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23.11.16

क्यों जरुरी है लाला जी को कानपुर की श्रद्धांजलि

राकेश मिश्र 
भारतीय लोकतंत्र आज एक संक्रमणकाल से गुजर रहा है| यह पता नहीं कि देश की राजनीति का ऊँट किस करवट बैठेगा| इस दुविधा के दौर में अतीत अतीत को समाधान खोजने की नजर से देखने की जरुरत है| यह संक्रमणकाल लाल बाल पाल समेत तमाम महापुरुषों के भारतीय स्वाधीनता संग्राम में योगदान को याद करने का समय है| क्या करें और क्या न करें इसकी फिक्र नहीं, लेकिन दिखावे का दौर है| ऐसे में लाल-बाल-पाल सरीखे आधुनिक भारत के उषाकाल के ऋषियों के जीवन और कामों को याद न किया जाना देश के लिए बेईमानी होगी| लाला लाजपत राय की 88वीं पुण्यतिथि पर हम कानपुर के लोग लालाजी को कानपुर की श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ साथ आज के दौर में उनके कार्यों की प्रासंगिकता का भी मूल्यांकन कर रहे हैं|  


कानपुर विश्वविद्यालय के समाजिक कार्य संकाय के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर संदीप सिंह देश के राजनीतिक हालातों से सहमत नहीं| वे बताते हैं कि लालाजी के राष्ट्रवाद में शांति मानवता और सेक्युलर तत्व शामिल थे| लेकिन आज राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट बांटने वाले तमाम लोग आ गए हैं जिनके लिए शांति, मानवता और सेक्युलर तत्वों की कोई अहमियत नहीं| पहले आदमी को संस्कृति निर्धारित करती थी आज आदमी को अर्थ निर्धारित करता है| अगर मजबूती लानी है तो हमे अपनी संस्कृति और मूल्यों को बचाना होगा| साथ ही साथ भावी भारत के लिए वैसी ही प्रेरणा युवाओं को देनी होगी| सबक लेना होगा लाला लाजपत राय से जिन्होंने तत्कालीन युवा पीढ़ी को प्रेरणा देकर वीर और साहसी युवक तैयार किये साथ ही भावी पीढ़ी के लिए मजबूत आधारशिला रखी|

पद्म श्री गिरिराज किशोर भी आज के राजनीतिक परिदृश्य में आहत दिखाई देते हैं, गिरिराज जी कहते हैं कि आज हम विदेशी कंपनियों को भारत लाना चाहते हैं| उनके ज्ञान, कौशल से उन्हीं की फक्ट्रियों को लगाकर मानते हैं कि विकास हो गया| यह पत्तियां सींच के पेड़ बचाने जैसा बहाना है| एक जगह जिक्र मिलता है कि भारत और इंग्लैंड की क्या तुलना है| लालाजी ने लिखा है कि भारत और इंग्लैंड की कोई तुलना नहीं| इंग्लैंड फक्ट्रियों का देश है और भारत का आधार ही खेती है| लेकिन आज देश जिस प्रकार की अनुगमन की परंपरा बना रहा है| हम जिनका अनुगमन कर रहे हैं उनसे हमारा ठीक से परिचय नहीं| ऐसा होने से बड़ी भयानक स्थिति पैदा हो रही है| आज के परिवेश में देश और समाज के उपचार के लिए लालाजी की प्रासंगिकता है| हमें अतीत में जाकर देश के लिए ईमानदारी सीखनी होगी|

