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5.6.19

यूपी में गठबंधन की सियासत फिर ‘चौराहे’ पर

अजय कुमार,लखनऊ
उत्तर प्रदेश में कल तक मजबूत दिख रहे सपा-बसपा गठबंधन में बसपा सुप्रीमों मायावती के एक बयान के बाद दरार नजर आने लगी है। भले ही बसपा सुप्रीमों मायावती के मन में अखिलेश को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है,परंतु गठबंधन के बाद भी लोकसभा चुनाव में उम्मीद के अनुसार उन्हें(मायावती) सियासी फायदा नहीं मिलने से से उम्मीद के अनुसार  यह कहने में भी गुरेज नहीं रहा कि सपा के यादव वोट बैंक में सेंधमारी लग चुकी है। माया का इशारा साफ है कि अगर सपा-बसपा के वोटर एक साथ आते तो गठबंधन की जीत का आंकड़ा बहुत बड़ा होता। मगर सपा से नाराज यादव वोटरों के चलते ऐसा हो नहीं पाया। माया के बयान पर अभी तक सपा प्रमुख अखिलेश यादव सधी हुई प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं,लेकिन मायावती के नए पैतरे से यह तो साफ हो ही गया है कि अखिलेश के लिए मायावती को समझना इतना आसान भी नहीं है। माया ने फिलहाल सपा से संबंध तोड़ने की बात तो नहीं की है लेकिन यह जरूर साफ कर दिया है कि वह अपने हिसाब से चलेंगी। इसी के तरह बसपा सुप्रीमों  2007 के हिट फार्मूले ‘सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय’ को फिर से धार देना चाहती हैं, जिसके बदौलत प्रदेश में उनकी बहुमत के साथ सरकार बनी थी।

माया ने पार्टी की बैठक में चुनाव नतीजों की चर्चा करते हुए यह दो टूक दोहराया कि  सपा के साथ उनका गठबंधन राजनीतिक मजबूरी है,लेकिन उन्हें इस बात का मलाल भी है कि लोकसभा चुनाव में यादव वोटर सपा के उम्मीदवारों के साथ नहीं खड़े रहे, पता नहीं किस बात से नाराज होकर उन्होंने भितरघात किया। माया कहती हैं सपा के बड़े नेताओं की हार से साफ है कि सपा का वोट एकजुट नहीं हुआ। इसके साथ ही मायावती की अखिलेश को नसीहत दी कि अगर उनके कुछ नेताओं में सुधार नहीं होता है, समाजवादी पार्टी की स्थिति ठीक नहीं होती है तो उनके साथ ऐसे में चलना बड़ा मुश्किल होगा।

माया को यही लगता है कि सपा-बसपा का बेस वोट जुड़ने पर हमें हारना नहीं चाहिए था। परंतु उन्हें अखिलेश से व्यक्तिगत नाराजगी नहीं है। उनका यह कहना कि हमारा संबंध केवल राजनीति के लिए नहीं।यह हमेशा के जारी रहेगा। अखिलेश और उनकी पत्नी मेरा आदर करते हैं। कई संकेत देता है।     

खैर, कुछ माह के भीतर होने वाले 11 विधान सभा सीटों पर बीएसपी अकेले ही चुनाव लड़ेगी, बसपा सुप्रीमों का यह फैसला चैकाने वाला तो है, लेकिन मायावती यह भी कहती हैं कि यह स्थाई फैसला नहीं है।

बहरहाल, भले ही अभी सपा-बसपा गठबंधन खत्म नहीं हुआ है,लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यूपी में गठंबधन की सियासत का इतिहास कभी खुशनुमा नहीं लिखा गया। यहां कभी भी गठबंधन की सियासत लम्बे समय तक परवान नहीं चढ़ सकी। प्रदेश में 1989 से गठबंधन की सियासत का दौर शुरू हुआ था। तब से लेकर आज तक प्रदेश की जनता ने कई मेल-बेमल कई गठबंधन देखे हैं। राज्य में सपा-बसपा, भाजपा-बसपा, कांग्रेस-बसपा, रालोद-कांग्रेस जैसे अनेक गठबंधन बन चुके हैं,लेकिन आपसी स्वार्थ के चलते  लगभग हर बार गठबंधन की राजनीति दम तोड़ती नजर आई। छोटे दलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कोई भी ऐसा बड़ा दल नहीं रहा जिसने कभी न कभी गठबंधन न किया हो। मगर गठबंधन का हश्र हमेशा एक जैसा ही रहा।

पहली बार 1989 में मुलायम सिंह यादव गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने थे, तब उन्हें भाजपा का समर्थन मिला था। वे संयुक्त मोर्चा से मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद 1990 में जब राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोका गया था, तब भाजपा ने केंद्र और राज्य सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद में 1993 में जब चुनाव हुए थे तब पहली बार बसपा-सपा का गठबंधन हुआ और मुलायम को सीएम के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। 05 दिसंबर 1993 को मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बनें। मगर कार्यकाल पूरा  होता इससे पहले ही मायावती ने 02 जून 1995 को उनकी(मुुलायम) सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इससे मुलायम तिलमिला गए, जिसके बाद में दो जून 1995 को लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस में मायावती को सपा के लोगों ने घेर कर काफी अभद्रता की था। जहां से बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने उनको सुरक्षित बाहर निकाला था।

इसके बाद तीन जून 1995 को बीजेपी के समर्थन से मायावती दोबारा मुख्यमंत्री बनी,लेकिन यह गठबंधन भी जल्द ही उसी साल 18 अक्टूबर को टूट गया। इसके बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया,जो 05 अक्टूबर 1993 तक चला। इसके बाद मायावती ने कांगे्रस के  साथ मिलकर सरकार बनाई। उस समय तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि कांगे्रस ने एक दलित को सीएम बनाकर बहुत बड़ी गलती की है। हुआ भी यही। मायावती ने कांगे्रस के दलित वोट बैंक में संेधमारी कर दी। मायावती की सरकार को बने आठ-नौ महीने हुए थे, तभी भाजपा नेता कल्याण सिंह की सियासी बिसात मे उलझ कर बसपा से 22 विधायक मायावती का साथ छोड़कर अलग हो गए थे इन विधायकों ने भाजपा को समर्थन देकर कल्याण सिंह को दोबारा सीएम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया। मगर ये गठबंधन भी लंबा नहीं चला। बसपा से अलग हुए कुछ विधायक बाद में कांगे्रस के करीब हो गए और तब के कांगे्रसी नेता जगदग्बिका पाल सीएम की कुर्सी पर विराजमान हो गए,मगर अदालत के आदेश से 24 घंटे के भीतर ही उन्हें पद से हटा दिया गया।

आखिरकार में 2001 में राजनाथ सिंह जब यूपी के मुख्यमंत्री थे, तब हुए चुनाव में कांग्रेस और बसपा के बीच गठबंधन हुआ था। मगर बसपा कोई लाभ नहीं हुआ था। कांग्रेस ने चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव को समर्थन देकर उनकी सरकार बनवा दी। 2012 में रालोद और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था, मगर उसका कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं आया। दोनों दलों ने मिला कर मात्र 28 सीटें ही जीतीं। इसी प्रकार 2017 में कांगे्रस और सपा का गठबंधन भी बुरी तरह से फ्लाप रहा। अबकी लोकसभा चुनाव के लिए  सपा-बसपा और रालोद में जो गठबंधन हुआ था,वह भी मायावती के सख्त तेवरों के चलते फिर से चैराहे पर खड़ा नजर आ रहा है।

लेखक अजय कुमार लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं.

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