11.12.09

कुछ अपने मन की

वो महफ़िल में आये,
और दिल-ए-महफ़िल को चुरा ले गए..
आलम ऐसा हुआ इस महफ़िल का,
हम पानी को शराब समझकर पी गए...



हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
पर पूरी कायनात में कोई बेगाना ही ना मिला...



इन हसीनों के भंवर में ना पड़ बन्दे,
तू हो जाएगा कंगार..
फिर याद आएगा, पी.एम. ने कहा था..
जितनी लम्बी चादर..उतने ही पैर पसार..



हर इंसान को देख कर दिल कुढ़ा जा रहा है,
हर दिल दिन-दिन मरा जा रहा है..
और आप कहते हैं..
"तुम जियो हज़ारों साल, साल के दिन हों पचास हज़ार?"

2 comments:

  1. हम निकले थे ज़माने को अपना बनाने..
    पर पूरी कायनात में कोई बेगाना ही ना मिला

    वाह क्या बात है ... बहुत खूब
    बहुत सुन्दर
    आभार व शुभकामनायें

    ★☆★☆★☆★☆★
    क्रियेटिव मंच
    ★☆★☆★☆★☆★

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  2. ek saath kai arth deti kavita

    pyari kavita

    shaandaar kavita

    abhinandan !

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