Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

22.5.19

चिरकुट मैनेजमेंट खा जाता है पत्रकारों के खून-पसीने का वेतन!

आखिर कहां चली जाती है उन मीडिया हाउस के मैनेजमेंट की मानवता जो हमेशा समाज के हित के लिए निष्पक्ष होकर चैनल या अख़बार खोलते हैं। कहने और बताने में बहुत ही अच्छा लगता है कि मैं पत्रकार हूं।  लेकिन अपने दिल से  पूछिए जरा दिनभर की थक हारकर जब घर वापस आते हो क्या गुजरती होगी? देश में लगातार न्यूज चैनल खुलते जा रहे हैं। पत्रकारों को रोजगार मुहैया कराने के लिए। लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है? इसे जानना बेहद जरूरी है।

मैनेजमेंट न्यूज चैनल खोलकर बैठ जाता है। मीडिया कर्मी भी बस एक सूचना में उनके दरबार पर पहुंच जाते हैं अपनी नई नौकरी के लिए। नौकरी मिल भी जाती है। लेकिन वेतन की तो पूछो ही न, पत्रकारिता समाज सेवा है तो मैनेजमेंट समाज सेवा कराने में लग जाता है। एक मजदूर की दिहाड़ी से कम पत्रकारों को काम करते पाया जा सकता है। दिनभर दिमाग़ की बत्ती जलाकर बैठे और वेतन इतना कि ठीक से कमरे का किराया और दो वक्त की रोटी मिल जाए तो बहुत है।

समाज के हक की लडा़ई लड़ने वाला पत्रकार अपने हक की लडा़ई लड़ने में क्यों गुरेज करता है? वेतन से इक और बात याद आ गई, चलो किसी तरह कम वेतन में गुजारा चल रहा है लेकिन जब एक महीने दो महीने सैलरी न मिले तो क्या होगा?  कहते हैं न वही होगा जो मंजूरे खुदा होगा।  गौरतलब है बहुत से  मीडिया हाउस इस श्रेणी से बाहर हैं, लेकिन जैसे बरसात में कुकुरमुत्ते जगह जगह उगने लगते हैं वैसे ही देश में खुल रहे चैनलों का हाल है। बहुत अफसोस भी होता है यह सोचकर कि आखिर वह मीडिया कर्मी जो दिहाड़ी मजदूर से भी कम वेतन या उसके आस पास वेतन पाते हैं उन्हें आखिर यह बात क्यों समझ नहीं आती। उनको अपने अंदर के हुनर को पहचानना चाहिए।

आप से ही मैनेजमेंट वालों का न्यूज चैनल चलता है । थोड़ा सा खुद को मजबूत करिए। और अपने हुनर और मेहनत की कमाई के हिसाब से वेतन मांगिए। इंटर्न के भरोसे कब तक काम चलाएंगे, कभी तो उनको भी नौकरी पर रखना पड़ेगा। इतना शोषण उनका होता है जो समाज को जागरूक करने का जिम्मा लिए बैठे हैं। अहम बात यह भी है कि मीडिया में बेरोजगारी के दौर में कम वेतन पर काम करने के लिए पत्रकार तैयार हो जाते हैं। इनमें से कुछ वह होते हैं जिनके घर भी उसी शहर में होते हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे।

सवाल यह उठता है पत्रकारों के पास भी परिवार होता है। उनको भी घर का खर्च उठाना पड़ता है। सिर्फ समाज सेवा से उनका पेट नहीं भरता। चैनलों के मैनेजमेंट अधिकारी जरा सोचिए अगर आप ऐसी स्थिति में होते तो क्या होता? ठीक से वेतन नहीं दे सकते, समय से नहीं दे सकते तो शायद चैनल चलाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? सूचना प्रसारण मंत्रालय को भी इसपर ध्यान देने की जरूरत है।  मेरे इस लेख का उद्देश्य पत्रकारों को अपने हुनर को पहचानने और जागरूक करने के लिए है, अगर इससे किसी को मीडिया हाउस को ठेस पहुंचती है तो क्षमा करें। वेतन को लेकर कुछ और नये खुलासे जल्द ही आपके सामने होगें। जो आपबीती होगी।

एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.

No comments: