेशचंद्र चटर्जी उन्हें अपने साथ डकैती में ले गए थे तो मन के अंतर्द्वंद्वों ने उन्हें इतना उद्वेलित किया था कि उन्हें ‘कै’ हो गई थी।

13 अप्रैल, 1919 को जब अमृतसर में जलियांवाला बाग कांड हुआ था तब भगतसिंह केवल बारह वर्ष के थे। अपनी बहन अमरों से बेहद स्नेह करने वाले, अपने मन की सारी बातें बता देने वाले और उसी के साथ खेलने वाले उस स्नेहशील भाई के बारे में अमरों बहन ने सुनाया था, ‘उस दिन सुबह से वीरा स्कूल के लिए कहकर गया था, पर देर रात तक घर लौटा। घर में सभी घबरा गए थे। उसके आते ही मैंने उसके हिस्से की जो मिठाई-फल रखे थे, उसे देते हुए पूछा, ‘कहां गया था, वीरा? सब जगह तुझे ढूंढ लिया था, चल, फल खा ले।’

‘तब फफक-फफककर रो उठा था मेरा वीरा! मैंने उसे आम तौर पर कभी रोते नहीं देखा था। उसने अपनी निक्कर की जेब से एक शीशी निकाली। उसमें मिट्टी भरी हुई थी। उसने कहा, ‘मिट्टी नहीं, अमरों, यह शहीदों का खून है।’ उस शीशी से वह रोज खेलता, उसका तिलक लगाता, फिर स्कूल जाता। वह मिट्टी ही उन दिनों उसका खिलौना हो गई थी।

नेशनल कॉलेज में पढ़ते समय एक सुंदर सी लड़की आते-जाते भगतसिंह को देखकर मुसकरा देती थी। सिर्फ भगतसिंह की वजह से वह भी क्रांतिकारी दल में शामिल हो गई थी। जब असेंबली में बम फेंकने की बात दल की मीटिंग में उठाई गई तो ‘अभी दल को भगतसिंह की बहुत जरूरत है’ कहकर दल और आजाद ने उन्हें भेजे जाने की संभावना से ही इनकार कर दिया। उन दिनों भगतसिंह का सबसे अंतरंग मित्र था सुखदेव। सुखदेव ने भगतसिंह को ताना मारा कि ‘तुम उस लड़की की वजह से बम फेंकने नहीं जा रहे हो। तुम मरने से डरते हो। तुम उससे प्रेम करते हो।’ और भी न जाने क्या-क्या आरोप लगाए।

सुखदेव यों भी जब-तब भगतसिंह से नारी, प्रेम, यौवन संबंधों इत्यादि को लेकर भी बहस किया करते थे, मगर उनके इस आरोप से तो भगतसिंह का हृदय रो उठा। वह भावुक थे, मगर संयत-शिष्ट मस्तिष्क वाले अध्ययनशील विचारक नौजवान थे। रात को उन्होंने सुखदेव को जो पत्र लिखा, वह नारी, प्रेम और कोमलता तथा मानवीय संवेदनाओं पर उनके बेहद संतुलित विचारों का परिचायक है। हमें इस मायने में सुखदेव का आभारी होना चाहिए। अगर वह नहीं उकसाते या ताना नहीं मारते तो एक प्रखर क्रांतिकारी चिंतक और तेजस्वी दार्शनिक द्रष्टा के कोमल विषयों-प्रेम और नारी पर इतने अनूठे विचारों से वंचित रह जाते। सुखदेव के ताने के बाद भगतसिंह ने दोबारा दल की मीटिंग बुलवाई और जोर देकर अपना नाम रखवाया। 8 अप्रैल, 1929 को असेंबली में बम फेंकने जाने के पहले उन्होंने सुखदेव को यह महत्वपूर्ण पत्र लिखा-

‘जब तक तुम्हें यह पत्र मिलेगा, मैं जा चुका होऊॅंगा- दूर एक मंजिल की ओर। मैं तुम्हें विश्वास दिलाना चाहता हूं कि आज मैं बहुत खुश हूं। हमेशा से ज्यादा। मैं यात्रा के लिए तैयार हूं, अनेक-अनेक मधुर स्मृतियों के होते और अपने जीवन की सब खुशियों के होते भी एक बात मेरे मन में चुभती रही थी कि मेरे भाई, मेरे अपने भाई ने मुझे गलत समझा और मुझ पर बहुत ही गंभीर आरोप लगाया-कमजोरी ।’

