28.2.10

भूतनाथ को मिला नोबेल प्राईज.......हुर्रा....आहा.....!!

मैं भूत बोल रहा हूँ..........!!हुर्रा....आहा....!!भाईयों और भाईयों...!!
भूतनाथ
को मिला साहित्य और शांति का नोबेल प्राईज....!!....विश्व की दुनिया की धरती के मेरे तमाम दोस्तों....मुझे आज आपको यह बताते हुए अपार हश्र हो रहा है कि आज एक अनाम-से अजीव स्वर्गीय श्री भूतनाथ को साहित्य और शान्ति के सिरमौर प्राईज "नोबेल प्राईज"से रातों-रात नवाज़ दिया गया....!!
आज अहले-सुबह-सवेरे-मुहं-अँधेरे ही ढोल-नगाड़ों के संग यह अद्भुत कार्य संपन्न किया गया....!!एकाध दिन पहले ही मिस्टर नोबेल प्राईस विश्व अकादमी ने यह तय किया था कि ब्रह्माण्ड में शान्ति और साहित्य की प्रति-स्थापना में अपने अतुलनीय योगदान के लिए स्वर्गीय मि.भूतनाथ को ही क्यों यह प्राईज दिया जाए...इस हेतु
नोबेल अकादमी के तमाम दिग्गजों के मध्य कई दौर की बात चीत हुई और प्राईज की होड़ के तमाम शूरवीरों के बीच भी घोर आत्म-मंथन हुआ और सबने सर्व- सम्मति से यह पुरस्कार भूतनाथ जी को आत्म-समर्पित कर डाला...!!
उधर नोबेल प्राईज के अफसरों ने यह कहा कि दरअसल इस बार यह सोचा गया कि बिना कि बिना किसी तिकड़म से एक सीधे-सरल इस अद्भुत-से दिखने वाले अ-जीव का कल्याण क्यूँ ना कर दिया जाए ताकि लोगों को यह पता चले कि हमलोग सजीव-निर्जीव के साथ -जीव चीज़ों का भी सम्मान करना जानते हैं...और भूतनाथ जी को यह पुरस्कार देना दरअसल पुरस्कार की प्रतिष्ठा ही तो होगी...!!ऐसे जीव को पुरस्कार दिए जाने से सिर्फ सजीव लोगों को पुरस्कृत करने का यह दुष्चक्र भी टूटेगा....तत्क्षण ही यह पुरस्कार घोषित कर दिया गया....!!
इस होली की सुबह घोषित किया गया है...और अगली होली के दिन ब्रह्माण्ड के सभी भूतों की उपस्थिति में यह अलंकरण भूतनाथ को प्रदान किया जाएगा...बीच का वर्ष इन तमाम भूतों की लिस्टिंग करने,उन्हें आमंत्रित करने तथा आयोजन की समस्त तैयारियों में ही व्यतीत हो जाएगा...साथ ही एक-साथ इतने सारे भूतों को ठहराने की व्यवस्था करना धरती पर तो संभव नहीं, इसलिए आयोजन - स्थल ब्रहस्पति-गृह तय किया गया है अगले वर्ष तक वहां जाना भी संभव हो सकेगा...!!
