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10.7.18

लिहाजा असल माफिया हम हैं तुम नही..

तुम्हारी एक गोली या फिर 10 गोली से सिर्फ एक मरता है हमारी एक कलम से हजारों दहशत में आ जाते हैं। तुम क्या डराओगे जितना हम डराते हैं। तुम जान मारते हो हम जान को हलक में फंसा देते हैं। हम नही तो तुम्हारा कोई वजूद नही। तुम कभी डर के तो कभी डराने को गोली चलाते हो ।तुम्हे तो हम डॉन और माफिया बनाते हैं। तुम्हारी एक गोली की गूंज हम सैकड़ों के घर सैकड़ों बार पहुंचाते हैं। जितने लोग तुम्हारी गोलियों से नही डरते उससे ज्यादा हमारी कलम से डरते हैं। गर हम नही तो तुम नही। लिहाजा असल माफिया हम हैं तुम नहीं। हम मीडिया है..



पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान हमारे एक अतिथि अध्यापक ने एक वाकया सुनाया कि वो एक जिले में अखबार के प्रमुख थे, उनके पास एक दिन एक व्यक्ति एक डिब्बा बेहतरीन मिठाई लेकर पहुंचा और बोला, लीजिये सर मुँह मीठा कीजिये। उन्होंने कारण पूछा तो वह बोला श्रीमान अभी तक तो मै उक्त साप्ताहिक बाजार में ठेले वालों से थोड़ी बहुत उगाही कर लेता था, जब से आपने मेरा नाम बदमाश और लफंगा की टाइटिल के साथ अपने अखबार में छाप दिया तब से लोग बाजार में मेरे घुसते ही पैसा निकाल कर रखते हैं और जो नही देते थे वो भी बिना मांगे देने लगे। आपकी वजह से मेरा रुतबा और कमाई बढ़ गई, तो फिर आप बोलिए आप हमारी मिठाई के हकदार हैं या नही।

ये एक छोटा सा वाकया है जिसके जरिये आप समझ सकते हैं कि आज गुंडागर्दी माफियागीरी जैसे अपराधों को जाने अनजाने बढ़ावा देने में मीडिया की कितनी बड़ी भूमिका है। माना कि साहित्य और फ़िल्में भी अपना रोल अदा करती हैं लेकिन अखबार और न्यूज चैनल्स से ज्यादा नही, जिसके जरिये इनकी दहशत और महिमामंडन को घर घर परोसा जाता है। हाँ कुछ हद तक जरुरी है आमजन का भी अपराधों के बारे में जानना लेकिन परोसने का तरीका डर और दहशत का क्यों होना चाहिए, सूचनात्मक क्यों नहीं। कोई पैमाना ही नही है कोई दायरा ही नही है।

न सरकार को फुरसत है न मीडिया घरानों और न ही मूर्धन्य तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों को। आये दिन धडाधड खुलने वाले मीडिया घरानों में भी किनका पैसा लग रहा है इसे भी कोई देखने वाला नहीं। कहते हैं मेरा देश बदल रहा है। देश बदलने में मीडिया कि बहुत बड़ी भूमिका है लिहाजा मीडिया को सोचना ही होगा कि क्या और कैसे परोसना है। सरकार के भी अंकुश लगाने की अपनी सीमायें हैं वरना अर्रोप लगेगा कि सरकार मीडिया पर बैन लगा रही है। मीडिया और सरकार को मिलबैठ कर मीडिया एथिक्स पर काम करना चाहिए। बंद ऊँची चहारदीवारी और सीखचों के पीछे अपराध और अपराधी दोनों पलते हैं लेकिन दीवार और सींखचों के बाहर हम उन्हें कद देते हैं। जो उस बंद चाहरदीवारी के बाहर हैं हम उनका भी कद बढ़ाते है। फिर वो कुछ करे न करे उसका कद काम करने लगता है और फिर हम उसके लिए भी काम आने लगते हैं और अक्सर वो हमारे भी काम आने लगता है। और फिर तैयार होता है नेता-माफिया, पुलिस-माफिया गठजोड़ से इतर मीडिया-माफिया गठजोड़। ये कभी जानबूझ कर हो जाता है तो कभी अनजाने में। क्योंकि हम समझ ही नहीं पाते कि उनकी कहानी या फिर उनका महिमामंडन करते करते कब हम उनके दोस्त बन चुके होते हैं। फिर दोस्ती में गलत क्या और सही क्या।

आजकल के दौर में मीडिया को यूज किया जाता है। हर कोई अपने पक्ष की या फिर अपने तरीके से खबर चाहता है जिसके एवज में मीडिया का व्यवसाय चलता है। मीडिया की अपनी दूकान है, मीडिया की अपनी मजबूरियां हैं। खिलाफ छापकर दिखाकर डराता है या फिर पक्ष में छापकर दिखाकर कमाता है मीडिया। इन सब कमियों बुराइयों के बावजूद मीडिया की अपनी अहम भूमिका है एक इंसान को, लोगों को, या फिर समाज को न्याय दिलाने में, इसके एक नही हजारों उदाहरण मिलेंगे। इसी भूमिका को और मजबूत और सशक्त कैसे किया जाय इसपर मीडिया घरानों पत्रकारों और सरकारों को सोचने की जरूरत है, ताकि भरोसा कायम रहे और ये साफ़ हो सके कि हमें क्या और कितना परोसना है और क्या नही परोसना है। वरना एक डान या माफिया के जीतेजी या फिर मरने के बाद भी देश और समाज डरता रहेगा और हम डराते रहेंगे। क्योंकि असल माफिया हम हैं तुम नही। इसलिए ये कहने में कोई गुरेज नहीं कि पत्रकारिता एक दुधारी तलवार है इस पर विरले ही चल पाते हैं.

दिनकर श्रीवास्तव

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