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25.11.16

तबाही के मुहाने पर हड़प हाउस

गाजियाबाद स्थित नवनिर्मित हज हाउस तबाही के मुहाने पर खड़ा कर दिया गया है। वर्तमान सपा सरकार में मुसलमानों को खुश करने की इतनी जल्दी थी कि हज हाउस को जमीन के नीचे से गुजर रही गेल की गैस पाइप लाइन के ऊपर ही बना दिया गया। यदि कभी तकनीकी खराबी या फिर किसी सिरफिरे की करतूतों के चलते कोई हादसा हुआ तो निश्चित तौर पर बड़ी संख्या में जनहानि से इनकार नहीं किया जा सकता। डूब इलाके में बने हज हाउस में हज यात्रियों की मौजूदगी में यदि दैवीय आपदा ने अपनी ताकत दिखायी तो निश्चित तौर पर जिस वर्ग की खुशी के लिए सरकारी खजाने से तकरीबन 50 करोड़ खर्च कर दिए गए वही तबका समाजवादियों को पानी पी-पीकर कोसता नजर आयेगा। पर्यावरणविदों से लेकर एनजीटी तक यह बात अच्छी तरह से जानता है कि सपा सरकार की जिद के चलते एक वर्ग विशेष को तबाही के मुहाने पर लाने के सारे इंतजाम कर दिए गए हैं लेकिन मुस्लिम वोट बैंक बटोरने की चाहत ने तथाकथित समाजवादियों को इतना अंधा कर दिया है कि उन्हें कुछ नजर ही नहीं आता।

तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार के कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टिकरण नीति पर राजनीति का मुलम्मा चढ़ाने की गरज से गाजियाबाद में एक हज हाउस के निर्माण की पटकथा तैयार की गयी। सिंचाई विभाग ने तत्कालीन मुख्यमंत्री के आदेश पर आनन-फानन में योजना को कागजों पर उतार दिया। एनजीटी ने इस योजना का जमकर विरोध किया लेकिन तत्कालीन मुलायम सरकार मुसलमानों की खुश करने की गरज से अपनी जिद पर अड़ी रही। हज हाउस को बनाने का काम रफ्तार पकड़ता इससे पहले ही सूबे से मुलायम सरकार का पत्ता साफ हो गया। बसपा सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन मुख्य सचिव ने बन चुके ढांचे को तत्काल प्रभाव से ढहाये जाने के आदेश दिए। जिसे जिम्मेदारी सौंपी गयी वह विभाग कोई न कोई बहाना बनाकर मामले को टालता रहा। एक बार फिर से अखिलेश के नेतृत्व में सपा की सरकार ने सूबे में जीत के झण्डे गाड़े। मौके की तलाश में बैठे आजम खां इस बार किसी कीमत पर चूकने वाले नहीं थे। वैसे भी पार्टी में उन्हें मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का ठेका मिला हुआ है लिहाजा आजम खां की चाहत को पूरा करने के लिए वर्तमान अखिलेश सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। अंतत: अनियमितताओं से भरा हज हाउस तनकर खड़ा हो चुका है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उद्घाटन भी कर चुके हैं लेकिन इसके निर्माण को लेकर शुरू हो चुकी कानूनी जंग अभी-भी जारी है।


 अनूप गुप्ता


आम जनता की गाढ़ी कमाई का लगभग 200 करोड़ रुपया सरकारी खजाने से खर्च कर दिया गया। यह पैसा सूबे के विकास के लिए नहीं बल्कि एक वर्ग विशेष के लोगों को खुश करने की गरज से खर्च किया गया। गाजियाबाद स्थित हज हाउस के निर्माण के लिए खर्च किए गए पैसे तो सरकारी खजाने से निकाले गए लेकिन निर्माण का दायित्व हज कमेटी के हाथों में सौंप दिया गया। नियमतः इसका निर्माण कार्य लोक निर्माण विभाग, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण अथवा किसी अन्य सरकारी विभाग से करवाया जाना चाहिए था लेकिन सारी बाध्यताओं को आंख बंद करके नजरअंदाज कर दिया गया। एक वर्ग विशेष को खुश करने के लिए निर्माण की इतनी जल्दी थी कि स्थानीय प्रशासन के साथ ही जिम्मेदार विभागों ने तो आंख बंद रखी ही साथ ही शासन स्तर से भी सारे नियम-कानूनों को आडे़ नहीं आने दिया गया। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ही नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय से भी सख्त आदेश थे कि सरकार के सत्ता में रहते निर्माण कार्य हर हाल में पूरा हो जाना चाहिए। हज हाउस के निर्माण कार्य की निगरानी बाकायदा नगर विकास मंत्री आजम खां स्वयं कर रहे थे। निर्माण स्थल पर कैबिनेट मंत्री आजम खां की चहल-कदमी हो और काम समय पर पूरा न हो। ऐसा हो ही नहीं सकता था, लिहाजा तय समय में गाजियाबाद स्थित हज हाउस का निर्माण भी पूरा हो गया। एक तरफ पर्यावरण को लेकर स्थानीय जनता चीखती-चिल्लाती रही और दूसरी ओर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने फीता काटकर कर हज हाउस का उद्घाटन भी कर दिया। अखिलेश सरकार के फासीवाद का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि एक तरफ तो एनजीटी (राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण) प्रदेश सरकार के जिम्मेदार विभागों को नोटिस पर नोटिस देता रहा और दूसरी ओर नोटिस से बेपरवाह अखिलेश सरकार के संरक्षण में हज हाउस तनकर खड़ा हो गया। इस मामले में बकायदा एक जनहित याचिका तक कोर्ट में फैसले का इंतजार करती रह गयी और अखिलेश सरकार के जिम्मेदार अधिकारी (नौकरशाहों की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता) अपना काम दिखा गए। इस मामले को लेकर स्थानीय जनता अब यहां तक कहने लगी है कि सरकार के आगे न्यायपालिका बौनी साबित हुई है। कोर्ट में दायर जनहित याचिका और दस्तावेज यह साबित करने के लिए काफी हैं कि अखिलेश सरकार ने आगामी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को खुश करने की गरज से तकरीबन 50 करोड़ रुपया पानी की तरह बहा दिया। जिन रुपयों पर सभी वर्ग के आम लोगों का हक था वह रुपया अखिलेश सरकार ने एक खास वर्ग को खुश करने की गरज से लुटा दिया। अब स्थानीय जनता यह सवाल करने लगी है, ‘क्या धर्म विशेष के लोगों को खुश करने के लिए सरकारी जमीन पर हज हाऊस का निर्माण कराया जा सकता है, जिसका उपयोग सिर्फ एक ही धर्म के लोग कर सकते हैं?’ इस यक्ष प्रश्न का नकारात्मक जवाब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव समेत सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और आजम खां समेत तमाम लोगों के पास है, लेकिन वर्ग विशेष को खुश करने के लिए सरकार इस मुद्दे पर जवाब देना नहीं चाहती। हैरत की बात है कि न्यायपालिका ने भी इस मामले पर कोई कठोर रुख नहीं दिखाया है। जनहित याचिका दायर करने वाले तो सिर्फ एक शब्द कहते हैं, ‘‘ये तो हद हो गयी।’’

गौरतलब है कि गाजियाबाद में बने छह मंजिला हज हाउस का शिलान्यास 30 मार्च 2005 को मुलायम सिंह यादव ने किया था जबकि इसकी तैयारी और पहले से चल रही थी। कोर्ट में जो जनहित याचिका दायर की गयी है उसके मुताबिक तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में मुख्यमंत्री कार्यालय से एक आदेश जारी किया गया। आदेश के आधार पर (1 दिसम्बर 2004) उत्तर-प्रदेश सिंचाई विभाग ने हज हाऊस निर्माण के लिए एक आॅफिशियल रिपोर्ट तैयार किया। सिंचाई विभाग को यह फरमान इसलिए सुनाया गया था क्योंकि गाजियाबाद जनपद के अन्तर्गत लोनी तहसील क्षेत्र में पड़ने वाली खसरा संख्या 1399, 1402 और 1403 जमीन सिंचाई विभाग के ही अधीन थी। गाािजयाबाद विकास प्राधिकरण के मास्टर प्लान में खसरा संख्या 1399 में 3.547 एकड़, खसरा संख्या 1402 में 0.490 एकड़ और खसरा संख्या 1403 में 0.948 जमीन कम्यूनिटी फैसिलिटी (सार्वजनिक उपयोग) में दर्शायी गयी थी। यानि उस जमीन का इस्तेमाल किसी एक वर्ग को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं किया जा सकता था। गौरतलब है कि पहले इस बिल्डिंग का नामकरण ठहराव स्थल के रूप में किया गया था, जिसे सभी धर्म और जाति के लोग अपने-अपने धार्मिक कार्यक्रमों के लिए कर सकते थे, जैसे कांवड़ यात्रा, कैलाश मानसरोवर यात्रियों और अमरनाथ तीर्थ यात्रियों समेत हज यात्री भी। चूंकि तत्कालीन मुलायम सरकार को अपनी मुस्लिम तुष्टिकरण नीति के चलते लाभ सिर्फ मुसलमानों को ही पहुंचाना था लिहाजा ‘ठहराव स्थल’ का नाम बदल कर हज हाऊस कर दिया गया। उसके बाद इस हज हाऊस का नाम एक बार फिर से परिवर्तित कर ‘आला हजरत हज हाऊस’ कर दिया गया। तथाकथित समाजवादियों की मंशा नाम परिवर्तन के दौरान ही सामने आ गयी थी कि ये सरकार सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखने के बजाए एक वर्ग विशेश को ही लाभ देने के पूरे मूड में है। 27 जुलाई 2005 में ही इस जमीन को हज हाऊस निर्माण के लिए उत्तर-प्रदेश हज हाऊस कमेटी को लीज पर दे दी गयी ताकि वह इस स्थान पर हज हाउस का निर्माण कर उसमें सारी सुख-सुविधाओं की व्यवस्था कर दे। इस कार्य के लिए बाकायदा करोड़ों रुपये आनन-फानन में सरकारी खजाने से जारी कर दिए गए। हज हाउस कमेटी का खेल देखिए। हज कमेटी के लिए जितनी जमीन हज हाउस कमेटी को लीज पर दी गयी थी उससे कहीं अधिक जमीन पर उसने पार्किंग के नाम पर निर्माण कार्य करवाना शुरु कर दिया जबकि 20 जुलाई 2005 में तैयार की गयी लीज डीड में निर्धारित मात्रा में 4.535 एकड़ जमीन पर ही हज हाउस बनाने की अनुमति प्रदान की गयी थी। सिंचाई विभाग ने इसकी जानकारी शासन तक भी पहुंचायी, लेकिन मामला मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से जुड़ा हुआ था लिहाजा तत्कालीन सपा सरकार आंखों और कानों में रुई डालकर बैठी रही। विरोध करने वाले स्थानीय लोगों को प्रशासन ने चुप्पी साधने पर विवश कर दिया।

राजस्व विभाग की खतौनी के (फसली वर्ष 1419/1992) सीरियल नम्बर-4 में स्पष्ट दर्शाया गया है कि खसरा नम्बर 1402 और 1403 वाली जमीन हिंडन नदी के रूप में दर्ज है। प्रत्येक वर्ष इस नदी का जलस्तर इतना बढ़ जाता है कि उक्त खसरा संख्या भी हिंडन नदी का एक हिस्सा लगने लगता है लिहाज राजस्व के रिकाॅर्ड में उक्त खसरा संख्या की जमीन को भी हिंडन नदी की सम्पत्ति दर्शाया गया था। इसी तरह से खसरा नम्बर 1399 को भी राजस्व के दस्तावेजों में हिंडन नदी का बाढ़ प्रभावित इलाका (डूब क्षेत्र) दर्शाया गया है। यह जमीन गांव की काॅमन लैंड के रूप में भी चिन्हित है। नियम विरुद्ध तरीके से इन सभी इलाकों को हज हाउस की सीमा में सम्मिलित कर लिया गया है। इस डूब क्षेत्र (जिस क्षेत्र पर 50 करोड़ की लागत से हज हाउस तनकर खड़ा है) की जमीन जीटी रोड से तकरीबन 25 से 30 फीट नीचे है। यदि हज यात्रियों की मौजूदगी में बाढ़ आती है तो निश्चित तौर पर कोई बड़ा हादसा हो सकता है। समाचार लिखे जाने तक हज यात्रियों की बाढ़ से सुरक्षा को लेकर किसी तरह के इंतजाम नहीं किए गए थे। न ही योजना में सुरक्षा का खाका खींचा गया था।

हज हाउस के अनैतिक निर्माण के लिए यूपी स्टेट पाॅल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (उत्तर-प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, लखनऊ) भी बराबर का जिम्मेदार है। नियमतः जनहित को ध्यान में रखते हुए उसे एनओसी नहीं देनी चाहिए थी, लेकिन यह विभाग भी अपने कर्तव्यों का दायित्व निभाने में फेस साबित हुआ। राजस्व रिकाॅर्ड के मुताबिक नदी परिक्षेत्र में किसी भी निर्माण के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र नहीं दिया जा सकता। इसके बावजूद यूपी सरकार ने हज हाउस का विशाल भवन तैयार कर यह साबित कर दिया है कि डण्डे की जोर पर कुछ भी किया जा सकता है।

गौरतलब है कि तत्कालीन मायावती सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन मुख्य सचिव ने 16 मार्च 2010 को हिंडन नदी के डूब क्षेत्र में हज हाउस के अवैध आंशिक निर्माण को ध्वस्त करने का आदेश दिया था लेकिन जिम्मेदार विभाग उस आदेश का भी पालन नहीं करवा पाए। गाजियाबाद जिला प्रशासन को दिए गए आदेश में यहां तक कहा गया था, ‘जब तक निर्माण कार्य को पूरी तरह से ध्वस्त नहीं कर दिया जाता तब तक बिजली-पानी की सप्लाई भी रोक दी जाए।’ हैरत की बात है कि तत्कालीन मुख्य सचिव के आदेश भी मुलायम के सपनों पर पानी नहीं फेर सके। यह अलग बात है कि उस दौरान दिखावे के तौर पर निर्माण कार्य पूरी तरह से बंद रहा। बसपा सरकार के सत्ता से हटते ही अखिलेश सरकार के कार्यकाल में एक बार फिर से हज हाउस के निर्माण ने गति पकड़ी और कार्यकाल समाप्त होने से छह माह पूर्व ही नदी क्षेत्र और डूब क्षेत्र की जमीन पर हज हाउस तनकर खड़ा हो गया। तमाम विरोध के बावजूद पिछले दिनों मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी ‘‘प्रिवेंशन एण्ड कंट्रोल आॅफ पाॅल्यूशन एक्ट-1974’’ की परवाह किए बगैर हज हाउस का उद्घाटन भी कर दिया। मुख्यमंत्री के इस कृत्य से साफ हो जाता है कि वर्तमान अखिलेश सरकार डण्डे के जोर पर शासन कर रही है। उसके सामने न तो जनता की नाराजगी मायने रखती है और न ही देश के नियम-कानून। न्यायपालिका के आदेशों की सरेआम धज्जियां उड़ायी जाती हैं। इस मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। न्यायपालिका तो इस मामले में सख्त नजर आयी लेकिन सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। खुलेआम न्यायपालिका के आदेशों का उल्लंघन किया गया।



खतरे से खाली नहीं हज हाउस?

यह अहम प्रश्न जनहित याचिका दायर करने वालों से लेकर आम जनता तक की जुबान पर है। नदी क्षेत्र और डूब इलाके में बने यह हज हाउस खतरे से खाली नहीं है। यदि इस इलाके में हज यात्रा कार्यक्रम के दौरान कभी बाढ़ आयी और जान-माल का नुकसान हुआ तो जिम्मेदारी किसकी होगी? सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की? या फिर आजम खां की? जिनका यह सपना था। या फिर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की जिनके कार्यकाल में हज हाउस की पटकथा तैयार की गयी थी? हज हाउस के नीचे गेल कम्पनी की एक बड़ी गैस लाइन दब गयी है। यदि तकनीकी खराबी या फिर किसी सिरफिरे ने पाइप लाइन से छेड़छाड़ की और हादसा हो गया तो निश्चित तौर पर जान-माल का काफी बड़ा नुकसान हो सकता है। इस अनियमितता के लिए हज कमेटी से लेकर शासन स्तर पर बैठे शीर्ष अधिकारियों को भी जिम्मेदारी से अलग नहीं रखा जा सकता। इन सभी जिम्मेदार लोगों ने सरकार के एक अनैतिक कार्यक्रम को पूरा करने के लिए (जिसका मकसद ही मात्र एक वर्ग विशेष को खुश करना था) नियमों और न्यायपालिका के आदेशों के विरुद्ध काम किया है। यहां तक कि एनजीटी के निर्देश भी इनके लिए बेमानी साबित रहे। अब प्रश्न यह उठता है कि जब राज्य सरकार को एनजीटी के नियम-कानूनों का पालन करना ही नहीं है तो एनजीटी की उत्तर-प्रदेश में आवश्यकता ही क्या है?



तो नदी में जायेगा सीवरेज डिस्पोजल!

हज यात्रा के दिनों में लगभग हजारों की संख्या में हज यात्रियों की मौजूदगी के दौरान सीवरेज समस्या का कोई हल नहीं निकाला गया है। एनजीटी के स्पष्ट निर्देश हैं कि सीवरेज का डिस्पोजल ट्रीटमेंट के बगैर सीधे नदी में नहीं किया जा सकता। हाल-फिलहाल न तो कोई योजना बनी है और न ही भविष्य में बनती नजर आ रही है। जाहिर है कि इस बार की हज यात्रा के दौरान नदी के जल का प्रदूषित होना तय है। इस मामले में न तो सरकार संजीदा नजर आ रही है और न ही हज हाउस के निर्माण का जिम्मा लेने वालों की कानों में जूं रेंग रही। स्थानीय जनता में जरूर आक्रोश है। यदि सरकार की तरफ से इसी तरह लापरवाही जारी रही और हज यात्रा के दिनों में नदी प्रदूषित हुई तो निश्चित तौर पर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।



हर जगह उड़ी नियमों की धज्जियां

गाजियाबाद स्थित हिंडन नदी के तट पर नियमविरुद्ध तरीके से बन चुके हज हाउस पर से खतरे के बादल अभी भी मंडरा रहे हैं। इस मामले में एक जनहित याचिका पर सुनवाई अभी समाप्त नहीं हुई है। हैरत की बात है कि फैसला होने से पहले ही सपा सरकार ने हज हाउस बनाकर खड़ा कर दिया और उसका उद्घाटन भी कर दिया। गौरतलब है कि इस मामले में अर्जेंट सुनवाई करते हुए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश हज हाउस कमेटी, प्रदेश सिंचाई विभाग, प्रदेश पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड समेत आठ अथारिटी को नोटिस जारी किया था। प्राधिकरण द्वारा जारी 21 पेजों के नोटिस में सभी निकायों से नियमों के उल्लंघन पर स्पष्टीकरण मांगा गया था। प्राधिकरण ने 24 अक्टूबर तक जबाव दाखिल करने के लिए कहा था लेकिन तय कार्यक्रम के आधार पर नोटिस का जवाब देने से पहले ही हज हाउस का उद्घाटन कर कर दिया गया।

गौरतलब है कि सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन आॅफ एन्वॉयरमेंट एंड बायोडायवरसिटी (एनजीओ) के सचिव आकाश वशिष्ट, सामाजिक कार्यकर्ता सुशील राधव, पार्षद पति हिमांशु मित्तल और शालीमार गार्डन निवासी अरविंद कुमार अरोड़ा की तरफ से एनजीटी में एक जनहित याचिका दायर की गई थी। एनजीटी की तरफ से हज हाउस के निर्माण में लापरवाही बरते जाने पर भारत सरकार वन पर्यावरण मंत्रालय, उत्तर प्रदेश सरकार, उत्तर प्रदेश पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड, सिंचाई विभाग, नगर निगम गाजियाबाद, गाजियाबाद विकास प्राधिकरण, जिलाधिकारी गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश हज हाउस कमेटी को नोटिस जारी किए गए थे। एक आरटीआई कार्यकर्ता के अनुसार इसका निर्माण तीन खसरों की जमीन पर हुआ है। खसरा नम्बर 1402 और 1403 अर्थला गांव की नदी के खसरे हैं। तीसरा खसरा 1399 बंजर है और यह जमीन ग्राम सभा की है। नियम के हिसाब से ग्राम सभा की जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता। केवल इसे गांव के इस्तेमाल में लिया जा सकता है। हज हाउस के लिए उत्तर प्रदेश शासन की तरफ से कितना दबाव डाला गया, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2005 में बिना किसी जांच के पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने एनओसी जारी कर दी थी।



क्या कहा था पूर्व मुख्य सचिव ने

तत्कालीन बसपा सरकार के कार्यकाल में राज्य के पूर्व मुख्य सचिव ने गाजियाबाद प्रशासन को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से कहा था, ‘मास्टर प्लान में नदी और डूब क्षेत्र ग्रीन बेल्ट के लिए रिजर्व है। इस बात का ध्यान रखा जाए कि उक्त स्थान पर किसी प्रकार का निर्माण कार्य न होने पाए। आरबीओ, यूपी अरबन प्लानिंग एण्ड डेवलपमेंट एक्ट 1973 एवं इण्डस्ट्रीयल डेवलपमेंट एक्ट 1973 के तहत किसी भी प्रकार का अनापत्ति प्रमाण भी न दिया जाए। आदेश के बावजूद किसी भी तरह का निर्माण होने की दशा में सिंचाई विभाग की जिम्मेदारी तय करते हुए सम्बन्धित अधिकारी को दण्डित किया जायेगा। चिन्हित स्थान पर हुए निर्माण कार्य को सिंचाई विभाग तुरंत ध्वस्त करने की कार्रवाई करे।’

दोबारा किसी डूब क्षेत्र में इस तरह के निर्माण कार्य न होने पावें इसके लिए सिंचाई विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों को तो निर्देश दिए ही गए थे साथ ही  प्रत्येक जिले के शीर्ष पुलिस अधिकारियों को कडे़ आदेश भी मुख्य सचिव स्तर से जारी किए गए थे। मुख्य सचिव स्तर से बाकायदा अधिकारियों की जिम्मेदारी तय की गयी थी। आदेश में साफ कहा गया था, ‘यदि इसके बाद कहीं भी अवैध निर्माण पाया गया तो अधिकारियों की जिम्मेदारी तय कर उनके खिलाफ एक्शन लिया जायेगा।’ हैरत की बात है कि तत्कालीन मुख्य सचिव के कडे़ आदेश का असर भी कहीं नजर नहीं आया।



सिर्फ एक माह के लिए 50 करोड़!

गौरतलब है कि हज यात्रा कार्यक्रम पूरे वर्ष में सिर्फ एक माह के लिए ही किया जाता है। इसी दौरान हाजियों के ठहरने के लिए हज हाउस की आवश्यकता होती है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या अखिलेश सरकार ने महज एक माह के इस्तेमाल के लिए ही जनता की गाढ़ी कमाई के 50 करोड़ रुपए लुटा दिए? सरकार की तरफ से कहा जा रहा है कि शेष महीनों में हज हाउस का इस्तेमाल कोंचिग और शिक्षा के लिए किया जायेगा। इन दावों के साथ ही एक अहम प्रश्न और जुड़ जाता है। शेष दिनों में हज हाउस में शिक्षा पाने का अधिकार किसका होगा? यहां पर किस तरह की कोचिंग अथवा शिक्षण संस्थान चलाया जायेगा। यदि वर्ग विशेष के लिए ही सरकार ने व्यवस्था कर रखी है तो आने वाले दिनोंं में टकराव की स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है सूबे में जिस किसी की सरकार होगी वह मनमाने ढंग से इस 50 करोड़ की सम्पत्ति को अपने तरीके से इस्तेमाल करेगा। गौरतलब है कि जिस स्थान पर हज हाउस तनकर खड़ा है उस स्थान को गाजियाबाद के मास्टर प्लान में कम्यूनिटी फैसिलिटी के रूप में दशार्या गया है। जाहिर सी बात है कि इन परिस्थितियों में एक वर्ग विशेष कानूनी तौर पर अपना अधिकार नहंी जमा पायेगा।



नगर आयुक्त भी संदेह के घेरे में

गाजियाबाद नगर-निगम के नगर आयुक्त अब्दुल समद पर आरोप है कि इन्होंने शासन से इजाजत लिए बगैर ढाई से तीन करोड़ रुपए हज हाउस में लगा दिए। यह पैसा किस मद में लगाया गया? इन पैसों से क्या काम कराए गए? जब 50 करोड़ रुपए सरकार खर्च कर चुकी थी तो तीन करोड़ की आवश्यकता क्यों पड़ी? आरोप है कि इस खर्च की अनुमति गाजियाबाद नगर-निगम बोर्ड एवं कार्यकारिणी से भी नहीं ली गयी। साफ तौर पर यह जांच का विषय है। विभागीय अधिकारियों और कर्मचारियों का आरोप है कि नगर-निगम आयुक्त ने भी भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोने की गरज से लगभग तीन करोड़ रुपए नगर-निगम खजाने से खर्च के रूप में दर्शाए हैं।