यह तो गनीमत है कि भूत लोग कहीं एक जगह टिक कर नहीं बैठते वर्ना इस समूची धरती पर इतनी सारी कुर्सियां भला कहाँ से आती....मालूम हो भूतों की समूची आबादी आदमियों से कई हज़ार गुना है और एक भूत को अलंकृत करते वक्त जब भूत ही हों तब क्या ख़ाक मज़ा है...!!भूतों की इस ना बैठने की आदत से आयोजन-कर्मियों बड़ी राहत की अंतहीन-असीम.......सांस ली....!!बताया जा रहा है कि यह आयोजन ब्रहमांड का अब तक का सबसे बड़ा और अनूठा आयोजन होगा...!!
ज्ञातव्य हो कि एक इंसान ने अपने मरने बाद "बात पुरानी है"नाम का एक ब्लाग बनाकर मानवता की जो सेवा की,अससे ना पढनेवाला वाला ब्लॉगजगत,नोबेल प्राईज कमिटी और अन्य सुधिजन इतने अभिभूत हुए कि सबने यह कहते हुए कि भूतनाथ जी की रचनाओं के सामने हमारी रचनाएं कूड़ा हैं कूड़ा....अपनी सारी रचनाएं होली की पूर्व संध्या पर होलिका में दहन कर डाली....!!सबने एक मत...!!से ये कहा कि भूतनाथ के ब्लॉग पर यों भी असीम शांति का आभास होता है क्योंकि उनके ब्लॉग पर कोई जाता ही नहीं....!!अब जहां कोई जाए ही ना,वहां शान्ति तो होनी ही होनी ठहरी....!!सो इस ब्लॉग पर मुर्दे ही उड़ते हैं,या फिर उनकी"छाया"!!
इस ब्लॉग में कंटेंट भी ऐसा होता है कि कोई जाने से पूर्व सौ-सौ बार सोचता होगा कि इस पर जाएँ तो क्यूँ जाएँ....यह मुआ चीथड़े-चीथड़े हो चुके शब्दों को भी उनकी पूर्णता के संग,सम्पूर्ण गुणवत्ता के संग अर्थ प्रदान करना चाहता है...मगर जो मर चूका,वो भला वापस लौट कर आया है...!!
अब
जैसे भावना,आदर्श,संवेदना,नैतिकता......आदमियत जैसे शब्दों को इस मुर्ख ने अब तक थामा हुआ है सो थामा ही हुआ है....बीती हुई चीज़ों को अक्सर लोग बहुत तरजीह देते हैं....इसी तरह नोबेल कमिटी का दिल था कि भूतनाथ पर फिसल गया....इस कमिटी के अनुसार भूतनाथ ने ऐसी-ऐसी चीज़ें लिख डाली हैं कि समूचा लेखन-जगत जैसे संठ ही मार गया है....सबकी रचनाएं जैसे सेंट्रिंग में चली गयी हैं...अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो गयी है....सब भूतनाथ को छोड़कर सभी पर बोलते हैं,भूतनाथ पर कोई नहीं बोलता...इन्हीं सिरफिरों की आँख खोलने हेतु कमिटी ने यह निर्णय ले डाला...!!.
...
हालाँकि बहुतों ने इस अवांछनीय घटना पर त्वरित अफ़सोस भी जाहिर कर दिया है,किन्तु अब क्या होत जब चिड़िया चुग गयी खेत...!!....नोबेल कमिटी की इस घटिया क्रिया पर बहुतों ने तो छाती भी पीती और बहुतों ने रातों-रात आत्महत्या कर डाली......भूतनाथ ने बताया कि लोगों का यह करना भी इस बात परिचायक है वो लोग भूतनाथ से कितना असीम प्रेम करते हैं कि उन्हें बधाई देने के लिए इतना लोम-हर्षक कार्य करके उनसे मिलने नरक आ रहे हैं....वर्ना धरती पर तो सब लोग स्वर्ग की कामना करते हैं,भले ही वो सब अपनी सारी जिंदगी नरक तक जाने योग्य कार्य से भी घटिया कार्य करते रहे हों...
