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30.10.16

यूपी में उलझी अंकल की मुलायम सियासत

प्रभुनाथ शुक्ल 

राजनीति में यह जुमला आज भी उतनी शिद्दत से प्रचलित है कि दिल्ली की राजनीति का भविष्य यूपी तय करता है। राजनीतिक लिहाज से उत्तर प्रदेश की एक अलग पहचान है। कहा जाता है कि दल्ली की तख्त पर कौन विराजमान होगा और सत्ता का ताज किसके सिर बंधेगा यह यूपी तय करता है। लेकिन राज्य की सत्ताधारी दल समाजवादी पाटी में मचे आंतरिक घमासान ने राज्य में राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है। बाप-बेटे और चाचा-भतीजे के साथ भाइयों के बीच सत्ता और उत्तराधिकार का संकट सैफइ से सीधे लखनउ की सड़कों पर नूरा कुश्ती में बदल गया है। राज्य में लोकतंत्र और सरकार मजाक बन कर रह गइ। हालांकि दिल्ली और प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक पूरे घटनाक्रम पर निगाह गड़ाए हैं। राज्यपाल ने सीएम अखिलेश यादव को बुलाकार सरकार की स्थिति का आंकलन किया है। हालंाकि राज्य में राजनीतिक संकट से इनकार नहीं किया जा सकता है। भाजपा अध्यक्ष अमितशाह भी गुजरात का दौरा बीच में छोड़़ लौट आए हैं, क्योंकि राजनीतिक लिहाज से यूपी भाजपा के लिए नयी चुनौती है।


पार्टी राममंदिर आंदोलन के बाद से गायब है। वह एक बार फिर सत्ता में लौटना चाहती है। समाजवादी पाटी के थिंक टैंक कहे जाने वाले और सीएम के करीबी चाचा रामगोपाल यादव को पाटी्र से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। मुलायम सिंह कह चुके हैं कि उनकी कोइ अहमियत नहीं है। इससे यह साफ जाहिर होता है कि समाजवाद में परिवारवाद का झगड़ा अब थमने वाला नहीं है। पाटी को टूटने से कोइ रोक नहीं सकता है आज नहीं को कल यह होना होना ही है। क्योंकि अखिलेश को कभी खुल कर काम नहीं करने दिया गया। विपक्ष ने उन्हें रिमोट कंटोल सीएम बताया। पिता मुलायमसिंह यादव समय-समय पर उन्हें कानून व्यवस्था और गुंडइ को लेकर अपमानित करते रहे। वह फोड़ा आज फट गया है। लेकिन बेटे अखिलेश ने राज्य में एक साफ-सुधरी और विकावादी मुख्यमंत्री की छबि बना ली है।

ओबीसी की युवा बिंग अखिलेश के साथ दिखती है। अखिलेश की छबि को धूमिल करना मुलायम और शिवपाल के बूते की बात नहीं है। अपनी काबिलियत से वह काफी आगे निकल चुके हैं और परिवार पिता और चाचा की हर साजिश को नाकाम कर दिया है। राज्य में सपा का थोक वोटबैंक मुस्लिम इस घटना क्रम से बेहद डरा हुआ है। उसके सामने अब विकल्प नहीं दिख रहा है। वह सपा से टूट कर कांग्रेस और बसपा की तरफ भी जा सकता है। इसका खुलाशा प्रदेश के काबीना मंत्री आजम खां अपने पत्र बम में कर चुके हैं। लेकिन अगर सपा अपने बिखराव को रोक नहीं पाती है तो इसका साीधा लाभ भाजपा को होगा। चुनाव करीब आते ही राज्य में भारी संख्या में दलबदल देखने को मिल सकता है और सपा पूरी तरह बिखर जाएगी। लेकिन मुलायम सिंह की पूरी कोशिश होगी की इसे रोका जाय।