उत्तर-प्रदेश का लूटकाल



‘जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था।’ कमोवेश कुछ ऐसा ही नजारा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार के कार्यकाल में देखने को मिला। पूरे कार्यकाल में आम जनता की गाढ़ी कमाई लुटती रही और ईमानदारी का ढोंग करने वाले जिम्मेदार लोग आंख बंद कर यही सोंचते रहे कि ‘सावन के अंधों को हरा ही हरा नजर आयेगा।’ विकास के नाम पर खरबों के बजट में से अरबों की अवैध कमाई संतरी से लेकर मंत्री तक और कर्मचारी से लेकर नौकरशाही तक ने की। ज्यादातर मामलों का दस्तावेजों के आधार मीडिया में खुलासा भी किया गया, लेकिन मुख्यमंत्री से लेकर विभाग के मंत्री तक खामोशी की चादर ओढ़े नींद का स्वांग करते रहे। पूरे कार्यकाल में ट्रांसफर-पोस्टिंग उद्योग खूब फला-फूला। एक जाति विशेष के प्रति सरकार की कृपा बरसती रही तो दूसरी ओर एक बड़ा वर्ग मुख्यमंत्री से विकास की आस लगाए रहा। पूरा सूबा अपराधियों के आतंक से कराहता रहा। यहां तक कि वह खाकी भी खौफ में रही जिसके खौफ से कभी अपराधी थरार्या करते थे। हत्या, हत्या के प्रयास, लूट, चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार, गैंगरेप जैसी गंभीर वारदातों ने सूबे की जनता का जीना दूभर कर दिया। अखिलेश सरकार के कुछ फैसलों ने भी सह साबित कर दिया कि यह सरकार भी तथाकथित भ्रष्टाचारियों की पोषक है। आइएएस अधिकारी प्रदीप शुक्ला, राजीव कुमार, संजीव सरन, पंधारी यादव, इंजीनियर यादव सिंह समेत आईपीएस यशस्वी यादव सरीखे अधिकारियों की अखिलेश सरकार में नियुक्ति साफ बताती है कि सरकार की नीयत ठीक नहीं थी। ‘ये पब्लिक है, सब जानती है।’



नैतिकता बेमौत मर गई। सरकार ने उन नौकरशाहों और अधिकारियों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया, जिन्हें कोर्ट सजा दे चुकी थी या वे जेल की सैर कर आए थे। न्यायपालिका के तल्ख और सख्त तेवरों के चलते कई बार सरकार को अपने फैसले बदलने पड़े। कई बार सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा, लेकिन आदतें नहीं बदलीं। साढ़े चार साल बाद भी तथाकथित भ्रष्ट मंत्री, नौकरशाह और अधिकारियों की फौज इस लूटकाल का आनंद उठा रही है। अब खुद को लर्निंग सीएम बताने वाले अखिलेश इन साढ़े चार सालों में ऐसा कोई संदेश नहीं दे पाए जिससे लगे कि इस लूटकाल को वह बदलना चाहते हैं। यदि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने डीपी यादव काल जैसी तनिक भी हिम्मत दिखाई होती उनका शासन लूटकाल के तौर पर व्याख्यित और संदर्भित नहीं होता। निश्चित तौर पर कई मंत्री, विधायक और नौकरशाह जेल में चक्की पीस रहे होते, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। शायद साढ़े चार मुख्यमंत्रियों के चलते फैसलों पर सहमति नहीं बन पाई? मुख्यमंत्री वर्ष 2012 वाले तेवर का बीस फीसदी हिस्सा भी संजीदगी से दिखा देते तो उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र, अगड़ा-पिछड़ा समीकरण साधने या रणनीतियां बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जनता खुद-ब-खुद उन्हें दोबारा चुन लेती, लेकिन धोखा खाई जनता ज्यादा खतरनाक होती है और मायावती का शासनकाल इसका बेहतरीन उदाहरण है। खुद को लोहिया और जयप्रकाश का अनुयायी कहने वाले समाजवादियों के भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा का आलम यह है कि सरकार अपने आखिरी काल में भी सरकारी खजाने को दोनों हाथों से लूटने और बटोरने में लगी है। चंद दिन पहले ही अखिलेश सरकार ने 25 हजार करोड़ का अनुपूरक बजट बनाकर इसकी व्यवस्था भी कर दी है। लूटकाल का सबसे पहला सवाल यही है कि क्या सरकार अपने चंद दिनों में इतनी धनराशि ईमानदारी से खर्च कर पाएगी? या फिर यह बजट लूटकाल में नए रिकार्ड बनाने के लिए जारी की गई है?



‘‘मुझे तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती वहां डूबी जहां पानी कम था’’। उत्तर प्रदेश की लगभग 22 करोड़ आबादी का दर्द भी कुछ ऐसा ही है, बिल्कुल रूह को छीलता हुआ सा। लगभग साढ़े चार वर्ष पहले वर्ष 2012 में जब सूबे की जनता ने बसपा के भ्रष्टाचार से आजिज आकर समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव पर भरोसा जताया, तो उसे उम्मीद थी कि परेशानी के ये घनघोर बादल छंट जाएंगे। उसे भ्रष्टकाल से आजादी मिलेगी। जनता को सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव में नई संभावनाएं दिख रही थीं। सालों से ठगी-लुटी जनता में उम्मीदों के नए कोपल फूट रहे थे। अखिलेश के चुनावी वायदों पर जनता को भरोसा हो चला था। अखिलेश ने बाहुबली डीपी यादव का सपा में गृहप्रवेश रोककर अपनी सोच और काम का ट्रेलर भी दिखा दिया था। इसी एक प्रोमो ने ऐसा असर दिखाया कि यूपी में समाजवादी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिल गया। ऐसा चमत्कार उनके पिता मुलायम सिंह यादव भी नहीं कर सके थे। जीत के जोश से लबरेज सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में शामिल अपने नाते, रिश्तेदारों और पार्टी के विश्वासपात्रों को चौंकाते हुए सूबे की कमान अपने उस युवा और ऊजार्वान पुत्र को सौंप दी, जिस पर पार्टी की जीत का सेहरा बांधा गया था। शुरूआती ना-नुकुर के बाद सबने इस फैसले को स्वीकार कर लिया। मुलायम खुद संगठन और सरकार के भीष्म पितामह बनकर दिल्ली के मोर्चे पर लग गए। जनता भी खुश हो गई कि अखिलेश राज में लूट और गुंडाराज से उसे निजात मिल जाएगी। एक युवा, आधुनिक सोच वाला पढ़ा-लिखा सीएम बेहतरीन विजन के साथ उनके लिए काम करेगा। लूट और गुंडई उसके राज में असंभव हो जायेगी। कुछ दिनों तक जनता का यह हसीन सपना हकीकत अख्तियार करता भी नजर आया, लेकिन यह हनीमून पीरियड लंबा नहीं चल पाया। नई नवेली दुल्हन की चमक फीकी पड़ने लगी। कुछ महीनों के भीतर ही नई वाली सपा केंचुली छोड़कर पुराने वाले अंदाज में नजर आने लगी। तेज तर्रार सीएम असहाय सा नजर आने लगा। उसकी आक्रामक ऊर्जा जनता की भलाई की बजाय सरकार के बचाव में खर्च होने लगी। युवा सीएम के कार्यकाल में मंत्री से लेकर संतरी तक, कर्मचारी से लेकर नौकरशाह तक जनता के खजाने को दोनों हाथों से लूटते रहे, अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव बेबस नजरों से सिर्फ निहारते रहे। अब जब यह सरकार अंतिम पायदान की तरफ बढ़ चली है तो भ्रष्टाचार, लूट, गुंडई के नए प्रतिमान दिन पर दिन बनते जा रहे हैं। हालात इतने बुरे हो चुके हैं कि भ्रष्टाचार के कुछ रिकार्ड टूटने की कगार पर हैं। साढ़े चार साल में भ्रष्टाचार और उसके संरक्षकों ने बेशर्मी की सारी हदें पार कर दीं।



अनूप गुप्ता

गौरतलब है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री जनता द्वारा पाँच साल के लिए चुना जाता है। जनता उससे अपेक्षा रखती है कि वह अपने कार्यकाल में जनता के हित में ईमानदारी से कार्य करेंगे। मुख्यमंत्री का भी यह दायित्व है कि वह जनता को बतायें कि उन्होंने क्या किया और उससे जनता को कितना लाभ हुआ? गौरतलब है कि मुख्यमंत्री ने अपने इसी दायित्व का निर्वहन करते हुए सार्वजनिक मंचों और मीडिया के माध्यम से प्रचारित किया है कि उन्होंने प्रदेश का विकास जनता की अपेक्षा के अनुरूप किया है और वे विकास कार्यों पर किसी से भी खुली बहस कर सकते हैं। विकास कार्यों पर बहस के लिए आमन्त्रित करने का मुख्यमंत्री का यह कदम सराहनीय कहा जा सकता है और शायद इससे लोकतन्त्र में स्वस्थ परम्परा की शुरुआत भी। इन दावों में कितनी सच्चाई है इससे रूबरु होना भी जरूरी है। मुख्यमंत्री के चैलेंज के बाद कई पार्टियों के नेताओं ने बहस के निमंत्रण को स्वीकारा है, लेकिन कथित स्वस्थ्य परम्परा परवान नहीं चढ़ सकी। मुख्यमंत्री के दावों में कितनी सच्चाई है, इसका पोस्टमार्टम तो होगा ही, इससे पहले यह जान लेना जरूरी है कि युवा सोच रखने वाले मुख्यमंत्री ने तकरीबन साढ़े चार वर्ष के दौरान किन-किन योजनाओं को हरी झण्डी दी और धरातल पर यह योजनाएं कितनी सफल हो सकीं? 17 जुलाई 2016 को करोड़ों के विज्ञापन जारी कर समाचार पत्रों में मुख्यमंत्री के विकास कार्यों की सूची प्रकाशित हुई।

दावा तो यही किया गया है कि प्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य से लगायत रोजगार, विकास, पर्यावरण, सड़क, बिजली, परिवहन, कानून-व्यवस्था जैसी सारी समस्याओं का समाधान कर दिया गया है, लेकिन उपरोक्त कार्यों से कहीं नहीं प्रकट होता कि उनके पास प्रदेश के दीर्घकालीन विकास के लिए कोई माॅडल है? विकास के जितने भी कार्यक्रम लागू किए गए हैं, उनमें से ज्यादातर तात्कालिक लाभ देने वाले हैं या केवल प्रचार पाने वाले। जनता ने जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनाई थी तो यही आशा कि थी कि प्रदेश के विकास में वे समाजवादी माडल को अपनायेंगे, लेकिन अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री बनने से लेकर अब तक किसी समाजवादी विकास माडल की घोषणा नहीं की। साफ जाहिर है कि उनका अपना कोई समाजवादी माडल है ही नहीं। आजादी के बाद केरल को छोड़ कर अगर कहीं समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो वह उप्र है। समाजवाद के बारे में लोहियाजी ने तत्कालीन छात्र नेता बृजभूषण तिवारी (पूर्व सासंद, जो अब दिवंगत हो चुके हैं) को एक पत्र दिनांक 21 जनवरी 1965 में लिखा था, ‘‘मैं इस जगह (समाजवाद) शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूं, क्योंकि समाजवाद की ठोस परिभाषा किये बिना, यह शब्द निरर्थक अथवा बुरे अर्थ का होता जा रहा है। समस्या इस समय गरीबी की है, गैर-बराबरी, टूटे मन और उससे उपजी वृत्तियों की है। सबसे पहला काम है कि खेती व कारखानों के सुधार में अधिकतम पूंजी लगाई जाये। इस पूंजी के निर्माण के लिए खर्चे व खपत पर रोक लगाना जरूरी है। विलासी अथवा फिजूल खर्चे पर रोक लगा कर उसे खेती व कारखाने की पूंजी में ढालना है। बड़े लोगों का खर्च एक हजार रूपये महीने से उपर न हो और सब निजी खर्च उपयुक्त ढंग से इससे कम हों। फिजूल खर्च को रोका जाये। उदाहरण के लिए इस समय एक करोड़ सरकारी नौकर हैं, जिसमें शायद पचास लाख काम करते होंगे। बाकी पचास लाख को कुटुम्ब, जाति, सिफारिश अथवा बेकारों के हल्ले के डर से काम मिला हुआ है। कोई सरकार इनकी छंटनी नहीं कर सकती, मौजूदा सरकार तो इनकी संख्या बढ़ाती रहेगी। इसलिए यह सरकार सदा के लिए श्रापग्रस्त है। कोई अच्छी सरकार आयेगी तो इन पचास लाख लोगों को दूसरे कामों मे लगाएगी और बड़े खर्चे रोकेगी। इस नई वृत्ति में कुछ नमूने बताता हूँ। प्राथमिक विद्यालय सब एक ढंग के हों। रेलगाड़ी में केवल तीसरा दर्जा हो। बस अथवा हवाई जहाज में सफर के अनुरूप नियम बनें। निजी मोटर का निर्माण बन्द हो, केवल बस, ट्रक, टैक्सी बनाये जायें। निजी खर्चे पर हजार रूपये महीने की सीमा बाँधने के मैंने कुछ अनिवार्य नतीजे गिनाये। दो वृत्तियाँ आज के मानस में तुम पाओगे। एक, अपनी और अपने कुटुम्ब की परवरिश, इसे तुम बड़े लोगों और चालाक लोगों में अधिकतर पाओगे। दो, अपने गिरोह के कुछ सीमित स्वार्थों को पूरा कराना। लोग सोचते हैं कि हम अपना अलग से फायदा नहीं कर सकते तो कम से कम एक साथ रह कर अपने गिरोह के लिए कुछ करवा सके तो हमें भी कुछ मिल जाए। नतीजा हुआ कि राष्ट्रीय मन सिकुड़न, संकोच और झपट का हो गया, फैलाव और विस्तार का नहीं। वृद्धि का नहीं, संरक्षण व परमार्थ का नहीं बल्कि स्वार्थ का हो गया है। व्यापक नहीं, संकुचित हो गया है। अपनी जाति, अपना कुटुम्ब, अपना समूह, अपना धन्धा लेकिन यह मन नहीं बन पा रहा है कि सभी अड़तालीस करोड़ लोगों का विकास हो सकता है और होना चाहिए।’’