फिर भी भूतनाथ उन्हें अपना असीम प्यार देंगे...क्यूंकि आत्महत्या का यह नेक कार्य उन्होंने भूतनाथ के लिए ही तो किया है...चाहे जैसी भी नीयत से किया हो...और उन्होंने सभी जिन्दा और मुर्दा लोगों तथा सभी प्रकार के सजीव-निर्जीव और अ-जीव प्राणियों को होली की अनगिनत शुभकामनाएं देते हुए कहा है कि क्या अच्छा हो कि सभी इस होलिका में गुड्कुलों के संग खुद को भी जलाकर भूतों की जमात में शामिल होकर धरती को और ज्यादा वीभत्स होने से बचा लें...और अगर साहित्य से शान्ति के बजाय झगडा ही फैलता हो तो उसे भी आग के हवाले करने में ही धरती पर उनका अंतिम उपकार होगा...!!
भूतनाथ ने बताया कि unka जीवन धरती पर शांति लाने के प्रयत्न में ख़त्म हो गया....अब वो बेहद खुश हैं कि वो भूत हैं...और अखिल ब्रहमांड में भूतों के बीच शान्ति स्थापित करने हेतु कोई प्रयास नहीं करना पड़ता...!!....इसके विपरीत इंसान,जिसे धरती पर शांति-प्रिय और विवेक-शील जीव मन जाता है....वो अपनी सारी जिंदगी मारकाट-ही-मारकाट मचाये रहता है...भूतनाथ ने दुनिया के सभी मनुष्यों को भूतों से प्रेरणा लेकर दुनिया में अमन-चैन की अपील की है...!!आप सबको होली मुबारक....!!आप सब प्रेम के रंगों से सराबोर हो जाओ...और समूची धरती पर यह अनमोल रंग बिखर जाये...इस नेमत...इस उपहार की कामना के साथ आप सबको भूतनाथ का असीम....अगाध....अंतहीन....और रंग भरा प्रेम......!!!!!
होली के रंग मारो भर्र-भर्र-भर्र !!
भरो पिचकारी सर्र-सर्र-सर्र !!
उड़े अबीर-गुलाल फर्र-फर्र-फर्र !!
अपुन भी नाचे भईया टर्र-टर्र-टर्र !!
प्रेम के रंगों से सब तर्र-तर्र-तर्र !!
गुब्बरवा की गुलेल चले सर्र-सर्र-सर्र !!
सब भींगे जाये आज अर्र-अर्र-अर्र !!
पछुआ बयार बहे फर्र-फर्र-फर्र !!
भंगुआ का रंग जमे खर्र-खर्र-खर्र !!
अंगवा में छुवन मचे छर्र-छर्र-छर्र !!
फगुआ आयो रे भईया हर्र-हर्र-हर्र !!
झूमो रे नाचो रे गावो गर्र-गर्र-गर्र !!
जोगीरा सर्र-सर्र-सर्र-सर्र-सर्र-सर्र !!
जोगीरा सर्र-सर्र-सर्र-सर्र-सर्र-सर्र !!
http://baatpuraanihai.blogspot.com/

