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24.12.16

पहाड़, जंगल और मनुष्य : तार-तार हो गए सदियों पुराने रिश्ते...

"पहाड़" शब्द के उच्चारण मात्र से मस्तिष्क में अनायास बर्फ की सफेद चादर से ढके हिमालय, श्रृंखलाबद्ध पहाड़ियों में गहनों की भांति सजे हरे दरख्त ,झरने और कल -कल करती नदियों का चित्र उभर आता है। पेड़ ,पानी और पहाड़ का वजूद एक-दूसरे से गहरे तौर पर जुड़ा है। पहाड़ हैं तो पेड़ हैं और पेड़ हैं तो पानी। ये सब मिलकर पहाड़ को "पहाड़" बनते हैं। इनके बगैर पहाड़, पानी और पर्यावरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इनमें से एक भी पक्ष के कमजोर होने से पूरा पहाड़ बिखर जाता है।


पहाड़ समस्त प्राणी जगत के मूलाधार हैं। पारिस्थितिकी और जैव विविधता के आश्रय स्थल हैं। बशर्ते कि पहाड़ विविध प्रजाति के जंगलों से आच्छादित हों। वन विहीन पहाड़ के कोई मायने नहीं होते। पर अनियोजित और लापरवाह प्रबंधन तथा निहित स्वार्थों के चलते आज पहाड़ की पहचान और वजूद दोनों संकट में हैं। उत्तराखंड के जंगलों में पिछले दिनों लगी भीषण आग से  पहाड़ों के ऊपर मंडरा रहे खतरों की आहट को महसूस किया जा सकता है। इस बहाने मनुष्य और जंगलों के बीच आदिम युग से चले आ रहे अटूट रिश्तों के बिखरने की वजहों की पड़ताल भी जरूरी है।

दो शताब्दी पहले तक पहाड़ में जंगलों और इसके आसपास रहने वाले मनुष्यों के बीच सहअस्तित्व का रिश्ता था।यहाँ की ग्रामीण जनता के रोजमर्रा का जीवन का पहिया जंगलों की ऊर्जा से ही घूमता था। कुमाऊँ में देशज राजवंश के शासनकाल में यहाँ के निवासी संपूर्ण वन संपदा का नियंत्रित दोहन नैसर्गिक अधिकार के रूप में करते थे। उनका समूचा जीवन चक्र जंगलों से जुड़ा था, सो जंगलों की हिफाजत करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी हुआ करती थी। 1815 में ईस्ट इण्डिया कंपनी का नियंत्रण कायम हो जाने के बाद यहाँ के ग्रामीणों और जंगलों के बीच के सदियों पुराने रिश्तों में दरारें आनी शुरू हुई। धीरे-धीरे जंगलों और स्थानीय निवासियों के आदिकाल से चले आ रहे रिश्ते तार-तार हो गए।

ईस्ट इण्डिया कंपनी तिजारत के लिए भारत में आई थी। उसकी पहली प्राथमिकता अपने अधीनस्थ भू - भाग से किसी भी तरह अधिकतम मुनाफा कमाना था। अंग्रेजों के लिए भारत के समस्त प्राकृतिक संसाधन धन बटोरने के साधन मात्र थे। अंग्रेजों के लिए कुमाऊँ में धन संग्रह करने के मुख्य स्रोत यहाँ के जंगल और जमीन थे। ईस्ट इण्डिया कंपनी ने कुमाऊँ में कदम रखते ही भूमि बंदोबस्त का काम शुरू कर दिया। इसके साथ ही यहाँ के जंगलों में स्थानीय निवासियों को सदियों से हासिल प्राकृतिक अधिकारों को कम करने का सिलसिला शुरू हो गया। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कुमाऊँ में ग्यारह भूमि बंदोबस्त हुए। कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जी. डब्ल्यू ट्रेल ने 1820 -22 में किए चौथे भूमि बंदोबस्त में ग्रामीणों के जंगलों में नैसर्गिक अधिकारों को स्वीकारा था।