लोहिया जी ने बिना समाजवाद की व्याख्या किए समाजवादी सरकार के लिए कहा था कि किसानों व कारखानों में सबसे ज्यादा पूंजी लगना चाहिए। किसानों की खेती के लिए जरूरी चीजें हैं- सिंचाई का साधन, बीज, खाद, कीटनाशक दवायें, कृषि उपकरण, गोदाम, अनाज की वाजिब कीमत, फसल बीमा, समय पर ऋण की व्यवस्था और प्रशिक्षण। आँकड़ों के अनुसार उप्र में कुल प्रतिवेदित क्षेत्रफल 240.93 लाख हेक्टर में से सकल सिंचित क्षेत्रफल 199008 लाख हेक्टेयर है। शुद्ध सिंचित क्षेत्रफल 138.09 लाख हेक्टेयर है। साढ़े चार वर्षीय कार्यकाल में सत्ताधारी दल सभी किसान वर्ष मनाने के बावजूद शत-प्रतिशत किसानों के खेतों तक पानी नहीं पहुँचा सका है। इसके विपरीत सरकार ने अकेले लखनऊ के गोमती नदी के मात्र दस किलोमीटर के क्षेत्र में सौन्दर्यीकरण के लिए लगभग 1500 करोड रुपए झोंक दिए। दावा किया जा रहा है कि सपा के सत्ता में रहते हुए यह योजना पूरी हो जायेगी। स्थलीय कार्य की गति को देखते हुए ऐसा कतई नजर नहीं आता कि 15 सौ करोड़ की यह योजना सपा के सत्ता में रहते परवान चढ़ पायेगी।

अब आइए किसानों की दशा और दिशा पर नजर डालते हैं। वर्ष 2015 व 2016 किसान वर्ष के रूप में मनाया गया, लेकिन किसानों के लिए कोई ठोस किसान नीति बनायी गयी हो, ऐसा संज्ञान में नहीं आया। यहां यह बताना जरूरी है कि उप्र एक बड़ा प्रदेश है। इसके इलाके विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित हैं, इसलिए प्रत्येक क्षेत्र के लिए अलग-अलग कृषि नीति की आवश्यकता है। तराई व बुन्देलखन्ड, पूर्वांचल क्षेत्र की नीति एक जैसी नहीं हो सकती है। किसी विशेष क्षेत्र को पैकेज देने से भी समाधान नहीं होगा बल्कि हर क्षेत्र को अपने जरूरतों के अनुसार विकसित करना होगा, लेकिन स्थिति इससे इतर है। तमाम दावों के बावजूद बैंक और साहूकारों के कर्ज तले दबा किसान आज भी आत्महत्या करने को मजबूर है। सरकार के विकास के माडल में किसान कहीं नजर नहीं आता। छिटपुट राहत दे देना, विकास के दावों की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

कारखाने तो आपकी विकास की सूची में हैं ही नहीं। उप्र में लगभग प्रत्येक जिले में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना की गई है, लेकिन उनमें से 10 प्रतिशत उद्योग भी नहीं चल पा रहे हैं। इन क्षेत्रों की सब्सिडी के रूप में प्राप्त की गईं जमीनें गैर-औद्योगिक कार्यों के लिए ऊंचे दामों पर बेची जा रही हैं। परिणामस्वरूप भविष्य में भी यूपी में उद्योगों की सम्भावनाएँ नजर नहीं आतीं। लघु और कुटीर उद्योगों की दयनीय दशा से सभी परिचित हैं। सरकार दावे तो तमाम कर रही है, लेकिन लघु और कुटीर उद्योगों के लिए जमीनी स्तर पर कोई काम होता नजर नहीं आ रहा। सरकारी आंकड़ों की बात की जाए तो वे महज फाइलों तक ही सीमित हैं। कागजी घोड़े दौड़ रहे हैं, लेकिन हासिल कुछ नहीं हो रहा है। पिछले साढ़े चार वर्ष के दौरान प्रदेश में कोई बड़ा उद्योग नहीं लगा। फिर भी विकास के दावे हवा में धुंआधार झोंके जा रहे हैं। गजब की ठिठाई है। सूचना विभाग पूरी बेशर्मी से विज्ञापनों के जरिए झूठ को सच साबित करने में जुटा हुआ है। रोजाना करोड़ों रुपए सरकार की फर्जी उपलब्धियों को गिनाने के लिए विज्ञापन के रूप में बर्बाद किए जा रहे हैं। हाईटेक सिटी व आईटीसिटी को मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट बताया जा रहा है। इस प्रोजेक्ट से किसी को लाभ हुआ हो अथवा न हुआ हो, प्रदेश की नौकरशाही से लेकर कुछ नेता-मंत्री जरूर इस योजना से मालामाल हो चुके हैं। साफ जाहिर है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ड्रीम प्रोजेक्ट उनके कार्यकाल में कम से कम परवान चढ़ता नहीं दिख रहा। पर्दे के पीछे का सच यह है कि सीएम के ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में विकसित होती योजनाओं के आसपास तमाम नौकरशाहों की जमीनें मौजूद हैं। अपनी जमीनों का कीमत बढ़ाने के लिए वे इन योजनाओं को सीएम का ड्रीम प्रोजेक्ट बताकर सरकारी धन का पूरा इस्तेमाल कर रहे हैं। इन योजनाओं से प्रदेश की आम जनता को कितना लाभ मिलेगा, यह ढंका-छुपा तथ्य नहीं है। लखनऊ विकास प्राधिकरण के एक अधिकारी की मानें तो सीजी सिटी जैसे शहर एक विशेष वर्ग की कालोनी के रूप में तैयार किए जा रहे हैं। सपा विरोधी दल खुलकर पूछ रहे हैं, ‘माननीय मुख्यमंत्री जी! आपका गाँव सैफई व आजम खां का शहर रामपुर का शानदार विकास किस विकास के फार्मूले में फिट होता है?’

लखनऊ से आगरा-दिल्ली जाने के लिए आठ लेन के एक्सप्रेसवे को बसपा ने पीपीपी माडल पर बनाकर किसानों की पूरी जमीन जेपी ग्रुप को दे दिया। इस पर भी तमाम तरह के सवाल उठे, लेकिन सबसे ज्यादा सवाल तो आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे को लेकर उठ रहे हैं। सरकार की लाख कोशिशों के बाद कोई भी औद्योगिक घराना पैसा लगाने को तैयार नहीं हुआ। मजबूरी में सरकार को अपने खजाने से इस योजना को बनवाना पड़ा, लेकिन सरकार पर यह आरोप भी लगा कि इस योजना को पहले ही चुनिंदा लोगों को लीक कर दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि योजना शुरू होने से पहले ही इन चहेतों ने मामूली दामों पर किसानों से उनकी जमीन खरीद ली और बाद में मोटी रकम मुआवजे के रूप में सरकार से हासिल की। कुछ बड़े बिल्डरों ने तो एक्सप्रेस वे के किनारे औने-पौने दामों पर किसानों को सरकारी डर दिखाकर जमीन हथिया लिए। एक्सप्रेस वे बनने के बाद अब बड़े-बड़े बिल्डरों की कतार लगी है। आवासीय कालोनियाँ,  होटल, माल, रिजार्टस बनाने के लिए। किसानों को उजाड़ कर धन्नासेठों को माला-माल करने के अलावा अखिलेश सरकार ने कुछ और नहीं किया। यह विकास का वो माडल नहीं है, जिसमें समानुपातिक रूप से सभी को लाभ मिले, बल्कि यह किसानों को उजाड़कर धन्नासेठों को और अधिक मालामाल बना देने वाला माडल है। यहां यह बताना जरूरी है कि सपा जिन लोहियाजी के आदर्शों पर चलने की बात करती है, उन्होंने फिजूल खर्ची पर रोक लगा कर खेती व कारखाने में पैसा लगाने की जो बात कही थी, वह यूं ही नहीं कही थी। उप्र मुख्यतः किसानों व मजदूरों का प्रदेश रहा है। किसान सैकड़ों सालों से बदहाली में जी रहे थे और मजदूर कोलकाता,  मुंबई कमाने के लिए जाते रहे हैं। खेती पर ध्यान दे कर किसानों को सम्पन्न बनाया जा सकता था और प्रदेश में लाखों छोटे-बड़े कारखाने लगाकर मजदूरों को रोजगार के लिए पलायन करने से रोका जा सकता था।

दरअसल, विकास के लिए पहली जो जरूरी चीज होती है, वह है शिक्षा। इसके माध्यम से ही लोगों की विकास में भागीदारी कराई जा सकती है। समान विकास के माॅडल को लागू किया जा सकता है। लोहिया जी का कथन था कि प्राथमिक शिक्षा एक समान होनी चाहिए। सच तो यह है कि उप्र में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दशा अत्यंत निम्न स्तर की है। शायद ही कोई सुविधा सम्पन्न व्यक्ति सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजता होगा। गौरतलब है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने समान शिक्षा के लिए आदेश भी दिए हैं। हाईकोर्ट ने अधिकारियों के बच्चों को भी सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के आदेश दिए, लेकिन अखिलेश सरकार इस व्यवस्था को लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जाहिर है कि जब शिक्षा में गुणवत्ता और समानता नहीं है तो समाज और उसके विकास में समानता कैसे आ सकती है? इसके विपरीत स्थिति यह है कि प्राईवेट क्षेत्रों में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा स्तर तक के संस्थान खूब फल-फूल रहे हैं। शिक्षा के निजी क्षेत्र जमकर अभिभावकों की जेबों पर डाका डाल रहे हैं और अखिलेश सरकार अपनी जिम्मेदारी तक नहीं निभा पा रही है। इसके उलट सरकार में बैठे कुछ नेताओं की कृपा दृष्टि के चलते दर्जनों प्राईवेट विश्वविद्यालय और महाविद्यालय जमकर अभिभावकों को लूट रहे हैं। सत्ता विरोधी दलों का इस सम्बन्ध में मानना है कि अखिलेश सरकार ने शिक्षा के व्यापार में कथित शिक्षा माफियाओं को भरपूर सहयोग दिया है और यह मुलायम के शासनकाल से जारी है।

सरकारी स्कूलों की स्थिति यह है कि बेसिक शिक्षा परिषद के 6898 स्कूलों में 25 या उससे कम बच्चे पढ़ते हैं। वहीं 22959 स्कूलों में 26 से 50 बच्चे नामांकित हैं। नाम-मात्र बच्चों की उपस्थिति के बीच सरकारी स्कूलों में 5.23 लाख शिक्षक-शिक्षा मित्र की भारी भरकम फौज तैनात हैं। स्कूल में फल, मिड डे मील, पुस्तकें, यूनिफार्म सब कुछ मुफ्त मिलता है, फिर भी बच्चे नदारद हैं। और यह सरकारी शिक्षा के स्तर को बताने के लिए पर्याप्त है। सरकारी शिक्षा का पोस्टमार्टम कई बार मीडिया की सुर्खियां बन चुकी है फिर भी सरकार में चेतना जागृत नहीं हो सकी। यहां यह भी बताना जरूरी है कि हाल ही में न्यायपालिका ने शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने की नीयत से अधिकारियों और नेता-मंत्रियों से अपील की थी कि वे अपने-अपने बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढ़वाएं। न्यायपालिका की मंशा थी कि इससे सरकारी स्कूलों की शिक्षा के स्तर में सुधार आयेगा, लेकिन सरकार नहीं चेती। दावों में यूपी की सरकारी शिक्षा बेहतर बताने में सरकार को तनिक भी शर्म नहीं आती है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इंजीनियरिंग काॅलेज, मैनेजमेंट काॅलेज, मेडिकल काॅलेज, ला कालेज सहित विश्वविद्यालय की संख्या निजी क्षेत्रों में बढ़ती जा रही है, लेकिन उनका स्तर मानकों से बहुत नीचे है। सही मायने में यदि देखा जाए तो वे मात्र डिग्री देने वाले व्यवसायिक केन्द्र बन कर रह गये हैं। यह कहने में कतई गुरेज नहीं होगा कि कोचिंग सेंटर के भरोसे ही उच्चा शिक्षा का स्तर बना हुआ है और कोचिंग गरीब छात्रों के लिए पहुँच के बाहर है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जिस विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं, वह शिक्षित युवकों को रोजगार देने तक में सक्षम नहीं है? सचिवालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पचास पदों के लिए जब लाखों की संख्या में एमए, पीएचडी व एमबीए योग्यता वाले बच्चे शामिल हों तो यह मान लेना चाहिए कि युवकों को रोजगार देने में अखिलेश सरकार पूरी तरह विफल रही है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र की दशा और भी दयनीय है। सरकार का दावा है कि प्रत्येक व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है, लेकिन सच तो यह है कि 65 प्रतिशत लोग अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा महंगी दवाओं में खर्च करते हैं। सरकारी अस्पतालों में दवाएं तक नहीं हैं। हाल ही में मीडिया ने भी इस बात का खुलासा किया है। गम्भीर बीमारियों के खर्च से लाखों परिवारों की आर्थिक स्थिति जर्जर होती जा रही है। सरकारी अस्पतालों में भी चिकित्सक दवा निर्माता कम्पनियों से कमीशन की रकम लेकर खुलेआम पर्ची पर बाहर की दवा लिख रहे हैं। पूछे जाने पर तर्क दिया जाता है कि उनका मरीज जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। सरकारी अस्पतालों में जो दवा सप्लाई होती है, उसकी गुणवत्ता निम्न दर्जे की होती है लिहाजा बाहर की दवा लिखनी उनकी मजबूरी है। चिकित्सकों का यह बयान सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के मुंह पर करारा तमाचा है। साफ जाहिर है कि मोटा कमीशन लेकर कम गुणवत्ता वाली दवाएं अस्पतालों में सप्लाई की जा रही हैं। जनता सरकारी व्यवस्था को बुरी तरह से कोस रही है। इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता यदि उत्तर प्रदेश में एक अनुमान के मुताबिक 20 लाख झोला छाप डाक्टर न हों तो उत्तर-प्रदेश की गरीब जनता बिना इलाज के ही मर जाए।

