16.2.08

पेल रहा हूँ कविता प्रियवर तुम्हे पढ़ाने को

महान-आत्माएं
महान-आत्माएं देर से आती हैं सभागार में
जब तक हममें से कई लोग इंतजार में ऊबने लगते हैं
महान-आत्माओं का इंतजार
हममें से कई लोग करते हैं प्रेम से

महान -आत्माओं के इंतजार मे ही
हम हर दिन जुटते हैं सभागार में
अपनी-अपनी तालियाँ लेकर
बैठे रहते हैं
तालियों को दबाएरहते हैं
और कयास लगाते हैं महान-आत्माओं के बरे में
महान-आत्माएं देर से आती हैं सभागार में

जब हमारी बीदियाँ खत्म होने लगती हैं
बतियाने के लिए कुछ बच नही जाता
तब आती हैं महान-आत्माएं
आसन ग्रहण करती हैं
और माइक पर बेसुरे राग में
एक आदमी उनकी अश्लील प्रार्थना करने लगता है
हमारी तालियाँ बेकाबू हो जाती हैं
और हमारे उपर ही हमारा वश नही रह जाता

हम इस प्रार्थना के आदी होते हैं
और इस स्खलन के दीवाने
इसीलिए जुटते हैं रोज सभागार में
हम सभागार में जुटते हैं
अपनी आत्मा से महान-आत्माओं के मिलन हेतु
और मिलन के आभाव का दुःख भोगते हैं

महान-आत्माएं आगे बैठती हैं
हम पीछे
और हम मंच पर चील के
बैठने के भय से भर उठते हैं
धीरे-धीरे
इस भयानक आकांक्षा में हमें मजा आने लगता है

महान-आत्माएं चील को
इस कदर समेटकर बैठती हैं अपने भीतर
हम चील देख नही पाते
सिर्फ़ पंख का फद्फ्दाना सुनते हैं
और सब नजरअंदाज करते हैं
हर रोज यही सुनते हैं
करते हैं यही
और लौट आते हैं रोज- उदास-उदास

हमारी उदासी बढ़ती जाती है
मगर हम सभागार में जन बंद नही करते
और किसी दिन हमारे भीतर भी
चील अपने पूरे वजूद के साथ
कुलांचे भरने लगती है ।
हरे प्रकाश उपाध्याय

2 comments:

  1. क्या बात है हरे भाई....जय जय

    बस, ऐसे ही सोचते-लिखते रहिये....

    यशवंत

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  2. ऐसे ही पेट्रोल मुत्ती करते रहिए महाराज ताकि ऊर्जा संकट न होने पाए ।
    जय जय भड़ास

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