1850 में नैनीताल से वनों के सीमांकन का काम शुरू हुआ। 1856 में यहाँ वन विभाग अस्तित्व में आ गया। कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर सर हेनरी रैमजे पहले वन संरक्षक बनाए गए।वन विभाग की स्थापना के लिए जर्मन विशेषज्ञों की मदद ली गई। 1865 में यहाँ के जंगलों के प्रबंधन के लिए वन अधिनियम बना।1870 में रानीखेत और 1875 में अल्मोड़ा में वनों का सीमांकन हुआ।  1815 से 1878 के दौरान स्थानीय ग्रामीणों के लिए गाँवों के नजदीक एक निश्चित वन क्षेत्र में मवेशियों के चुगान ,जलावन की लकड़ी आदि वन उपज के इस्तेमाल की छूट दी गई थी। इस दौरान संरक्षण का कोई नियम नहीं था। तब  ग्रामीणों की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए गाँवों की सीमा के भीतर वन लगाए जाते थे, जिन्हें "गाँव संजायत" कहा जाता था। ग्रामीण इन जंगलों के वनोत्पाद को अपने उपयोग में लेने  के लिए स्वतंत्र थे। संरक्षित वन क्षेत्र सरकारी ठेकेदारों के हवाले थे,जो वन संपदा को दोनों हाथों से लूट रहे थे।  1878 में नया वन अधिनियम बनाया गया। इस वन अधिनियम के जरिए जंगलों से  ग्रामीणों के अधिकांश नैसर्गिक अधिकार छीन लिए गए। अधिकतम वन क्षेत्र को आरक्षित वन क्षेत्र में शामिल करने की कार्रवाई शुरू  हो गई।

वन अधिनियम-1878 की धारा -28 के तहत 17 अक्टूबर ,1893 को जारी एक सरकारी अधिसूचना के जरिए आबाद गाँवों  और जंगलों के बीच स्थित बेनाप जमीन को संरक्षित वन (सिविल वन) घोषित कर दिया गया। संरक्षित क्षेत्रों को भी बंद क्षेत्र और खुला  क्षेत्र दो हिस्सों में बाँट दिया गया। बंद  वन क्षेत्र के वन उत्पादों का इस्तेमाल के लिए जिला कलेक्टर की इजाजत लेना जरूरी बना  दिया गया। जबकि खुले वन क्षेत्र में ग्रामीणों के सभी हक-हकूक छीन लिए गए। इस अधिसूचना के जरिए देवदार, साइप्रस, साल, शीशम, तुन, खैर और चीड़ आदि आठ प्रजातियों को संरक्षित घोषित कर दिया गया।
1911 में कुमाऊँ में पहला वन बंदोबस्त हुआ। इस बंदोबस्त में कुमाऊँ के जंगलों को अव्वल (आरक्षित),दोयम (रक्षित) और सोयम (सार्वजनिक उपयोग)तीन श्रेणियों में बाँट दिया  गया। इसी साल रिजर्व वन बनाने का भी फैसला लिया गया। जंगलों की सीमाएं तय हुई। वन सीमा पिलर बने। जंगलों के नक्शे बनाए गए। 1911 से 1917 के दरम्यान कुमाऊँ के तीन जिलों में तीन हजार वर्ग मील रिजर्व वन बना दिए गए थे। पशुओं के चुगान और जंगलों से ग्रामीणों के ईंधन लेने की सीमाएं तय कर  दी गई। ग्रामीणों को  वनों से संबंधित अपनी आवश्यकताएँ वनाधिकारी को बतानी होती थी। लंबी प्रक्रिया के बाद उन्हें वन उत्पाद ले जाने की इजाजत मिलती थी। वन सीमा के एक मील दूरी  तक घास के लिए आग लगाने  पर सख्त पाबंदी थी। हालाँकि वनों का सर्वे ,पर्यावरण के नजरिए से उपयोगी वृक्षों का संरक्षण एवं विकास, लोगों एवं वन्य जीवों के वनाधारित भोजन तथा वन्य जीवों व पानी  के प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण ,वनों को अति दोहन ,चोरी और आगजनी से बचाना ब्रिटिश  सरकार की वन नीति का हिस्सा थे। पर यह वन नीति एकतरफा थी। इसके जरिए यहाँ के वनों पर स्थानीय निवासियों के नैसर्गिक अधिकार छीन लिए गए थे। वहीं  जंगलों में उच्च एवं कुलीन वर्ग के शिकार करने में कोई पाबंदी नहीं थी। स्थानीय जनता अंग्रेजों की इस दोहरी वन नीति से बेहद खफा थी।