सूबे की जनसंख्या के अनुपात में सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की निहायत कमी है। जो हैं भी उनका मन उनके पेशे के प्रति कम और प्राइवेट प्रैक्टिस में ज्यादा लगता है। प्रदेश में 16289 डाक्टरों के पद सृजित हैं, लेकिन इस समय केवल 11301 डाक्टर ही सूबे की जनता की देखभाल में तैनात हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार सूबे की आबादी 19.96 करोड़ थी। एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान समय में यूपी की आबादी 22 करोड़ के आस-पास होगी। 22 करोड़ की आबादी के लिए 11301 चिकित्सक नाकाफी हैं। इसके बावजूद सपा सरकार ने चिकित्सा व्यवस्था सुधारने में कोई रुचि नहीं दिखायी। गौरतलब है कि स्वास्थ्य सेवाओं से नाखुश मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अहमद हसन से स्वास्थ्य विभाग छीनकर अपनी देखरेख में रखा है, फिर भी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा रहा है। सपा सरकार ने सभी ब्लाक मुख्यालय पर विशेषज्ञ डाक्टरों की सेवाएं देने का वादा किया है, लेकिन मौके पर 20 प्रतिशत डाक्टर ही उपल्बध हैं। हालात यह हैं कि 3300 गायनोकोलाजिस्ट के बदले मात्र 400 महिला विशेषज्ञ डाक्टर उपलब्ध हैं। प्रदेश में 5172 पीएचसी की जरूरत है, जबकि सिर्फ 3692 ही मौजूद हैं। ग्रामीण इलाकों मे सीएचसी, पीएचसी, एएनएम द्वारा संचालित कुल केन्द्रों की संख्या 24728 है, जबकि आबादी के हिसाब से 37502 होनी चाहिए। इन केन्द्रों में नर्स, लैब व एक्स-रे टेक्निशियन व पैरा मेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। पूरे प्रदेश में 10226 ही कार्यरत हैं, जबकि 16226 कर्मचारी होने चाहिए। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा की लम्बी कहानी है। घिनौना से घिनौना काम वहीं होता है। नर्सिग होम, निजी अस्पताल दिन-ब-दिन तरक्की कर रहे हैं। सरकारी व्यवस्था बीमार होने के कारण सूबे के मरीज निजी चिकित्सकों के हाथों लुटने पर विवश हैं। हाल ही में सरकार ने शहरों के आवासीय इलाकों में भी नर्सिंग होम खोलने की अनुमति दे दी है। अब घर-घर में मरीजों का व्यापार होगा और गरीब लुटेगा।

सूबे में आपराधिक गतिविधियों को लेकर अब तक के कार्यकाल में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के तमाम बयान आ चुके हैं। हर बार उन्होंने यूपी की कानून व्यवस्था को दुरुस्त बताया। दूसरे राज्यों से तुलना करके स्वयं की पीठ भी ठोंकी है, जबकि आँकड़े बताते हैं कि हत्या, हत्या के प्रयास, लूट, डकैती, बलात्कार, गैंगरेप, अपहरण, घरेलू हिंसा, पुलिस उत्पीड़न, दलित उत्पीड़न, साम्प्रदायिक दंगों ने कई बार अखिलेश सरकार की किरकिरी कराई है। अपराध के क्षेत्र में रोज नये-नये कीर्तिमान स्थापित होते जा रहे हैं। यूपी की खाकी लगातार अपराधियों और सपाइयों के हमलों की शिकार हो रही है। क्राइम रिकार्ड ब्यूरो स्वयं इस बात को स्वीकारता है कि यूपी पुलिस पर चार वर्षों के दौरान 1044 बार प्राणघातक हमले हुए हैं। करीब दो दर्जन वर्दीधारी काल के गाल मे समा चुके हैं जबकि घायल होने वालों की संख्या हजार के आस-पास है। पुलिस पर हमलों की ज्यादातर वारदातें सत्ताधारी दल से सम्बन्ध रखने वाले माफियाओं द्वारा अंजाम दी गयी हैं। स्थिति यह है कि सपाराज में पुलिस का मनोबल बिलकुल जमीन पर है। स्थिति यहां तक खराब हो चुकी है कि कई मामलों में पुलिसकर्मी मुठभेड़ के दौरान अपने अधिकारियों को ही छोड़कर भाग गए। पुलिस के अतिरिक्त अन्य कर्मचारियों की कोई हैसियत ही नही रह गई है। पार्टी के छुटभैये नेता भी पुलिस से गैरकानूनी काम कराने के लिए धमकाते रहते है। गरीब व मजबूर लोगों की जमीन व मकानों पर कब्जा करना आम बात हो गई है। हैरत तब होती है जब तमाम दस्तावेजी सुबूतों के बावजूद सपा सरकार के जिम्मेदार अधिकारी आंखों पर पट्टी चढ़ा लेते हैं। ज्ञात हो उप्र पुलिस दुनिया की सबसे बड़ी पुलिस व्यवस्था है, लेकिन इस व्यवस्था के पास पर्याप्त पुलिस वाले ही नहीं है जो कानून व्यवस्था को दुरुस्त कर सकें। उप्र में पुलिस की कुल संख्या 2.97 लाख होनी चाहिए, लेकिन वास्तविक संख्या 1.45 लाख के आस-पास है। उप्र में जहाँ 10 पुलिस हेड कांस्टेबिल की जरूरत है वहाँ सिर्फ 02 से काम चलाया जा रहा है। निरीक्षक व उप निरीक्षकों की भी 50 प्रतिशत की कमी है। आईपीएस के कुल 489 पद हैं, उसमें भी 106 पद खाली हैं। भारत में प्रति 1 लाख आबादी पर 130 पुलिसकर्मी तैनात हैं, जबकि उप्र. में महज 74 पुलिसकर्मी तैनात किए जाने की व्यवस्था की गयी है। इस पर भी प्रदेश मे अधिकांश पुलिस वीआईपी ड्यूटी में लगी रहती है। परिणामस्वरूप सूबे की कानून व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित है। जाति के आधार पर पुलिसकर्मियों की नियुक्ति ने कानून व्यवस्था को और अधिक प्रभावित किया है। स्थिति यह है कि वर्तमान समय में 67 प्रतिशत थानाध्यक्ष यादव वर्ग से सम्बन्धित हैं। इस व्यवस्था से आम जनता का विश्वास सरकार पर से उठ चुका है। पुलिस रिफार्म साढ़े चार वर्षों में भी लागू नहीं हो पाया। सामान्य पुलिस कर्मियों की परेशानी जानने के लिए कोई फोरम भी नहीं बन सका। कुछ पुलिसकर्मियों ने साहस दिखाते हुए यूनियन बनाने की कोशिश की तो अनुशासन का डर दिखाकर उन्हें चुप करा दिया गया। सिपाहियों से लेकर थाना स्तर के एसआई, एसएसआई और इंस्पेक्टरों के बीच अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो गयी है।

जिस प्रदेश में सरकार कानून व्यवस्था का राज स्थापित नहीं करा पा रही, वहां विकास के सपने देखना दिवास्वप्न समान है। अब तक अखिलेश राज में जो कुछ हुआ है, वह विकास नहीं है बल्कि कथित भ्रष्टों के लिए लूट की छूट है। हर विभाग से खोज-खोज कर नई-नई योजनाएँ और कार्यक्रम बनाए जाते हैं। उन कार्यक्रमों को जनता के पैसों से पूरा करने की शुरुआत की जाती है। बाद में काम पूरा होने से पहले ही ठप पड़ जाते हैं। इस तरह की प्रक्रिया तो महज लूटखोरी की प्रक्रिया ही कही जा सकती है। अखिलेश सरकार ने वाहवाही लूटने की गरज से चार सालों से भी अधिक समय में दर्जनों कार्यक्रमों की घोषणा तो कर दी, लेकिन इस बात की कभी मानिटरिंग नहीं की गयी कि ये कार्यक्रम लोगों तक पहुँच भी रहे हैं या नही? इन कार्यक्रमों से जनता को कितना लाभ पहुंचा? शायद इसकी जानकारी भी सरकार के पास नहीं होगी। यह अलग बात है कि कार्यक्रम का संचालन करने वाले नेता व कर्मचारी योजनाओं की आड़ में माला-माल हो गये।

किसी भी सूबे के विकास के लिए चुस्त-दुरुस्त प्रशासनिक व्यवस्था जरूरी है ताकि विकास का लाभ प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाया जा सके। मुख्यमंत्री ने दावा भी किया था कि सूबे में भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन की व्यवस्था होगी, लेकिन वास्तविकता से हर कोई अवगत है। प्रशासनिक तंत्र में भ्रष्टाचार जड़ों तक समा चुका है। अभी हाल ही में मुख्यमंत्री स्वयं कहते नजर आए कि सपा सरकार को कुछ अधिकारी बदनाम करने की कोशिश में लगे हुए हैं। सरकार के ही एक मंत्री रविदास मेहरोत्रा ने प्रदेश के 50 फीसदी अधिकारियों को भ्रष्ट बताया था। हैरत की बात है कि प्रदेश का मुखिया प्रशासनिक तंत्र में भ्रष्टाचार से पूरी तरह से अवगत है फिर भी किसी के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती। मुख्यमंत्री की लाचारगी साफ बताती है कि प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार मुख्यमंत्री के अधिकारों पर भी भारी पड़ गई।

लोकतंत्र में प्रसाशन की मूलभूत आवश्यकता है कि वह योग्य, निष्पक्ष व जवाबदेह हो। उसका राजनीतिक पार्टी के प्रति या राजनेताओं के प्रति प्रतिबद्धता नहीं होनी चाहिए। उसका जाति व सम्प्रदाय के आधार पर ध्रुवीकरण नहीं होना चाहिए। अधिकारियों व कर्मचारियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी की नीतियों व कार्यक्रमों को नियमों, व्यवस्थाओं के अधीन पूरी प्रतिबद्धता के साथ लागू करें। हैरत की बात है कि खुलेआम प्रशासनिक अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक और नौकरशाह तक मुख्यमंत्री के संज्ञान में भ्रष्टाचार के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करते गए और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव किसी भी भ्रष्ट कर्मचारी को सलाखों के पीछे नहीं पहुंचा सके।

साढ़े चार वर्ष तक परिवारवाद और जातिवाद पूरी तरह से सरकार पर हावी रहा। सपा सरकार ने अन्य राज्यों में काम कर रहे सजातीय अधिकारियों को उप्र मे स्थानांतरित करा लिया। इतना ही नहीं उन्हें प्रदेश सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर भी नियुक्त कर दिया गया। चाचा शिवपाल के दामाद को स्थानान्तरित करा कर उप्र लाया गया, फिर राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी का जिलाधिकारी बना दिया गया। लगभग सभी विभागों में जातीय व साम्प्रदायिक आधार पर महत्वपूर्ण पदों पर स्थानान्तरित व नियुक्त करने का रिकार्ड कायम किया गया। जानकर हैरत होगी कि 75 बेसिक शिक्षा अधिकारियों में 62 यादव वर्ग से सम्बन्धित हैं। आईएएस, पीसीएस संवर्ग से सम्बन्धित सभी यादवों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठा दिया गया। पीसीएस की 389 सीटों की परीक्षा में यादव प्रत्याशी इतनी बड़ी तादाद में अफसर बने कि हर कोई सुन हैरान था। यह आंकड़ा अविश्वसनीय है, लेकिन यह मामला मीडिया में सुर्खियां भी बना और सोशल साइट्स पर भी जमकर प्रचारित किया गया। फिर भी सरकार ने इस अविश्वसनीय अनियमितता की जांच नहीं करायी। परिणामस्वरूप छात्र भड़क गए और अखिलेश सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए। इतना ही नहीं उप्र लोक सेवा आयोग, अधीनस्थ सेवा आयोग, माध्यमिक शिक्षा चयन बोर्ड के अध्यक्ष भी यादव हैं। इनमें से कई आयोग के अध्यक्षों को कोर्ट के आदेश के बाद हटाया गया।