हालांकि सीएम अखिलेश के बयान से अमरसिंह बेहद आहत हैं। दलाल परिभाषित किए जाने पर उन्हें दुःख भी हैं। लेकिन मुलायम भक्ति के लिए मान अपना कोइ्र मायने नहीं रखता है। समाजवादी पार्टी की आतंरिक लड़ाइ का खामियाजा सपा के साथ-साथ सेक्युलर दलों को भी भुगतना पड़ेगा। क्योंकि यूपी की राजनीति में मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पाटी की अहमियत को नकारा नहीं जा सकता है। यूपी की राजनीति में विकास उतनी अहमियत नहीं रखता है जितनी की जाति। लेकिन भाजपा वहां सांप्रदायिक दंगों के बाद अच्छी पकड़ बना ली है। राज्य में कांग्रेस उस स्थिति में अभी नहीं दिखती है। राहुल गांधी की खाट पंचायत का बहुत बड़ा असर नहीं दिखता है। हलांकि कांग्रेस ने शीला दीक्षित जैसे ब्राहमण चेहरे को लाकर पीके फामूले पर नया दांव खेला है। लेकिन रीता बहगुणा जोशी पाटी को बड़ा झटका दिया है। लेकिन इंदिरा गांधी की टू कापी कही जानेवाली प्रियंका गांधी पाटी्र के प्रचार अभियान में कूदने से यह स्थिति दिलचस्प बन जाएगी। लोग राहुल गांधी से अधिक उन्हें पसंद करते हैं।

बिहार की तर्ज पर अगर सभी सेक्युलर दलों के बीच महागठबंधन की बात बन जाती है तो भाजपा के लिए इसका मुकाबला आसान नहीं होगा। इकसे लिए शिवपाल सिंह यादव सहारनपुर की सभा में एलान भी किया है। जदयू के शरद यादव से मुलाकात भी की है। अजीत सिंह भी महागठबंधन की बात कर चुके हैं। कांग्रेस के नेताओं से भी बात करने का एलान किया गया है। क्योंकि राज्य में समान विचाराधारा वालों दलों को सबसे अधिक खतरा भाजपा से है। यूपी की राजनीति का दो दशकों को इतिहास देखा जाय तो जय पराजय के मतों का जो अंतर बहुत अधिक नहीं रहा है। सिर्फ तीन से चार फीसदी वोटों के खींसकने से सत्ता फिसलती दिखती है। 2002 से 2012 के आम चुनावों में यही स्थिति देखी गयी। 2007 में बसपा को तकरीबन 29 फीसदी वोट मिले वहीं सपा को 26 फीसदी। जबकि 2012 में समाजवादी बसपा को पराजित कर दोबारा जब सत्ता में आयी तो उसे लगभग 29 फीसदी वोट हासिल हुए जबकि बसपा को 26 फीसदी और भाजपा को 15 फीसदी वोट मिले। इससे यह साबित होता है कि अगर अगड़ी जातियों से कांग्रेस सिर्फ पांच फीसदी वोट खींचने में कामयाब होती है तो वह सपा और बसपा जैसे दलों के लिए मुश्किल पैदा कर सकती है।

लेकिन अगर महागठबंधन की बात बन जाती है तो सभी के हित में होगा। सपा में अगर यही हालात बने रहे तो सीधी लड़ाइ भाजपा और बसपा के बीच दिखती है। अगर अल्पसंख्यक मतों को रुझान अपनी तरफ करने में मायावती कामयाब हुइ तो राज्य के सियासी हालात की तस्बीर दूसरी होगी। 18 फीसदी अगड़ी जातियों में ब्राहम्णों की संख्या 11 फीसदी है। जबकि राज्य में ठाकुर आठ फीसदी हैं। राज्य की 403 विस सीटों में तकरीबन 125 सीटें इस तरह की हैं जहां अगड़ी जातियों का वोट नया गुल खिला सकता है। प्रदेश के 39 फीसदी ओबीसी मतदाता हैं। जबकि 18 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं पर पकड़ बनाने के कांग्रेस, बसपा और सपा को लडना होगा। फिलहाल सियासी मैनेजमेंट में भाजपा और बसपा आगे दिखती हैं। जबकि अन्य दूसरे दलों में काफी बिखराव और भीतरघात की स्थिति दिखती है।

लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क : 892400544 , pnshukla6@gmail.com

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