अंग्रेजों की इस वन नीति से पहाड़ के लोग बेहद गुस्से में थे। लोगों की नाराजगी के मद्देनजर 1907 में स्थानीय निवासियों के जंगलों पर अधिकार को लेकर मेजर जनरल वीलर की अध्यक्षता में एक जनसभा हुई। पर कोई नतीजा नहीं निकला। यहीं से पहाड़ के लोगों का जंगलों के प्रति नजरिया बदला और बर्ताव भी। स्थानीय लोगों ने  जंगलों में अपने बुनियादी हक-हकूक को बहाल करने की माँग को लेकर आंदोलन का रास्ता अपना लिया।जिन जंगलों से अब तक पहाड़ के लोगों का जीवन चक्र जुड़ा था, उन्हीं लोगों ने 1916 में नैनीताल के आसपास 24300 हेक्टेयर जंगल में आग लगा दी थी।  विरोध स्वरूप जंगलों में आग लगाने की मानव इतिहास में संभवतः कुमाऊँ अंचल की यह पहली घटना थी। 1916 से 1921 के दौरान कुमाऊँ के जंगलों में 317 आग की घटनाएं हुईं, जिसमें 828.80 किलोमीटर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। पच्चीस साल की मेहनत से उगाए गए करीब एक लाख पेड़ वनाग्नि में जल कर राख हो गए थे।

वनों में पुश्तैनी हक-हकूक के लिए चले इसी जनांदोलन ने ही कुमाऊँ में स्वाधीनता संग्राम की नींव रखी। 1916 में यहाँ कुमाऊँ परिषद बनी। पंडित गोविन्द बल्लभ पंत  कुमाऊँ परिषद के पहले महासचिव बने। 1921 में  कुमाऊँ परिषद की अल्मोड़ा में हुई वार्षिक बैठक में पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को  कुमाऊँ परिषद का अध्यक्ष चुना  गया। 1921 में गोविन्द बल्लभ पंत के नेतृत्व में  कुमाऊँ परिषद ने कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों के जंगलों में हक को राजनैतिक मुद्दा बनाया । आंदोलन के मद्देनजर 1921 में अंग्रेज सरकार को तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर पी. वीघम की अध्यक्षता में  "फॉरेस्ट ग्रिवेन्स कमेटी" बनानी पड़ी। "फॉरेस्ट ग्रिवेन्स कमेटी" ने यहाँ के वनों को दो हिस्सों में बाँट दिया। रिपोर्ट में गाँव वालों के उपयोग के लिए छोड़े गए जंगलों को वन पंचायतों को सौपने की सिफारिश की और वर्ग - एक के वनों का नियंत्रण राजस्व विभाग को सौंपने को कहा गया। अनारक्षित वनों का इंचार्ज जिला मजिस्ट्रेट को बना  दिया गया। 1931 में अनारक्षित जंगल वन पंचायतों को सौंप दिए गए।इसी साल पहाड़ में वन पंचायतों के  गठन का सिलसिला शुरू हुआ।

1930 के दौरान जब महात्मा गांधी के अगुआई में देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था ,उधर पहाड़ के लोग  जंगलों में प्राकृतिक अधिकार हासिल करने के लिए अंग्रेजों से लड़ रहे थे। कालांतर में वनों में नैसर्गिक अधिकार प्राप्त करने की यह लड़ाई  राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा बनी।  उस दौरान शिवालिक के जंगलों में जबरदस्त आगजनी हुई। 1938 में जंगलों में अधिकार और रियायतों की माँग ने फिर जोर पकड़ा। 16 नवंबर ,1938 को "फॉरेस्ट ग्रिवेन्स कमेटी" ने दुबारा रिपोर्ट दी। रिपोर्ट में मवेशियों के  चुगान में रियायत देने की सिफारिश की गई थी।  22 मार्च ,1941 को सरकार ने स्थानीय निवासियों को जानवरों को चराने की छूट दे दी। कुछ संरक्षित पेड़ों को छोड़कर बाकि पेड़ों को काटने की इजाजत भी दे दी गई।

अंग्रेज पहाड़ के जंगलों को "हरा सोना" मानते थे। अंग्रेजी शासनकाल में पहाड़ के भीतर यातायात और संचार का विकास सामरिक जरूरतों  और यहाँ की अकूत वन संपदा के दोहन के  नजरिए से ही हुआ। पर यह भी सच्चाई है कि अंग्रेजों ने एकतरफा दोहन की नीति नहीं अपनाई। अंग्रेज वनों के दोहन के साथ संरक्षण पर भी उतना ही ध्यान देते थे।अंग्रेजी शासनकाल में वनों की निगरानी और हिफाजत के लिए सुविचारित एवं पुख्ता व्यवस्था थी। ब्रिटिश शासनकाल में  कुमाऊँ के घने जंगलों में छह फ़ीट चौड़ी कच्ची सड़कों का जाल बिछाया गया था। ये वन मार्ग फायर लाइन का काम करते थे। गर्मी शुरू होने से पहले इन मार्गों की अनिवार्य रूप से सफाई करा ली जाती थी। मार्च के महीने तक संपूर्ण जंगल में फायर लाइन काट ली जाती थी। नियमित फूकान होता था। गर्मियों के मौसम में चार महीनों के लिए फायर वाचरों की नियुक्ति की जाती थी। जंगलों में जगह - जगह वन विश्राम गृह बनाए गए थे। तब वनाधिकारी वनों की निगरानी के वास्ते इन बंगलों में नियमित कैम्प किया करते थे।वन कर्मचारियों के लिए वनों के नजदीक ही वन चौकियां बनाई गई थी। वन विभाग का पूरा अमला आज की तरह शहरों में नहीं ,बल्कि हमेशा जंगलों या उनके आसपास ही रहा करता था।