उप्र सरकार हर साल यश भारती पुरस्कार देती है। यह देश का एकमात्र पुरस्कार है, जिसमें एकमुश्त मोटी रकम के साथ हर माह 50 हजार पेंशन की व्यवस्था भी सपा सरकार ने कर दी है। 2015-16 का यश भारती पुरस्कार 20 लोगों को दिया गया। जानकर हैरत होगी कि पुरस्कार पाने वालों में से 04 मुस्लिम और 16 यादव जाति के थे। शेष का कहीं नाम नहीं था। इससे तो यही लगता है कि सपा सरकार की नजर मे अन्य किसी जाति के लोगों ने प्रदेश में कोई योगदान ही नहीं दिया, जिससे वे भी पुरस्कार से नवाजे जाते।

सेवानिवृत्त न्यायाधीश सीबी पाण्डेय का दावा है कि यादवों की सरकार में सजातीय लोग मुख्यमंत्री की हाँ में हाँ मिला कर प्रदेश के विकास का ढोंग कर रहे हैं, जबकि सच्चाई यह कि यही सजातीय अधिकारी उत्तर-प्रदेश को जमकर लूट रहे हैं। स्थिति यहां तक खराब हो चुकी है कि प्रशासनिक तन्त्र के कुछ योग्य व निष्पक्ष अधिकारी अब यहां तक कहने लगे हैं कि उप्र में हालात अब इज्जत से काम करने के लायक नही रह गए हैं। ऐसे अधिकारी सपा के पूरे कार्यकाल के दौरान केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जाने की जुगाड़ में ही लगे रहे।

सपा सरकार में मंत्रियों के चरित्र पर भी उंगलियां उठती रही हैं। खनन मंत्री गायत्री प्रजापति की कहानी किसी से ढंकी-छुपी नहीं है। अखिलेश राज में प्रदेश के ज्यादातर मंत्रीगण कमाऊ अधिकारियों की तलाश में लगे रहे। ऐसे कमाऊ अधिकारी मंत्रियों की नजरों में श्रेष्ठ की श्रेणी में गिने जाते हैं। ये अधिकारी अपने विभाग के मंत्री के लिए तो काला धन इकट्ठा करते ही हैं, साथ ही खुद की भी जेबें भरने से नहीं चूकते। मंत्रियों के चहेते ऐसे ही अधिकारियों के कारण उप्र में ट्रान्सफर-पोस्टिंग की इण्डस्ट्री खूब फल-फूल रही है।

प्रशासन को प्रभावशाली बनाने के लिए यह भी आवश्यक है कि जितने पद हैं, उन पर अधिकारी काम कर रहे हों। आवश्यकतानुसार नये पद सृजित किये जाएं और बेकार पदों को समाप्त किया जाये। उप्र में आईएएस के 592 पद हैं। इनमें से 200 पद रिक्त हैं। शिक्षक, डाक्टर, न्यायधीश, इन्जीनियर, पुलिस सहित लगभग सभी क्षेत्रों में पद खाली हैं। परिणामस्वरूप निर्धारित समय में कोई काम नहीं हो पाता, जिससे आम जनता को कष्टों से दो-चार होना पड़ता है। वैसे देखा जाए तो उप्र में काम की संस्कृति कभी बनी ही नहीं। वर्तमान अखिलेश सरकार में तो स्थिति और भी खराब हो गयी। कार्यालय से लेकर सचिवालय तक कर्मचारियों के आने-जाने का समय तो निर्धारित है, लेकिन समय से आता कोई नहीं। कर्मचारियों की मर्जी सरकार की व्यवस्था पर पूरी तरह से हावी हो चुकी है। यादव जाति से सम्बन्ध रखने वाले अधिकारियों और कर्मचरियों से तो कोई बोल भी नहीं सकता।

स्वतंत्रता दिवस के अवसर (15 अगस्त 2016) पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने चार साल की उपलब्धियाँ गिनावाईं। दावा किया कि संतुलित व स्थाई विकास के माडल पर सरकार काम कर रही है। संतुलित और स्थाई विकास का जो माडल मुख्यमंत्री द्वारा बताया गया था, उसके अनुसार ऐसा विकास जिससे सभी वर्गों को इसका फायदा मिल सके। सच्चाई यह है कि अखिलेश सरकार के कार्यकाल में सिर्फ यादव जाति से सम्बन्ध रखने वालों को ही महत्व दिया जाता रहा है। ‘उम्मीदों का प्रदेश’ और ‘रोज नये कदम’ के स्लोगन का करोड़ों रुपये खर्च कर जमकर प्रचार किया जा रहा है। हकीकत यह है कि यह स्लोगन प्रदेश की जनता का हित करता नजर नहीं आ रहा। सही मायने में देखा जाए तो ‘रोज नये कदम’ जनता के पैसे की बर्बादी का स्पष्ट उदाहरण है। अखिलेश सरकार के कार्यकाल के मात्र 6 माह बचे हैं। 6 माह में तो इस प्रदेश के विकास के लिए कागज पर भी पूरी योजना नहीं बन सकती और दावे किए जा रहे हैं हर रोज एक योजना लागू करने की। चुनाव तक ‘रोज एक कदम’ का मतलब तो यही है कि योजना बनाइये, बजट रिलीज करिये और चुनाव में जाइए।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल में जितनी तेजी भव्यता दिखाने के लिए की है यदि उतनी तेजी कार्यों की दिव्यता दिखाने में की जाती तो प्रदेश की तस्वीर ही कुछ और होती। लखनऊ में लगभग 1500 करोड़ कह लागत से भव्य हाईकोर्ट का भवन बनाया गया। भवन बनाने में इतनी तेजी दिखायी गयी कि न जाने कितने तलाब उस भव्य भवन के नीचे दफन हो गए। सम्बन्धित मामला हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चला, लेकिन सरकार की नीयत न्यायपालिका पर भी भारी पड़ गयी। तमाम दस्तावेज किसी को नजर ही नहीं आए। ये वह दस्जावेज थे, जो सरकारी कार्यालयों से सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 के तहत हासिल किए गए थे। यदि दस्तावेज गलत थे तो उन सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को सजा मिलनी चाहिए, जिनकी गलती का खामियाजा कइयों को भुगतना पड़ा। लगभग 600 करोड़ रूपयों की लागत से मुख्यमंत्री का नया कार्यालय बनकर तैयार हो रहा है। शीर्ष अधिकारियों का दावा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को उन्हीं के कार्यकाल में नए भवन में बैठने का मौका मिलेगा।

आम जनता महंगाई को लेकर त्राहि-त्राहि करती रही और दूसरी को मुफ्त की मलाई उड़ाने वाले  मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायकों का वेतन व पेंशन बढ़ गया। आम जनता पूरे चार वर्षों तक अपराधियों से भयग्रस्त रही और दूसरी ओर वीआईपी सुरक्षा पर बेतहाशा खर्च होता रहा। स्थिति यह है कि आगामी विधानसभा चुनाव के लिए सपा के दिग्गजों के पास जनता के पास जाने का कोई आधार ही शेष नहीं बचा है। पूरे कार्यकाल में सिर्फ योजनाएं बनायी जाती रहीं और जनता की गाढ़ी कमाई संतरी से लेकर मंत्री तक और कर्मचारी से लेकर नौकरशाह तक लूटते रहे। एक बड़ा हिस्सा पार्टी फण्ड में भी गया ताकि चुनाव के दौरान प्रचार के वास्ते धन की कमी न रहे।



दिसम्बर 2016 तक राजधानी लखनऊ में मेट्रो चलाने का वायदा किया गया था। मुख्यमंत्री समेत मुख्य सचिव योजना को हर हाल में पूरा करने के लिए जी-जान से जुटे रहे, लेकिन सम्भावना कम थी। हुआ भी कुछ ऐसा ही। अब अगले वर्ष मार्च में शुरू करने का वायदा किया गया है। अब चर्चा इस बात की है कि मेट्रो रेल का फीता काटकर उद्घाटन कौन करेगा? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव या फिर कोई और?



डांसिंग मुख्यमंत्री हैं अखिलेश

चन्द्रभूषण पाण्डेय

राष्ट्रीय अध्यक्ष

नैतिक पार्टी एवं हमलोग मोर्चा

नैतिक पार्टी और हम लोग मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चन्द्रभूषण पाण्डेय (पूर्व न्यायाधीश) अखिलेश सरकार के लगभग साढे़ चार वर्ष के कार्यकाल को ‘लूटकाल’ की संज्ञा देते हैं। श्री पाण्डेय का मानना है कि अखिलेश यादव के कार्यकाल में नौकरशाही से लेकर विधायक, मंत्रियों और कार्यकर्ताओं ने जमकर जनता के धन को लूटा है। सरकारी जमीनों पर जमकर कब्जे किए गए तो दूसरी ओर अनपढ़, गरीब और लाचार किसानों की जमीनें भी सपा के कुछ माननीयों ने गुण्डई के बल पर हथिया ली। अफसरशाही तो चार कदम आगे निकली। योजनाएं तैयार करने से पहले इलाके की जमीनें किसानों से औने-पौने दामों में खरीदी, फिर उन इलाकों में सरकारी योजनाओं का अमली जामा पहनाया गया।



प्रश्नः अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में आप किस तरह से देखते हैं?

उत्तरः सच कहा जाए तो वे एक डांसिग मुख्यमंत्री हैं। एक उदाहरण से स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। विशाल मंच पर एक नए नृत्यकार को आप प्रदर्शन के लिए उतार दीजिए। जैसा-जैसा सिखाने वाले कहेंगे, वह वैसा ही करेगा। क्योंकि उसके पास उसका स्वयं तो अनुभव होता नहीं। स्वयं मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने स्वीकार किया है कि अभी तो वह सीख रहे हैं।

प्रश्नः उन्होंने यह भी कहा है कि सीखते हुए विकास का काम इतना अच्छा किया तो आगे और अच्छा करेंगे?

उत्तरः भारत के ही लोकतंत्र में ऐसा सम्भव है कि सीखने वाले को सीधे मुख्यमंत्री बना दिया जाता है। मुख्यमंत्री के पद के साथ करोड़ों लोगों का भाग्य जुड़ा रहता है। क्या करोड़ों लोगों के भविष्य का कोई मूल्य नही है? जहां तक सीखते हुए विकास करने का प्रश्न है तो यह अपने आप में ही विरोधाभासी है। सीखने वाला कुछ नया नहीं करता, उसे तो पुराने पर ही प्रैक्टिस करनी पड़ती है।

प्रश्नः अखिलेश सरकार ने करोड़ों रुपये सरकारी खजाने से खर्च कर बडे़-बडे़ विज्ञापन निकलवाकर विकास कार्यों की सूची पेश की है, क्या ये सूची झूठी है?

उत्तरः पहले तो विकास का अर्थ समझना होगा, फिर आंकलन करना होगा कि विकास हुआ कि नहीं और हुआ तो किसका हुआ? एक उदाहरण देना चाहूंगा। चीन में एक स्थान पर रहने के लिए 10 हजार मकान बना दिए गए। विकास हो गया लेकिन वहां रहने के लिए कोई नहीं गया। उत्तर प्रदेश मे भी कई स्थानों पर दुकानें बना दी गयीं, शौचालय बना दिए गए, भवन बना दिए गए। कागजों पर तो विकास हो गया लेकिन उपयोग कुछ नहीं। जब हम विकास की बात करते हैं तो कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार हो। देश की आजादी के 40 साल हो गए थे तो मैंने 40 साल नाम से एक पुस्तक लिखी थी और उसको सुद्धु हरिजन को यह कहकर समर्पित किया था कि 40 सालों में सुद्धु की हालत बदली नहीं वह जहां थे, वहीं हैं। फिर आजादी का क्या मतलब। ऐसा नहीं कि 40 साल में विकास नहीं हुआ था। विकास तो हुआ लेकिन फायदा मिला कुछ ही लोगों को।

प्रश्नः आपके कहने का तात्पर्य है कि अखिलेश का विकास कुछ लोगों को ही फायदा देने वाला है, वह कैसे?