जाने माने समाजशास्त्री डॉ. वी. एन. सिंह मानते हैं कि “देश या समाज नायक खोजता है, अलग अलग कालखंडों में नायक उभरते हैं या अवतार लेते हैं| उनकी भूमिका अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग होती है|” कृष्ण को पूर्ण अवतार बताया जाता है| वरिष्ठ पत्रकार आदित्य बताते हैं कि लोक सेवक मंडल के संस्थापक लालाजी ने कृष्ण का जीवन चरित्र युवाओं की प्रेरणा के लिए हमारे बीच रखा| आधुनिक भारत के उषाकाल के ऋषि लाला लाजपत राय का करिश्माई में व्यक्तित्व भी एक पूर्ण नेतृत्व की बानगी मिलती है| देश बनाने के लिए जो विचार लालाजी ने रखा उसमे बैंक भी था, अखबार भी था, इंश्योरेंस कंपनी भी और समाज के लिए युवाओं के बीच से नेतृत्व बनाने की प्रयोगशाला भी| लालाजी की सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाइटी यानि लोकसेवक मंडल देश के लिए सक्षम और समर्पित नेतृत्व बनाने की कुछ ऐसी ही प्रयोगशाला थी| कानपुर के हरिहरनाथ शास्त्री भवन के रूप में यह संस्थान आज भी ऐसा संस्थान है जिसके साथ जीवन भर के लिए जुड़ा जा सके|

“संधान” के विचारक शिव कुमार दीक्षित की आलोचना में ये तथ्य भी किसी से नहीं छिपा नहीं कि  प्रथम विश्व युद्ध के समय के इंग्लैंड के निर्माण का चालीस प्रतिशत से ज्यादा का हिस्सा भारत के योगदान बना था| ब्रिटिश काल भारत के भारत में पब्लिक स्कूलों के लिए बात हुई| स्कूलों के लिए इंग्लैंड की संसद में भी बहस हुई| उस बहस मे जो शब्द इस्तेमाल किया गया वह गौर करने लायक है, अंग्रेजी संसद में कहा गया कि पब्लिक स्कूलों में स्नॉब (snob) निकलते हैं| आज भी यह बात कितनी प्रासंगिक है| लेकिन इसके जवाब में हमारे बलिदानी महापुरुषों ने उसी समय तय किया कि राष्ट्र के लिए त्यागरूप शिक्षक से से आदर्श बनाना होगा| यह बात आज भी विचारणीय है|

पण्डित शिव कुमार दीक्षित लालाजी के जीवन और कार्यों के विशाल संग्रह ग्रंथों के अध्ययन से तथ्य निकाल इन बातों की गवाही देते हैं | दीक्षित जी कहते हैं कि किसी मकान को बनाने वाले के पास उसका पूरा नक्शा होता है| बुनियाद से लेकर किस जगह क्या बनाना है ये उसे पता होता है| अगर संस्थापक असमय मृत्यु हो जाए तो अनुयायी उसकी मनमाफिक मकान नहीं बना सकते| बीस से तीस के बीच का दशक भारत की निर्मित्ति का समय रहा| इस समय हिंदुस्तान के आधारभूत निर्माण में नागरिकों के चरित्र और जीवन का सर्वाधिक विवेचन देखने को मिलता है| फर्ग्युसन कालेज में लालाजी, गोखले, तिलक और अठावले समेत तमाम विद्वानों के बीच लम्बी चर्चाओं का दौर रहा| तिलक कहते हैं कि स्थूल निर्माण (जिसे आज विकास कहा जाता है) वह जितना होना था हो चुका है| रेल-जेल भवन, पुल, सड़क फैक्ट्री जो बनी है वह देश के ही संसाधनों से तो बनी है| आगे भी इमारतें भी जरुरत के हिसाब से बनानी होंगी| लेकिन अंग्रेज के जाने के बाद हमें राष्ट्र के स्वाभिमान, चेतना और जाग्रति की निर्मित्ति प्रमुखता से करनी होगी| इसके लिए संस्थान और स्कूल खोलने होंगे| कोई व्यक्ति देश को क्या दे सकता है इस पर भी राय शुमारी हुई| कॉलेज में पढ़ाने वाले शिक्षक के लिए तय हुआ कि अपने और परिवार के भरण-पोषण के लिए जो वेतन मिले उसी से काम चलाना होगा| अध्ययन, लेखन और किसी रचना से होने वाला लाभ संस्थान का होगा| यहाँ मतभेद हुआ जिससे आगे चलकर तिलक स्कूल ऑफ़ पॉलिटिक्स और सर्वेन्ट्स ऑफ़ द पीपल सोसाइटी जैसे संस्थान अस्तित्व में आये|