आजादी के बाद 1949 में पहाड़ के सभी जंगल उत्तर प्रदेश सरकार के अधीन आ गए। 1952 में पहली वन प्रबंध नीति  बनी। आजाद भारत में भी अंग्रेजों की वन नीति को ही आगे बढ़ाया।सरकार हर साल पहाड़ के जंगलों की सार्वजनिक नीलामी करती थी।उत्तर प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा पहाड़ के  वनों की नीलामी से आता था। जंगल सरकार और ठेकेदारों की जागीर बन कर रह गए थे। इसी बीच  26 मार्च ,1974 को जोशीमठ के रैणी गाँव की गौरा देवी और दूसरी महिलाओं ने अपनी जान की बाजी लगाकर पेड़ों को कटने से बचाने  का बीड़ा उठाया। पेड़ों की रक्षा के लिए ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों को अपने आँचल में ले लिया। पेड़ों से चिपक गई। पेड़, जंगल और पर्यावरण के संरक्षण का यह अनोखा अंदाज "चिपको आंदोलन "के रूप में पूरे विश्व में विख्यात हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार 1977 तक पहाड़ों के वनों की खुलेआम नीलामी करती रही।  1977 में पहाड़ के लोग वनों की सार्वजनिक नीलामी के खिलाफ सड़कों पर उतर आए।जनता के विरोध को नजरअंदाज कर सरकार वनों की नीलामी में आमादा थी।  27 नवंबर ,1977 को  जब नैनीताल के शैलेहॉल में पहाड़ों के जंगलों की सार्वजनिक बोली लग रही थी ,इसी दरम्यान ऐतिहासिक नैनीताल क्लब में आग लग गई। इसके बाद वनों की नीलामी का सिलसिला रुक गया। नतीजतन 1980 में नया वन संरक्षण अधिनियम बना।1981 में एक हजार मीटर की ऊँचाई पर व्यवसायिक रूप से  पेड़ काटने पर पाबंदी लगा दी  गई। 1996 के गोंडावर्मन बनाम भारत सरकार जनहित याचिका के तहत गठित विशेषज्ञ  समिति ने वनों का पातन  चक्र दस वर्षीय कर दिया,जिससे दावानल की मारक क्षमता बढ़ने की आशंकाएं जताई जा रहीं हैं।

उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 फीसद यानि 34651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। 24414.408 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जंगलात विभाग के नियंत्रण में है। वन विभाग के नियंत्रण वाले वन क्षेत्र में से करीब 24260.783  वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। बाकी 139.653 वर्ग किलोमीटर जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं।जंगलात महकमे के नियंत्रण वाले वनों में से  394383.84 हेक्टेयर में चीड़ के जंगल हैं। 383088.12 हेक्टेयर में बांज के वन हैं। 614361 हेक्टेयर में मिश्रित जंगल हैं। जबकि तकरीबन 22.17 फीसद क्षेत्र वन रिक्त है।यही चीड़ के जंगल आग के मामले में अत्यंत संवेदनशील होते हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां वनाग्नि के लिए आग में घी का काम करती हैं।