इस तरह मिली फिल्मों को जुबान

हिंदी सिनेमा का इतिहास-5
-राजेश त्रिपाठी

फिल्मों ने जब बोलना शुरू किया तो दर्शकों को बड़ा अचरज हुआ। चलती-फिरती तस्वीरें बोलने भी लगीं, यह उनके लिए दुनिया का नया आश्चर्य था। फिल्में ‘हाउसफुल’ जानें लगीं। दर्शकों की लंबी क। तारें सिनेमाघरों के सामने लगने लगीं। चलते-फिरते सिनेमा के मालिकों को अब विश्वास हो गया था कि धंधा चल जायेगा इसलिए स्थायी पक्के सिनेमाघरों का निर्माण होने लगा और फिल्म को बिना रोके लगातार सुचारु रूप से रील खत्म होते ही दूसरे प्रोजेक्टर से अगली रील चलायी जा सके।
शुरू-शुरू में तस्वीरों को चलते-फिरते और बोलते देख कर अनपढ़ और बोलते देक कर अनपढ़ भोले-भाले देहाती मुंह फाड़ कर रह जाते। परदे पर रेलगाड़ी, सांप या शेर को देख उसको वास्तविक मान बैठते। इस संदर्भ में एक दिलचस्प घटना का जिक्र अप्रासंगिक नहीं होगा। एक फिल्म बनी थीं ‘पंजाब मेल’। इसमें नायिका सुलोचना (रूबी मेयर्स) एक तालाब में नहाने जाती है और एक-एक कर कपड़े खोलने लगती है। तभी पंजाब मेल धड़धड़ाती हुई आ जाती है, जिससे वह दिखाई नहीं देती। इस दृश्य को देखने के लिए कुछ दर्शक बार-बार सिनेमाहाल में यह सोच कर जाते थे कि किसी न किसी दिन तो गाड़ी अवश्य लेट होगी। किंतु सैकड़ों ‘शो’ देखने के बाद भी गाड़ी लेट नहीं हुई और न ही सुलोचना को नग्न देखने की दर्शकों की लालसा ही पूरी हुई।
पुराने दिनों में देश में पारसी थिएटर और नायक-नौटंकी की धूम थी। यही वजह है कि वर्षों तक तब की फिल्मों में ऐसी नाटकीयता देखने को मिलती थी, जैसे कोई नाटक या नौटंकी देख रहे हों। संवादों और अभिनय में नाटकों की छाप स्पष्ट नजर आती। शायद उस जमाने में निर्माता-निर्देशक दर्शकों के दिल-दिमाग में बसी अभिनय शैली से हट कर कुछ ‘नया’ करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे या फिर वे फिल्मों में मौलिकता-स्वाभाविकता लाने की बात सोच भी नहीं पाते थे। संवाद ही नहीं , फिल्म के गाने भी ऐसे गाये जाते थे, जैसे नाटकों में गाये जाते थे। आर्केस्ट्रा के नाम पर तब तबला, हारमोनियम, सारंगी, मंजीरा और बांसुरी ही हुआ करते थे और संगीत को कम तथा गायक-गायिका के स्वर को अधिक उभारा जाता था।
तब कलाकार वेतनभोगी होते थे और दोपहर में शूटिंग पैक-अप होने के बाद मिल-जुल कर स्वयं स्टूडियो में ही खाना बनाते थे। उन्हें यह चिंता नहीं थी कि लोग यह सब सुनेंगे, तो क्या कहेंगे क्योंकि वे सब ग्लैमर की दुनिया और व्यक्तिगत प्रचार से दूर, अच्छी फिल्में बनाने के लिए पूर्णतः समर्पित थे।
उन दिनों अखबारों में फिल्म के समाचारों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। चित्र छपने की भी गुंजाइश नहीं थी। फिर भी कलाकारों के रोमांस के चर्चे गाहे-बगाहे पढ़ने-सुनने को मिल ही जाते थे। इन्हें लोग चटखारे लेकर पढ़ते-सुनते और दूसरों को सुनाते। अशोक कुमार के साथ देविका रानी, लीला चिटणीस ओर नलिनी जयवंत के रोमांस के चर्चे उन दिनों आम थे। (क्रमशः)

लो क सं घ र्ष !: बुरा मनो या भला क्या कर लोगे होली है : खूने जिगर भी बहाओ तो जानूँ

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रंगो की होली तो सब खेलते हैं।
खून जिगर भी बहाओं तो जानूँ।।
प्रेम के रंग में मन भी रंग जाए बन्धू।
कोई ऐसी होली मनाओं तो जानूँ।।
दो बदन मिलना केाई जरूरी नहीं।
दिल से दिल को मिलाओं तो जानूँ।।
ठुमरी वो फगुआ तो गाते सभी हैं।
प्रेम का गीत कोई सुनाओ तो जानूँ।।
मुहब्बत बढ़े और मिट जाए नफरत।
कोई रीति ऐसी चला तो जानूँ।।
रूला देना हँसते को है रस्में दुनिया।
रोते हुए की हँसाओ तो जानूँ।।
है आसान गुलशन को वीरान करना।
उजड़े चमन को बसाओ तो जानूँ
अपना चमन प्यारे अपना चमन है।
दिलोजान इस पर लुटाओं तो जानूँ।।
मिट जाए जिससे दिलो का अँधेरा।
कोई शम्मा ऐसी जलाओं तो जानूँ।।
ऐशो इशरत में तो साथ देती है दुनिया।
मुसीबत में भी काम आओ तो जानूँ।।
मुस्कराना तो आता है सबको खुशी में।
अश्कें गम पीके भी मुस्कराओ तो जानूँ।।
अपनों वो गैरों की खुशियों के खातिर।?
जमील अपनी हस्ती मिटाओं तो जानूँ

-मोहम्मद जमील शास्त्री

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। सभी चिट्ठाकार बंधुओं को परिवार सहित होली की हार्दिक शुभकामनाएं ।

सुमन
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