उत्तरः देखिए, विकास के कई आयाम हैं। एक है इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, सड़क बिजली पानी काॅलेज, स्कूल, अस्पताल आदि की सुविधा पूरे प्रदेश तक पहुंचा देना ताकि लोग उसका उपयोग करके स्वतः आगे बढ़ंे। दूसरा आयाम है कि विभिन्न वर्ग के लोगों के लिए ऐसी योजनाएं बनायी जाएं कि उन लोगों का विकास हो, इसके लिए अलग अलग योजनाएं बनायी जाती हैं और योजनाएं भी ऐसी जो पूर्ण विकास करने में सक्षम हों। किसानों के लिए योजना ऐसी होनी चाहिए जो खेती को लाभप्रद बना सके। मजदूरों के लिए ऐसी योजना बननी चाहिए जिससे उनके जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी हो सकें। युवकों के लिए ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए जो उनको किसी न किसी काम में लगा सके और काम के लिए इतना पैसा मिले ताकि वे स्तरीय जीवन जी सकें। दलित, पिछडे़,  अल्पसंख्यक, गरीब व शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए जो उन्हें मुख्य विकास की धारा में पूरी तरह से शामिल कर सकें। चैथा आयाम है कि विकास की योजनाएं ऐसी हों जिससे लोगों को लूटने का कम से कम अवसर मिले। विकास का पांचवा आयाम है विकास के कार्यक्रम समयबद्ध हों और उनकी निरंतरता बनी रहे। इन आयामों के नजरिए से अगर आप अखिलेश की सरकार के विकास कार्यों का आंकलन करेंगे तो साफ जाहिर है कि वे जिस विकास की बात कर रहे हैं वह विकास कुछ ही हजार लेागों का फायदा देने वाला है, ज्यादातर कार्यकम ऐसे हैं जिसमें लोगों को लूटने का खूब मौका मिला है।

प्रश्नः सरकार ने अभी 25 करोड़ का पूरक बजट पेश किया है। क्या आपको नहीं लगता है कि सरकार विकास कार्यों को आगे बढ़ाने के प्रति गंभीर है?

उत्तरः वर्तमान सरकार के पास काम करने लिए मात्र 6 माह ही बचे हैं। इतने समय में कौन सा नया विकास का कार्यकम शुरू किया जा सकता है? इस बात से सभी वाकिफ हैं। पिछले बजट का पैसा तक अभी खर्च नहीं हुआ है, अतिरिक्त पैसों की मांग और कर ली गयी है। सबसे ज्यादा पैसा 2 हजार करोड़ पीडब्ल्यूडी को दिया गया है? क्या 6 महीनें में समस्त सडकें बन जायेंगी। सच तो यह कि सब पैसों का साइफन करने का तरीका है।

प्रश्नः समाजवादी के नाम से सरकार कई योजनाएं चला रही है। इससे तो यही लगता है कि सरकार के विकास में समाजवाद पर ज्यादा जोर है और  विरोध करने वाले पूंजीवादी लोग हैं?

उत्तरः समाजवाद के लिए काम करने वाली सरकार रहती तो पब्लिक टांसपोर्ट सिस्टम का कई गुना विस्तार हो गया होता। गरीबों को सस्ते घर, सस्ती बिजली मिलती और मजदूरी में वृद्धि होती। अच्छे स्कूल, अस्पताल बनते, जहां मामूली फीस पर अच्छी सुविधा मिलती। यानि ऐसी व्यवस्था बनती जिसमें कम आय वाले भी जरूरत की सभी सुविधा का उपयोग कर पाते। हो क्या रहा है? जो गरीब हैं वे सुविधाओं से वंचित हैं। सच्चाई यह है कि समाजवाद के नाम पर पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जा रहा हैै।

प्रश्नः क्या अखिलेश यादव आगामी विधानसभा चुनाव में विकास के मुद्दे पर सफल होंगे?

उत्तरः जरूर होते, यदि विकास का लाभ जन-जन तक पहुंचता। यदि आम जनता को अहसास भी होता तो भी फायदा मिल सकता था। इस सरकार में अहसास यह हुआ है कि विकास कुछ खास लोगों के लिए हुआ है। वैसे भी चुनाव केवल विकास पर नहीं होता। उस समय जो मुख्यमंत्री होता है उसका ओवरआॅल परफारमेंस भी जनता की नजर में रहता है। वर्तमान सरकार का गवर्नेंस बहुत खराब रहा है। पुलिस, अधिकारी, कर्मचारी जनता के लिए नहीं बल्कि सपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए काम करते रहे। सामाजिक स्तर पर इस सरकार में जातीयता और साम्पद्रायिकता को जमकर बढ़ावा मिला है। जातीय संगठनों को गिरोह बनने का मौका मिला है, जिससे जनता में रोष है। इसमें सफलता मुश्किल है लेकिन अन्ततः फैसला जनता को ही करना है।



17 जुलाई 2016 को करोड़ों के विज्ञापन जारी कर समाचार पत्रों में मुख्यमंत्री के विकास कार्यों की सूची प्रकाशित हुई। विकास का वायदा निभाया, जो कहा था, कर दिखाया

·         समाजवादी पेंशन योजना के अन्तर्गत 55 लाख लाभार्थी लाभान्वित।

·         108 समाजवादी एम्बुलेंस सेवा से अब तक कुल 48 लाख से अधिक रोगी लाभान्वित।

·         102 नेशनल एम्बुलेंस सेवा के अन्तर्गत 2272 एम्बुलेंस संचालित है, जिनसे अब तक 40 लाख से अधिक गर्भवती महिलाएँ व नवजात शिशु लाभान्वित।

·         सभी सरकारी चिकित्सालयों में निःशुल्क दवा, निःशुल्क एक्सरे, निःशुल्क पैथालाजी जाँच तथा निःशुल्क अल्ट्रासाउंड की सुविधा उपलब्ध।

·         देश के सबसे लम्बे आगरा-लखनऊ छह लेन एक्सप्रेस वे का निर्माण लगभग पूरा।

·         पूर्वांचल का विकास करेगा समाजवादी पूर्वांचल एक्सप्रेस वे।

·         लखनऊ में मेट्रो का काम गतिमान है। इसके अलावा मेरठ, आगरा, कानपुर, इलाहाबाद और वाराणसी में भी मेट्रो रेल चलाने का फैसला।

·         47 जिला मुख्यालयों को फोरेलेन सड़क से जोड़ा जा चुका है और शेष पर कार्य जारी है।

·         वर्ष 2016 से गाँवों में 14-16 घण्टे तथा शहरों में 22-24 घण्टे बिजली की आपूर्ति।

·         कौशल विकास मिशन कार्यक्रम के अन्तर्गत अब तक कुल 272 लाख युवकों को पंजीकृत करके 1.87 लाख युवकों को प्रशिक्षित किया गया तथा राज्य में 1388 प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की गई है। इनके माध्यम से सम्बन्धित 296 विषयों में युवकों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है ।

·         15 लाख 12वीं पास छात्र और छात्राओं को उच्च शिक्षा, विशेषकर विज्ञान और तकनीकी शिक्षा की ओर प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से निःशुल्क लैपटाप वितरण।

·         कन्या विद्याधन योजना के अन्तर्गत अब तक कुल 362505 छात्रायें लाभान्वित।

·         लोहियाग्रामीण आवास योजना के अन्तर्गत अब तक 84 हजार आवासों का निर्माण पूर्ण।

·         जनेश्वर मिश्र ग्राम योजना के अन्तर्गत अब तक कुल 4644 ग्रामों में विकास कार्य पूर्ण।

·         कामधेनु डेयरी योजना के अन्तर्गत 212 डेयरी  इकाइयाँ और मिनी कामधेनु डेयरी योजना के तहत 174 डेयरी इकाइयाँ क्रियाशील।

·         ट्रांस गंगा हाईटेक सिटी, कानपुर में योजना के अन्तर्गत प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 1 लाख रोजगार के सृजन की सम्भावना।

·         डा. राममनोहर लोहिया समग्र ग्राम विकास योजना के अन्तर्गत लगभग 10 हजार ग्रामों में 22 विभागों के 41 कार्यक्रम संचालित।

·         सरस्वती हाईटेक सिटी, इलाहाबाद में मारुति, जेपी, रिलायंस, एचसीएल समेत कई बड़ी आईटी कम्पनियों का निवेश।

·         लखनऊ में आईटी सीटी का निर्माण पूरा होने पर 25 हजार लोगों को प्रयत्यक्ष व 50 हजार लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार। प्रदेश के टीयर-2 और टीयर-3 शहरों में आईटी पार्कों की स्थापना।

·         चकगंजरिया, लखनऊ में 100 एकड़ भूमि में अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त कैंसर संस्थान का निर्माण।

·         1090 वीमेन पावर लाईन का शुभारम्भ जिससे अब तक 2.5 लाख से अधिक शिकायतों का पूरी तरह समाधान।

·         किसानों की उपज बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा नहरों व नल कूपों से निःशुल्क सिंचाई की सुविधा।

·         किसान की मृत्यु होने पर रू 7 लाख की आर्थिक सहायता योजना।

·         कृषक दुर्घटना बीमा योजना राशि रू 1 लाख  से बढ़ा कर रू 5 लाख की गयी।

·         डायल 100 की परियोजना पर कार्य प्रारम्भ। 5000 नये चार पहिया वाहन सम्मिलित। डायल 100 नम्बर को प्रदेश व्यापी बनाने हेतु लखनऊ में ‘केन्द्रित प्रणाली’ स्थापित करने की योजना।

·         एक दिन (24 घण्टे) में 5 करोड़ से अधिक पेड़ लगाने का विश्व कीर्तिमान स्थापित किया गया। जल्द ही गिनीज बुक आफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में उप्र का नाम दोबारा दर्ज होगा।

·         प्रदेश के विभिन्न शहरों में सायकिल ट्रैक का निर्माण।

·         लखनऊ में पीपीपी माडल पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण का कार्य पूरा।

·         कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम का नवीनीकरण का कार्य पूरा। उप्र का पहला आईपीएल मैच ग्रीन पार्क स्टेडियम में खेला गया।

·         बुन्देलखण्ड क्षेत्र के 2.3 लाख परिवारों को सूखा राहत सामग्री पैकेट तथा लगभग 80 लाख लोगों को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत खाद्यान्न (गेहूँ व चावल) मुफ्त दिया जा रहा है।

·         बुन्देलखण्ड क्षेत्र में समाजवादी जल संचय योजना के तहत 100 तालाबों को पुनर्जीवित करने का ऐतिहासिक कार्य।

·         रिवरफ्रन्ट डेवलपमेंट योजना के अन्तर्गत लखनऊ में गोमती, वाराणसी में वरुणा एवं वृंदावन में यमुना नदी का रख-रखाव व सौंदर्यीकरण का कार्य।



अफसर दागदार, सी.एम. लाचार!

टॉप क्लास अंडरवलर््ड...फ्लॉप क्लास अंडरट्रेनिंग...

मुख्य सचिव ने मुख्यमंत्री को हड़काया..और कहा, ‘मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का दिमाग एक छोटे बच्चे से अधिक नहीं, अर्थात हरकतें बचकाना है’। एक मीटिंग में मुख्य सचिव दीपक सिंघल ने ऐसी बात कह दी कि हॉल में सन्नाटा पसर गया। सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। अपनी पत्नी सांसद डिंपल यादव की उपस्थिति में मुख्यमंत्री अलोक रंजन से कुछ जरुरी बातचीत कर रहे थे, तभी भाषण देते हुए झल्लाहटवश सिंघल बोल उठे.. ‘सलाहकार साहेब (मुख्यमंत्री जी), मेरी बात सुनिये, बात तो होती रहेगी, इधर ध्यान दीजिये’....वस्तुत: यह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की उनकी पत्नी डिंपल यादव के सामने बेइज्जती थी, न कि अलोक रंजन की। मुख्यमंत्री खिसिया कर रह गए। एक तरफ नौकरशाही की उद्दंड बेपरवाही और दूसरी तरफ लाचारी भरी खिसियाहट। ये आलम है उ.प्र. में!

अखिलेश सरकार में कद्दावर कैबिनेट मंत्री शिवपाल यादव कहते हैं, ‘अफसर मेरी बात नहीं सुन रहे, पार्टी के कुछ जिम्मेदार लोग जमीनों पर कब्जा और गरीबों का दमन कर रहे हैं..अगर यह नहीं रुका तो मैं इस्तीफा देकर विपक्ष में बैठ जाऊंगा।’

मुख्य सचिव ने एक जिले के डीएम को हड़काया, ‘चुनाव आयोग में क्या कर रहे हो, अभी आचार संहिता नहीं लगी है, निलंबित कर दूंगा’। प्रदेश की नौकरशाही अब मुख्यमंत्री व उनके पॉवरफुल चाचा की बात नहीं सुन रही। इसका मतलब है कि नौकरशाही जान चुकी है कि आगामी चुनाव में सपा की सरकार नहीं आ रही। सितम्बर में आचार संहिता लग जायेगी।

बेबसी का आलम देखो..जब चार साल तक गलत-सलत काम के लिए नौकरशाही को प्रताड़ित करते थे, तब नहीं लगता था कि एक दिन नौकरशाही का भी आएगा और वह आप सभी पारिवारिक सदस्यों से चुन-चुन कर कर हिसाब लेगी।

मुख्य सचिव दीपक सिंघल की कुछ ऐसी तस्वीरें मुख्यमंत्री के हाथ लग गई हैं, जिनमें दीपक सिंघल विपक्षी नेताओं के साथ मौजूद हैं। विपक्ष से घिरे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पीड़ा व्यक्त की है कि विपक्ष की तरह वह अपने अधिकारियों से भी घिरे हुए हैं। मुख्यमंत्री ने कहा है कि ये अधिकारी उनकी विकास योजनाओं के लागू होने में अड़ंगा लगा रहे हैं। क्या मुख्यमंत्री में ताकत है कि आकाओं की उपस्थिति में किसी बड़े नौकरशाह को हाथ लगा पाए।

कमजोर...निसहाय...करणधार....कैसे हो उ.प्र. का उद्धार !

