3.1.08

हम भारतीय शायद ही कभी जिम्मेवार माता-पिता रहे हो ?

हाल में दैनिक हिन्दुस्तान में एक ख़बर प्रकाशित हुई कि लन्दन में रहनेवाले भारतीय भी बालक शिशु की चाह में भ्रूण-हत्या में आगे हैं और वंशवाद की भारतीय परम्परा का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं। पता है, ऐसे ख़बरों का हमारे समाज पर बड़ा ही व्यापक असर कुछ ज्यादा ही होता है क्योंकि एक उदाहरण का ईज़ाफ़ा जो हो गया। गाँव से निकलकर किसान शहर में मज़दूरी करके अपने जीवन को बेहतर बनाने का ख़्वाब लेकर चलता है, मध्यमवर्गीय शहरी अपने बेहतरी के लिए महानगर का रूख करता है, तो महानगर के लोग अपने स्वर्णिम भविष्य को लन्दन जैसे शहरों में तलाशते हैं। ऐसे में इस ख़बर के आने के बाद बिहार के किसी गाँव में वंशवाद की चाह में पुत्रवधू की हत्या या दिल्ली के किसी उपनगरीय इलाके में कूड़े के ढ़ेर से अपरिपक्व भ्रूण मिलने की ख़बर तो ख़बर सरीखी लगती ही नहीं।
कहने को तो हम भारतीय पाश्चात्य समाज की तुलना में ज़्यादा जिम्मेवार कहे जाते हैं। उदाहरण ये दिए जाते हैं कि हमारे यहाँ तलाक़ दर कम है और हम अपने बच्चों की परवरिश उसके स्थायित्व प्राप्त करने तक करते हैं। इन उदाहरणों की हक़ीक़त से तो हम अख़बारों व अन्य माध्यमों द्वारा हर रोज़ रू-ब-रू होते हैं हो रहे हैं। और उस पर तुर्रा ये कि हम विश्वशक्ति, महाशक्ति, आर्थिक महाशक्ति और न जाने क्या-क्या हो जानेवाले हैं ??? क्या हम वाकई महाशक्ति बनने के लायक हैं ? क्या हम सचमुच कभी जिम्मेवार रहे हैं ? कितनी पुरानी है ये वंशवाद की मान्यता और आधुनिकता के किन सोपानों को छूने के दावे हो रहे हैं ?? क्या हल है ? मीडिया की भूमिका क्या हो ? अब वक्त आ गया है कि उपर्युक्त प्रश्नों पर गंभीरता से विचार किया जाए क्योंकि राष्ट्रीय औसत भले ही प्रति हज़ार पुरूष पर 933 महिलाओं का है किन्तु, स्थिति राजस्थान-हरियाणा जैसे राज्यों कहीं ज़्यादा भयावह है। इक्कीसवीं सदी में भी यदि कबीलाई सोच जीवित है, अति-आधुनिक परिवार भी यदि वंशवाद से ग्रसित हैं और सामर्थ्यवान लोग भी इतने ग़ैर-जिम्मेदराना ज़ुर्म को अंजाम दे रहे हों तो हम क्या संदेश अपने समकक्ष व समकालीन समाज को देना चाह रहे हैं ?

अभिषेक पाटनी

1 comment:

  1. मेरा भारत /भारतीयता महान !
    घुघूती बासूती

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