प्रख्यात दर्शनिक और इतिहास मर्मज्ञ राम किशोर बाजपेई बताते हैं कि इन महापुरुषों ने देश के लिए जो काम किया उसका एक दस्तावेज भी छोड़ा है| ये दस्तावेज उन्ही महापुरुषों के सपनों का भारत रचने के लिए बने संगठन हैं जो हमारे वर्तमान की बुनियाद में मौजूद हैं| कानपुर में लोक सेवक मण्डल लालाजी द्वारा 1926 में शुरू किया गया संस्थान है| यह संस्थान उन्होंने मजदूर आन्दोलन के लिए शुरू किया साथ ही साथ इसकी बागडोर मजदूर आन्दोलन तत्कालीन के अगुआ रहे मजदूर नेता हरिहरनाथ शास्त्री को सौंपी|

1857 के महायुद्ध से ही कानपुर तमाम क्रांतिकारियों का रंग मंच रहा है| लालाजी ने कानपुर के तमाम आंदोलनों के बीच आर्य समाज के साथ मिलकर डीएवी कालेज की स्थापना की, इस कालेज के प्रबंधन का दायित्व उन्होंने आर्य समाज मेस्टन रोड को सौंपा| कालांतर में शैक्षणिक संस्थानों के प्रबंधन का जिम्मा उठाने के लिए आर्य समाज मेस्टन रोड ने दयानंद एंग्लो वैदिक सोसाइटी बनाई जो आज भी डीएवी का प्रशासन देखती है| कानपुर में ही उन उन दूर दृष्टाओं ने एक और अभिनव प्रयोग किया| तत्कालीन परिस्थितियों में एलोपैथिक चिकित्सा के साथ साथ आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सालय की आधारशिला भी रखी| यह व्यवस्था की गई तमाम चिकित्सा शास्त्रियों और पादप औषधि विज्ञान के जानकारों को लेकर| तत्कालीन मजदूर वर्ग के हित में उद्देश्य रहा कि न्यूनतम खर्चे पर स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध हो सके| तरीका हुआ औषधीय पौधों को उगा कर उनके औषधीय गुणों के ज्ञान से तमाम तरह की दवाईयाँ बनाना और रोगियों को उपलब्ध करवाना| इस व्यवस्था की परवरिश के लिए संसाधन जुटाने से लेकर विद्वत परिषद् बनाना हो या समय समय पर अपनी मौजूदगी से संचालकों को प्रेरणा देना यह उन महापुरुषों की खासियत रही | अपनी स्थापना के एक सौ पांच वर्षों के बाद भी यह व्यवस्था आज भी उन महापुरुषों के दस्तावेज के रूप में मौजूद ये संस्थान राष्ट्र निर्माण की मजबूत आधारशिला के रूप में हमारे बीच मौजूद हैं| इन संस्थानों में उनके स्वदेशी और स्वराज का सपना छिपा है|

वैश्वीकरण के चौराहे पर खड़े भारत के लिए यह भी कम महवपूर्ण नहीं कि अतीत से सीखकर हम क्या रास्ता अख्तियार करते हैं| लेकिन अतीत की राजर्षि परंपरा इतनी आसान नहीं| शुरुआत तो फिर भी कहीं न कहीं से करनी ही होगी| लाला जी के जैसे आधुनिक उषाकाल के ऋषियों के बलिदानों से तमाम सपने अधूरे रह गये| निर्माण के लिए वे सपने और संस्थान राष्ट्र क्या हमारे युवाओं के लिए सही प्रस्थान बिंदु नहीं? लेकिन इसके लिए बड़ी नजर और जमीनी असर हासिल करना भी आसान न होगा|

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