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9.6.16

वाह पसिन्जर जिंदाबाद (कविता)

पसिंजरनामा
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काठ की सीट पर बैठ के जाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद
बिना टिकस के रायबरेली
बिना टिकस के फ़ैज़ाबाद
हम लोगों की चढ़ी ग़रीबी को सहलाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.


हाथ में पपेरबैक किताब
हिला-हिलाकर चाय बुलाना
रगड़ -रगड़ के सुरती मलना
ठोंक -पीटकर खाते जाना
गंवई औरत के गंवारपन को निहारना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

तुम भी अपनी तरह ही धीरे
चलती जाती हाय पसिन्जर
लेट-लपेट भले हो कितना
पहुंचाती तो तुम्ही पसिन्जर
पता नहीं कितने जनकवि से
हमको तुम्हीं मिलाती हो
पता नहीं कितनों को जनकवि
तुम्हीं बनाते चली पसिन्जर
बुलेट उड़ी औ चली दुरन्तो
क्योंकि तुम हो खड़ी पसिन्जर
बढ़े टिकस के दाम तुम्हारा क्या कर लेगी ?
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

छोटे बड़े किसान सभी
साधू, संत और सन्यासी
एक ही सीट पे पंडित बाबा
उसी सीट पर चढ़े शराबी
चढ़े जुआड़ी और गजेंड़ी
पागल और भिखारी
सबको ढोते चली पसिन्जर
यार पसिन्जर तुम तो पूरा लोकतंत्र हो !!!!!
सही कहूँ ग़र तुम न होती
कैसे हम सब आते जाते
बिना किसी झिकझिक के सोचो
कैसे रोटी- सब्जी खाते
कौन ख़रीदे पैसा दे कर 'बिसलरी'
उतरे दादा लोटा लेकर
भर के लाये तजा पानी
वाह पसिन्जर ...................
तुम्हरी सीटी बहुत मधुर है
सुन के अम्मा बर्तन मांजे
सुन के काका उठे सबेरे
इस छलिया युग में भी तुम
हम लोगों की घड़ी पसिन्जर
सच में अपनी छड़ी पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

भले कहें सब रेलिया बैरनि
तुम तो अपनी जान पसिन्जर
हम जैसे चिरकुट लोगों का
तुम ही असली शान पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

(ये कविता किसी मित्र ने ह्वाट्सएप पर भेजा. इसके रचयिता का नाम किसी को पता चले तो जरूर बतावें ताकि उन्हें इस सुंदर कविता के रचने का श्रेय मिल सके.)

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