‘आज मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं, पहले से कहीं अधिक। आज मैं महसूस करता हूं कि वह बात कुछ भी नहीं थी, एक गलतफहमी थी। एक गलत अंदाज था। मेरे खुले व्यवहार को मेरा बातूनीपन समझा गया और मेरी आत्मस्वीकृति को मेरी कमजोरी, परंतु अब मैं महसूस करता हूं कि कोई गलतफहमी नहीं रखो, मैं कमजोर नहीं हूं। अपनों में से किसी से भी कमजोर नहीं, भाई! मैं साफ दिल से विदा होऊॅंगा। क्या तुम भी साफ होओगे? यह तुम्हारी बड़ी दयालुता होगी, लेकिन खयाल रखना कि तुम्हें जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए। गंभीरता और शांति से तुम्हें काम को आगे बढ़ाना है, जल्दबाजी में मौका पा लेने का प्रयत्न न करना। जनता के प्रति तुम्हारा कुछ कर्तव्य है, उसे निभाते हुए काम को निरंतर सावधानी से करते रहना।

‘तुम्हीं स्वयं अच्छे निर्णायक होंगे। जैसी सुविधा हो, वैसी व्यवस्था करना। आओ भाई, अब हम बहुत खुश हो लें। खुशी के वातावरण में मैं कह सकता हूं कि जिस प्रश्न पर हमारी बहस है, उसमें अपना पक्ष लिये बिना नहीं रह सकता। मैं पूरे जोर से कहता हूं कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर हूं और जीवन की आनन्दमयी रंगीनियों से ओत-प्रोत हूं, पर आवश्यकता के समय सब कुछ कुरबान कर सकता हूं और यही वास्तविक बलिदान है।

‘ये चीजें कभी मनुष्य के रास्ते में रुकावट नहीं बन सकतीं, बशर्ते कि वह मनुष्य हो। निकट भविष्य में ही तुम्हें प्रत्यक्ष प्रमाण मिल जाएगा।’

‘किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में बातचीत करते हुए एक बात सोचनी चाहिए कि क्या प्यार कभी किसी मनुष्य के लिए सहायक सिद्ध हुआ है? मैं आज इस प्रश्न का उत्तर देता हूं- ‘हां, वह मेजिनी था।’ तुमने अवश्य ही पढ़ा होगा कि अपनी पहली विद्रोही विफलता, मन को कुचल डालने वाली हार तथा मरे हुए साथियों की याद को वह बरदाश्त नहीं कर सकता था। वह पागल हो जाता या आत्महत्या कर लेता, लेकिन अपनी प्रेमिका के एक ही पत्र से वह किसी एक से ही नहीं, बल्कि सबसे अधिक मजबूत हो गया।’

‘जहां तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है, मैं यह कह सकता हॅूं कि यह अपने में कुछ नहीं है सिवाय एक आवेश के, लेकिन यह पाशविक वृत्ति नहीं, एक मानवीय अत्यंत मधुर भावना है। प्यार अपने आप में कभी भी पाशविक वृत्ति नहीं है।

‘प्यार तो हमेशा मनुष्य के चरित्र को ऊपर उठाता है, यह कभी भी उसे नीचा नहीं करता, बशर्ते प्यार हो। तुम कभी भी इन लड़कियों को वैसी पागल नहीं कह सकते, जैसी फिल्मों में हम देखते हैं। वे सदा पाशविक वृत्तियों के हाथ खेलती हैं। सच्चा प्यार कभी भी गढ़ा नहीं जा सकता। वह अपने ही मार्ग से आता है, कोई नहीं कह सकता- कब?

‘हां, मैं यह कह सकता हूं कि एक युवक एक युवती आपस में प्यार कर सकते हैं तथा अपने प्यार के सहारे आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं, अपनी पवित्रता बनाए रख सकते हैं। मैं यहां एक बात साफ कर देना चाहता हूं कि जब मैंने कहा था कि प्यार इनसानी कमजोरी है तो यह एक साधारण आदमी के लिए नहीं कहा था। जिस स्तर पर कि आम आदमी होते हैं, वह एक अत्यंत आदर्श स्थिति है, जहां मनुष्य प्यार, घृणा इत्यादि के आवेगों पर काबू पा लेगा, जब मनुष्य अपने कार्यों का आधार आत्मा के निर्देश को बना लेगा, लेकिन आधुनिक समय में यह कोई बुराई नहीं है, बल्कि मनुष्य के लिए अच्छा और लाभदायक है। मैंने एक आदमी की दूसरे आदमी से निंदा की है, पर वह भी एक आदर्श स्तर पर, इसके होते हुए भी मनुष्य में प्यार की गहरी भावना होनी चाहिए, जिसे वह एक ही आदमी में सीमित न कर दे, बल्कि विश्वमय रखे।

