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29.5.19

लघुकथा : बहुरूपिया

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उस नामी प्रदर्शनी के बाहर एक बड़ी चमचमाती आधुनिक कार रुकी। चालक बाहर निकला और पीछे का दरवाज़ा खोला, अंदर से एक सूटधारी आदमी उतरा। वहीँ कुछ दूर एक भिखारी बैठा हुआ था, वह आदमी उस भिखारी के पास गया और जेब से नोटों का एक पुलिंदा निकाल कर बिना गिने उसमें से कुछ नोट भिखारी की कटोरी में डाल दिए। भिखारी सहित कई व्यक्ति उसकी दरियादिली देख कर चौंक गए।

वह आदमी प्रदर्शनी कक्ष में गया। पहले कमरे में कई दर्पण थे, वह पहले दर्पण के सामने गया, देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कान आ गयी, वह बहुत मोटा दिखाई दे रहा था।

उसी समय उसका फोन बजा। उसने देखा, उसके प्रतिष्ठान के एक कर्मचारी का फ़ोन था, जिसने अपने पिता के इलाज हेतु ऋण के लिए अर्जी दे रखी थी। उसने मुंह बिगाड़ा और फोन की आवाज़ बंद कर अगले दर्पण की तरफ बढ़ गया।

अगले आईने में वह बहुत अधिक लम्बा दिखाई दिया, उसके चेहरे पर पहले से भी गहरी मुस्कुराहट आ गयी। वह आगे बढ़ता गया और स्वयं को छोटे-बड़े-मिश्रित अलग-अलग रूपों में देखकर बच्चों की तरह खुश होता रहा।

सारे दर्पणों में स्वयं को देख कर वह और आगे बढ़ा तो उन दर्पणों को बनाने वाला बैठा हुआ था, उसने दर्पणों के निर्माता को हँसते हुए कहा, "आपकी कला गजब की है, लेकिन आपने एक भी आईना ऐसा नहीं बनाया, जिसमें सही रूप दिखाई दे।"

दर्पणों के निर्माता ने भी हँसते हुए उत्तर दिया, "जो कुछ भी देखा वह सारे आप ही के तो रूप थे, लेकिन असली रूप बता  सके, ऐसा आईना तो आज तक कोई नहीं बना सका"

और उसके जेब में रखे फ़ोन की घंटी तब भी बज ही रही थी।

लघु कथाकार डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी उदयपुर में रहते हैं और कंप्यूटर विज्ञान में पीएचडी हैं. उनसे संपर्क chandresh.chhatlani@gmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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