हर साल पहाड़ के जंगलों में आग लगती है। पर जंगल की आग को आर्थिक एवं पारिस्थितिकी के नजरिए से नहीं देखा जाता। वनाग्नि के प्रबंध के लिए  तकनीकी प्रशिक्षण की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। 1985 में कुमाऊँ मंडल में विदेशी आर्थिक सहायता से "मॉर्डन फायर प्रोजेक्ट" शुरू हुआ था। करोड़ों रुपए की इस "वन अग्नि शमन परियोजना" में वन विभाग के रामनगर, नैनीताल, हल्द्वानी आदि सात डिवीजन शामिल किए गए थे। परियोजना के तहत एक हेलीकाप्टर, दर्जनों अग्नि शमन गाड़ियां, टैंकर आदि तमाम उपकरण खरीदे गए। वॉच टॉवर बने। जंगलात विभाग के वन संरक्षक को परियोजना का निदेशक बनाया गया। डीएफओ ,अग्नि शमन अधिकारी बने। रेंज आफिसरों को सहायक अग्नि शमन अधिकारी का जिम्मा सौंपा गया। कई अधिकारी जंगल की आग बुझाने का प्रशिक्षण लेने अमेरिका भेजे गए। 56 लोगों का "अग्नि संगठित दल" बनाया गया, जिन्हें "आक्रू" कहा जाता था। इन्हें वनाग्नि से निपटने के लिए बाकायदा छह महीने का प्रशिक्षण दिया गया।

इस दौरान अधिकरियों ने हेलीकाप्टर से जमकर हवाई उड़ानें भरी।खूब सेमिनार हुए। यह योजना करीब दस साल चली ,फिर अचानक बंद हो गई। वन विभाग के अधिकारीगण वापस विभाग में लौट गए। परियोजना के दूसरे कर्मचारियों को भी वन विभाग में समायोजित कर लिया गया। जंगलों को आग से बचाने के लिए प्रशिक्षित इन परियोजना कर्मचारियों को आज वन विभाग में दोयम दर्जे की हैसियत हासिल है।

अलग उत्तराखंड राज्य बनने के बाद सियासी नजरिए से यहाँ के वनों का खूब प्रचार हुआ। पहाड़ के नेता यहाँ मौजद वनों के एवज में "ग्रीन बोनस" की माँग करते रहे हैं। पहाड़ की सियासत में "जल, जंगल और जमीन" सर्वदलीय और सार्वभौमिक नारा है। पर इनकी असल हालत से सभी नावाकिफ हैं। अलग राज्य बनने के बाद जल, जंगल और जमीन को संरक्षित रखने की दिशा में कोई ईमानदार जमीनी पहल कहीं से नहीं हुई। नतीजतन "जल, जंगल और जमीन" महज एक राजनैतिक मुद्दा बन कर रह गए हैं।

उत्तराखंड राज्य में वन अधिकारियों की सख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है, पर वनों की स्थिति पहले के मुकाबले और बदतर हो गई है। उत्तर प्रदेश में जहाँ एक प्रमुख वन संरक्षक पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी संभालते थे, अलग राज्य बनने के बाद इस छोटे से प्रदेश में प्रमुख एवं मुख्य वन संरक्षक स्तर के करीब ढाई दर्जन आला अफसर हैं। इस छोटे से राज्य में भारतीय वन सेवा के तकरीबन एक सौ अधिकारी तैनात हैं। पर जमीनी स्तर पर कर्मचारियों की जबरदस्त कमी है। फील्ड के स्टाफ में कई दशकों से कोई इजाफा नहीं हुआ है। नतीजतन फील्ड स्टाफ की कमी के चलते साल भर वन संपदा का खूब अवैध दोहन होता है। गर्मियों की आग अवैध दोहन के सबूत नष्ट कर देती है।

उत्तराखंड का वन विभाग वनीकरण के नाम पर सालाना करोड़ों रुपए खर्च करता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि  रोपे  गए पौधों की सुरक्षा  का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। जंगलात विभाग के आंकड़ों पर अगर यकीन किया जाए तो  साल 2008 -09 से साल 2013 -14 के दरम्यान उत्तराखंड में 105591.41 हेक्टेयर क्षेत्र में 217.15 लाख पौधे लगाए गए। 2015 में अकेले कुमाऊँ मंडल में 6903 हेक्टेयर क्षेत्र में 63.329 लाख पौध लगाई गई। दावानल के बाद इस कथित वृक्षारोपण की पुष्टि नहीं की जा सकती है। पहाड़ के जंगलों का बुरा हाल है। यहाँ जंगलों का वनावरण लगातार घट रहा है। वन भूमि सिमट रही है। वन सीमा पिलर तक गायब हो गए हैं। पर एयर कंडीशन कमरों में  हरियाली और वन क्षेत्र कायम है। आखिर कब तक? जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किए बिना जंगलों को अवैध दोहन तथा आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर हो गया है।इस रिश्ते को बहाल करने के लिए सरकार और खुद वन महकमे को जंगलों के प्रति संवेदनशील होने और दिखने की जरूरत है। फ़िलहाल दूर-दूर तक इसके आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

प्रयाग पाण्डे
नैनीताल
pandeprayag@ymail.com


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