‘मैं सोचता हूं कि मैंने अब अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। एक बात मैं तुम्हें बताना चाहता हॅूं, वह यह कि क्रांतिकारी विचारों के होते हुए हम नैतिकता के संबंध में आर्यसमाजी ढंग की कट्टर धारणा नहीं अपना सकते। हम बढ़-चढ़कर बात कर सकते हैं और इसे आसानी से छिपा सकते हैं, पर असल जिंदगी में हम झट थर-थर कॉंपना शुरू कर देते हैं।

‘मैं तुमसे कहना चाहता हॅूं कि यह छोड़ दो। क्या मैं अपने मन में बिना किसी गलत अंदाज के गहरी नम्रता के साथ निवेदन कर सकता हॅूं कि तुममें जो अति आदर्शवाद है उसे जरा कम कर दो और उसकी तरफ से तीखे न रहो। जो तीखे रहोगे तो मेरी तरह बीमार का शिकार हो जाओगे। उनकी भर्त्सना कर उनके दुःखों-तकलीफों को न बढ़ाना। उन्हें तुम्हारी सहानुभूति की आवश्यकता है।

‘क्या मैं यह आशा कर सकता हॅूं कि किसी खास व्यक्ति से द्वेष रखे बिना तुम उनके साथ हमदर्दी करोगे, जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है? लेकिन तुम तब तक इन बातों को नहीं समझ सकते जब तक तुम स्वयं उस चीज का शिकार न बनो। मैं यह सब क्यों लिख रहा हॅूं? मैं बिलकुल स्पष्ट होना चाहता था। मैंने अपना दिल साफ कर दिया है।

‘तुम्हारी हर सफलता और प्रसन्न जीवन की कामना सहित,

तुम्हार भाई,
भगतसिंह

जब फांसी की कोठरी में वह अपनी शहादत का इंतजार कर रहे थे, असेंबली बम-कांड और लाहौर बम-कांड में उन्हें सजा सुनाई जा चुकी थी तब उनका व्यक्तित्व इतना आकर्षक और खूबसूरत था कि अनेक अंग्रेजी अफसरों की बीवियां सिर्फ उन्हें देखने जेल आती थीं।

जेल से उन्होंने जितने भी पत्र लिखे, अपनी मां, बटुकेश्वर दत्त की बहन तथा जयदेव गुप्त की बहन के नाम लिखे। इन अत्यंत मार्मिक पत्रों में उनका स्नेहसिक्त हृदय झलकता है। जेल में जो कर्मचारी उनकी कोठरी की सफाई करने आता था, उसे भगतसिंह प्यार से ‘बेबे’ कहते थे। ‘तुम इसे ‘बेबे’ क्यों कहते हो?’ एक दिन किसी जेल अधिकारी ने पूछा तो वह बोले, ‘जीवन में सिर्फ दो व्यक्तियों ने ही मेरी गंदगी उठाने का काम किया है। एक, मेरे बचपन में मेरी मां, और यह एक जवानी की जमादार मां, इसीलिए दोनों माताओं को प्यार से मैं ‘बेबे’ कहता हूं।’

फांसी से पहले जेलर खान बहादुर अकबर अली ने उनसे पूछा, ‘तुम्हारी कोई खास इच्छा हो तो बताओ? मैं उसे पूरी करने की कोशिश करूंगा ?’

भगतसिंह ने कहा, ‘हां, मेरी एक खास इच्छा है और उसे आप ही पूरी कर सकते हैं। मैं ‘बेबे’ के हाथ की रोटी खाना चाहता हॅूं।’

जेलर ने इसे उनका मातृ-प्रेम समझा, मगर उनका अभिप्राय उस सफाई कर्मचारी से था। जेलर ने जब उससे कहा तो वह बेचारा स्तब्ध रह गया, ‘सरदारजी ! मेरे हाथ ऐसे नहीं हैं कि उनसे बनी रोटियॉं आप खाएं।’

भगतसिंह ने अपने स्वभावानुसार उछलते-मटकते उसके साथ ही, उसके हाथ की रोटियॉं खाईं।

एक बार इससे पहले दोस्तों से विदा होते समय लाहौर रेलवे स्टेशन पर उन्होंने कहा था, ‘दोस्तो, मैं आपको बता दूं कि अगर मेरी शादी गुलाम भारत में हुई तो मेरी दुल्हन सिर्फ मौत होगी, बारात शव-यात्रा बनेगी और बाराती होंगे शहीद।’

राजशेखर व्यास
अपर महा निदेशक आकाशवाणी
आकाशवाणी भवन
संसद मार्ग,
नयी दिल्ली-110001

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