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26.12.16

उ.प्र. चुनाव : सपा की रणनीति से विरोधी होंगे चित्त!

नोटबंदी के दौर में जनता ने सबसे ज्यादा नुकसान झेला है तो राजनीति में सबसे ज्यादा अखिलेश ने बाजी मार ली है । आश्चर्यजनक रूप से वे पिछले कुछ महीनों में सपा के दाग और कमियॉं छुपाने में कामयाब हो गये हैं । इसका फायदा अखिलेश को व्यक्तिगत छवि की चमक के रूप मिला है तो पार्टी को भी लाभ पहुॅंचता दिख रहा है । वे चाहें मोदी की कितनी भी बुराई करें लेकिन मार्केंटिंग की कला उन्होनें मोदी से ही बिना बताये सीख ली है । अखबारी पन्नों को समाजवादी रंगों में रंगने वाला सरकारी पैसा खाली नहीं गया । जनयोजनाओं के प्रचार प्रसार के साथ ही अखिलेश की लोकप्रियता को बढ़ाने में यह मीडिया मैनेजमेंट सफल रहा है । विदेशी कम्पनियों को भी पता है कि हिंदी फिल्मों की तरह भारतीय जनता केवल अंत याद रखती है और पुराना भूलकर ताली बजा देती है।


खैर .... अखिलेश दिनों दिन बढ़ रहे हैं और उनके सामने औरो को अपना कद नापना पड़ रहा है, यह छोटी बात नहीं है । लेकिन इतनी रणीनीतिक चतुरता के बाद भी अखिलेश अभी मुलायम सिंह से आगे नहीं निकल पाये हैं । राजनीति के मामले में मुलायम की तिकड़म बताती है कि वे अखिलेश के बाप हैं । उत्तर प्रदेश में सपा की वापसी को लेकर बची खुची शंकाओं पर मुलायम ने ना केवल विराम लगाने में सफलता पायी है बल्कि विपक्षी पार्टियों को भी सोचने को मजबूर कर दिया है । वे सपा को रालोद और कांग्रेस के गठबंधन से नई ताकत देने की तैयारी में हैं । बहुत हद तक यह गठबंधन कामयाब हो सकता है।

पीके की प्लानिंग और राहुल की यूपी यात्रा के बाद कांग्रेस को जो लाभ होता दिख रहा था वह नोटबंदी की लड़ाई में कमजोर सेनापति के चलते कहीं खो सा गया है । कुछ सीटों को छोड़कर कांग्रेस की स्थिति प्रदेश में कमजोर है । एैसे में सपा से गठबंधन का विकल्प ही उसके काम आ सकता है । दूसरी ओर लोकदल का इतिहास बताता है कि वह राजनीति से ज्यादा गठबंधन के फायदे नुकसान पर दिमाग खर्च करती है । लोकदल को गठबंधन करना ही करना है । भाजपा से खाली हाथ लौट चुके हैं, सपा से जड़े मिली हुई हैं, अन्तिम मुहर सपा और कांग्रेस पर ही लगेगी । कुल मिलाकर 60 प्रतिशत से ज्यादा सीटों पर मुलायम सपा को आगे रखकर कांग्रेस और लोकदल के साथ चुनाव लड़ सकते हैं । यह इतनी तगड़ी रणनीति होगी कि भाजपा और बसपा को फिर से मंथन करना पड़ेगा।

बसपा की बात करें तो नोटबंदी के चलते बहनजी चर्चा में रही हैं । आम जनता को नोटबंदी से हुई परेशानी के लिये मायावती ने आवाज उठाई तो भाजपा ने चुनाव में नोट लेकर टिकिट देने की छवि प्रचारित कर इस आवाज को दबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । बसपा सपा को अराजकतावादी और भाजपा को साम्प्रदायिक घोषित करते हुये कानून व्यवस्था के मुद्दे पर चुनाव लड़ने जा रही है । विकास की नित नई योजनाओं से अखिलेश अपना पल्लू साफ करके मायावती की इस कोशिश को असफल करने में लगे हैं । कांग्रेस और लोकदल के जनसमर्थन के साथ आने से भी इस काले धब्बे को नकारने में सपा को मदद मिल जायेगी । एैसे में बसपा का सीधा सामना इस महागठबंधन से होगा।

वहीं भाजपा अभी प्रैक्टीकल मोड़ में है । प्रदेश पदाधिकारी नोटबंदी पर जनता के साथ की बात कहते हों लेकिन जमीनी समर्थक जानते हैं कि लोगों को बैंक से पैसे मिलने में आयी मुसीबतों और इसके चलते हुई मौतों से आम लोगों के विश्वास पर असर पड़ा है । अगर 30 दिसम्बर के बाद जनता को नोटबंदी से हुये किसी चमत्कार की चमक नहीं दिखी या नहीं दिखायी गयी तो मोदी सरकार का यह दांॅव ढीला पड़ सकता है । नोटबंदी के फैंसले पर मिली जुली प्रतिक्रियाओं में नकारात्मक सकेंत भी आये हैं । सर्जिकल स्ट्राईक के जबरदस्त राजनीतिक फायदे की तरह भाजपा नोटबंदी पर शुरूआत में खुलकर जनसमर्थन हांसिल करती दिख रही थी लेकिन बाद में स्थिति बदल गयी है । इस फैंसले से राजनेताओं का कालाधन पकड़ में आने की सोच आम लोग अन्तिम चरण तक लाईन में लगकर तकलीफ झेलते रहे हैं लेकिन अभी तक कोई राजनेता या धनकुबेर उनको साथ देते नहीं दिखे हैं। अगर फील्ड से सच्चे संकेत भाजपा हाईकमान तक पहुॅंच गये तो बहुत सम्भव है कि जनवरी में मोदी सरकार कोई नया धमाका कर चुनावी चर्चा का रूख ही मोड़ दे । फिलवक्त इस संभावित महागठबंधन से भाजपा को भी अपनी रणनीति परिर्वतन करने की जरूरत जरूर पड़ेगी । देश में ऐतिहासिक परिवर्तन के बीच हो रहे उत्तर प्रदेश चुनावों में टक्कर जितनी कांटे की होगी उतनी ही पेचीदा भी । जो याद था वो भूलना पड़ेगा और जो दिख रहा है वह बहुत याद आयेगा।

जगदीश वर्मा ‘समन्दर’
metromedia111@gmail.com


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