‘अखिलेश सरकार की गतिविधियों का पोस्टमार्टम करती यह पोस्ट सेवानिवृत आइएएस अधिकारी सूर्य प्रताप ने सोशल साइट ‘फेसबुक’ पर 24 अगस्त 2016 को पोस्ट की थी। सेवानिवृत्त आईएसएस अधिकारी की पोस्ट यह साबित करने के लिए काफी है आगामी चुनाव में सपा का पत्ता साफ हो जायेगा।’



समाजवाद का पोस्टमार्टम

लोहिया के आदर्शों पर चलने का दावा करने वाली सपा ने यूपी में कुछ इस तरह के समाजवाद का निर्माण किया जिसे जानकर किसी को भी शर्म आ सकती है। शुरूआत पार्टी से करते हैं। पार्टी में मुखिया के तौर पर मुलायम सिंह यादव विराजमान हैं। से आजमगढ संसदीय क्षेत्र से सांसद भी हैं। उनके पुत्र अखिलेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री हैं। पार्टी में दूसरे दर्जे पर भाई रामगोपाल यादव बैठे हुए हैं, वे राज्यसभा सांसद हैं। मुलायम की पुत्रवधु डिम्पल यादव कन्नौज से सांसद हैं। धर्मेन्द्र यादव बदायूं से सांसद हैं। ये मुलायम के भतीजे हैं। अक्षय यादव (भतीजा) भी सांसद हैं। पोता तेज प्रताप यादव सांसद हैं। छोटे भाई शिवपाल यादव विधायक होने के साथ ही उत्तर-प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। मुलायम का भतीजा अंशुल यादव इटावा से जिला पंचायत अध्यक्ष के पद पर है। भतीजी संध्या यादव मैनपुरी से जिला पंचायत अध्यक्ष है। मृदुला यादव (भतीजे की पत्नी) सैफई की ब्लॉक प्रमुख हैं। बहनोई अंजट सिंह यादव ब्लॉक प्रमुख हैं। भाई की पत्नी प्रेमलता यादव जिला पंचायत सदस्य हैं। दूसरे भाई की पत्नी सरला यादव जिला सहकारी बैंक इटावा की निदेशक हैं। भतीजा आदित्य यादव पीसीएफ के चेयरमैन हैं। भतीजा अनुराग यादव समाजवादी युवजन सभा का राष्ट्रीय सचिव है। भतीजा अरविंद यादव एमएलसी है। भतीजा बिल्लू यादव करहल क्षेत्र का ब्लॉक प्रमुख है। भांजे की पत्नी मिनाक्षी यादव मैनपुरी की जिला पंचायत सदस्य है। मुलायम की एक अन्य रिश्तेदार वंदना यादव हमीरपुर की जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। हाल ही में पुत्रवधु अपर्णा यादव को लखनऊ की कैंट विधानसभा सीट से टिकट दिया गया है। यूपीपीसीएस से चुने गए 86 एसडीएम में से 54 यादव हैं।

उ.प्र. सरकार की रोजगार के क्षेत्र में उपलब्धियों पर भी एक नजर डाली जाए तो हकीकत खुद ब खुद सामने आ जाती है। 72825 प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। 29333 जूनियर शिक्षकों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। टीजीटी की भर्ती पर रोक लगी। पीजीटी की भर्ती पर रोक लगायी गयी। एलटी ग्रेट शिक्षकों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। ग्राम पंचायत अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। ग्राम विकास अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। पीसीएस की भर्ती पर रोक लगी तो दूसरी ओर पीसीएस जूडिशियल की भर्ती पर भी रोक लगायी गयी। पुलिस कांस्टेबिलों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। समीक्षा अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगायी गयी तो दूसरी ओर लोवर सबआॅर्डिनेट की भर्ती पर रोक लगायी गयी। स्वास्थ्य कार्यकतार्ओं की भर्ती पर रोक लगायी गयी। पशुधन प्रसार अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगायी गयी। मत्स्य विकास अधिकारियों की भर्ती पर रोक लगी तो उर्दू शिक्षकों की भर्ती ने भी सपा सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति का खुलासा कर दिया। उच्च माध्यमिक विद्यालयों में प्राचार्यों की भर्ती पर रोक लगी तो दूसरी ओर दूसरी ओर लेखपालों की भर्ती पर रोक ने कइयों का दिल दुखाया। पीएसी कांस्टेबिल की भर्ती पर रोक लगायी गयी। डायट प्राचार्यों की भर्ती पर भी रोक लगी। बैकलॉग की भर्ती पर भी रोक लगायी गयी।

बेराजगारों को ठगने का नया तरीका भी सरकार के अनोखे तरीकों में शामिल है। ‘हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा’ की तर्ज पर नौकरी के नाम पर बेरोजगारों से करोड़ों-अरबों वसूले गए लेकिन रोजगार किसी को नहीं मिला।

अब आइए यश भारती सम्मान पर भी एक नजर डालते हैं। उत्तर-प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015-16 में जो पुरस्कार वितरित किया वह इस प्रकार है। साहित्य के क्षेत्र में मो0 सफी खान को यश भारती पुरस्कार से नवाजा गया तो दूसरी ओर लोकगायन में हीरालाल यादव, बंश गोपाल यादव, धर्मेन्द्र यादव, लाल बचन यादव, योगेन्द्र यादव, विजय पाल यादव, राजेश यादव, भगत सिंह यादव, अभिषेक यादव, हामिद उल्लाह, दर्शन सिंह यादव, हाकिम सैयद, विष्णु यादव, डॉ. सी.एस. यादव, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अवनीश यादव, पूनम यादव, खुशवीर यादव और रेशम यादव को लोकगायन के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के एवज में यश भारती सम्मान से नवाजा गया।  यक्ष प्रश्न यह है कि क्या उत्तर-प्रदेश में सिर्फ यादव और चंद मुसलमानों ने ही उत्कृष्ट कार्य किए हैं जो सम्मान पाये के हकदार माने गए।

अखिलेश सरकार की सच्चाई यह है कि जातिगत और धर्म के आधार पर शासन किया जाता रहा। 75 जिलाध्यक्षों में 63 यादव जाति के हैं। 75 बीएसए में 62 यादव। जो यादव जाति के बीडीओ हैं उनको 3 से 4 ब्लॉक तक दिए गए हैं ताकि जमकर लूटो-खाओ। 60 प्रतिशत से अधिक थानों की कमान यादवों के हाथों में है। भर्ती परीक्षाओं में 60 प्रतिशत से अधिक यादवों की संख्या है। उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग का अध्यक्ष यादव समुदाय से सम्बन्धित रामवीर यादव है। अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का अध्यक्ष राज किशोर यादव हैं। माध्यमिक शिक्षा चयन बोर्ड के अध्यक्ष रामपाल यादव हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को अपने पूरे कार्यकाल में यादवों के अलावा कोई और प्रतिभा नजर नहीं आयी। साफ जाहिर है कि अखिलेश यादव की सरकार पूरे कार्यकाल में जाति विशेष के लोगों का ही उत्थान करती रही।



भ्रष्टों को संरक्षण

अखिलेश सरकार ने अपने साढे़ चार वर्ष के कार्यकाल में यदि किसी क्षेत्र में उपलब्धि हासिल की है तो वह रजिस्टर्ड भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देकर। कथित भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण के मामले में अखिलेश सरकार इस कदर अंधी हो चुकी थी कि कई मामलों में न्यायपालिका तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। ऐसे ही अधिकारियों में से एक हैं एनआरएचएम (अब एनएचएम) घोटाले के आरोपित आइएएस अधिकारी प्रदीप शुक्ला। जेल से जमानत पर छूटने के बाद सरकार ने इनका निलंबन खत्म कर उन्हें बतौर सदस्य राजस्व परिषद में नियुक्त कर दिया था। कोर्ट ने सख्ती दिखायी तो अखिलेश सरकार को बैकफुट पर जाना पड़ा। गौरतलब है कि जमानत पर जेल से रिहा होने के बाद महत्वपूर्ण पद पर तैनाती पाने वाले प्रदीप शुक्ला पहले अधिकारी थे। इससे पूर्व ऐसा वाक्या शायद ही कभी प्रकाश में आया हो। इस मामले में एक पीसीएस अधिकारी और पचास से अधिक डॉक्टर वर्तमान समय में जमानत पर हैं, लेकिन सभी अभी निलंबित हैं। प्रदीप शुक्ला की बहाली से आरोपितों की बहाली के आसार बन गए थे लेकिन ऐन वक्त पर न्यायपालिका ने सरकार को अपनी ताकत का अहसास कराया।

दूसरे अधिकारी हैं राजीव कुमार। नोएडा प्लॉट आवंटन घोटाले में शामिल होने के बावजूद अखिलेश सराकर इनका संरक्षण करती रही। गौरतलब है कि पंजाब पुलिस के मुखिया रहे जेएफ रिबेरो व अन्य रिटायर अफसरों की ओर से एक जनहित याचिका में कहा गया था कि सीबीआई कोर्ट ने नोएडा प्लाट आवंटन घोटाले में वरिष्ठ आईएएस अफसर राजीव कुमार को भ्रष्टाचार का दोषी ठहराते हुए तीन साल की कैद व 50 हजार रुपये जुमार्ने की सजा सुनाई थी।

सत्ताधारी दल के मुखिया से करीब का सम्बन्ध रखने वाले इंजीनियर यादव सिंह को कौन नहीं जानता। 900 करोड़ की संपत्ति के मालिक यादव सिंह पर इनकम टैक्स विभाग ने छापा मारा था। छापेमारी में 2 किलो सोना, 100 करोड़ के हीरे, 10 करोड़ कैश के अलावा कई दस्तावेज मिले थे। 12 लाख रुपये सालाना की सैलरी पाने वाले यादव सिंह और उनका परिवार 323 करोड़ की चल अचल संपत्ति का मालिक बन बैठा। यादव सिंह को अखिलेश सरकार में राजनीतिक सरपरस्ती खूब मिली। आयकर विभाग ने यादव सिंह के गाजियाबाद और दिल्ली के 20 ठिकानों पर छापे मारे थे।

आईपीएस अधिकारी यशस्वी यादव को राजधानी लखनऊ का एसएसपी बनाए जाने पर भी जमकर विवाद हुआ था। अखिलेश सरकार के कार्यकाल में सभी नियम-कायदों को ताक पर रखकर महाराष्ट्र कैडर के आईपीएस अधिकारी यशस्वी यादव को लखनऊ का एसएसपी बनाया गया था। इन्हें सूबे के मुखिया अखिलेश यादव का बेहद खास माना जाता हैं। उनकी सरकार बनते ही यूपी में प्रतिनियुक्ति पर आए थे। ये साल 2000 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं।

यशस्वी यादव का विवादों से गहरा नाता रहा है। सपा विधायक इरफान सोलंकी के साथ कानपुर हैलट अस्पताल के डॉक्टरों से हुए विवाद के बाद इन पर सपा समर्थकों की तरह काम करने के आरोप लगे थे। इसके बाद वहां के डॉक्टरों ने एसएसपी यशस्वी यादव के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर सूबे में जगह-जगह हड़ताल की थी। इस पूरे प्रकरण में पूरे राज्य में इलाज के अभाव में 50 से अधिक लोगों की जानें चली गई थीं। इस मामले में सरकार द्वारा कार्रवाई नहीं किए जाने और इलाज के आभाव में दम तोड़ते मरीजों को देखते हुए आखिरकार हाईकोर्ट ने पूरे मामले को स्वत: संज्ञान लिया और राज्य सरकार को फटकारते हुए न्यायिक जांच के आदेश दिए।

प्रमुख सचिव वन की कुर्सी पर तैनात रहे आईएएस अधिकारी संजीव सरन भी नोएडा तैनाती के दौरान विवादों में रहे। इन पर वर्ष 2006 में किसानों की जमीन औने पौने दामों पर बिल्डरों को बेचने के आरोप लगे। इन्हें हाईकोर्ट के निर्देश पर नोएडा से हटाया गया था। इसके बावजूद अखिलेश सरकार के कार्यकाल में ये लगातार महत्वपूर्ण पोस्ट पर रहे।

उपरोक्त हाई-प्रोफाइल मामले तो महज बानगी भर हैं जबकि अखिलेश सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में सिर्फ भ्रष्ट अधिकारियों, विधायकों और मंत्रियों को संरक्षण देने के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए।

लेखक अनूप गुप्ता दृष्टांत मैग्जीन के संपादक हैं.

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