8.1.11

समुद्र मंथन और अमृत वितरण


शुक्राचार्य से शक्ति ले दैत्य हो रहे थे प्रबल 
दुर्वासा के शाप ने देवराज को किया निर्बल 
असुरों,दैत्यों का हो रहा था अभ्युथान 
देवत्व का होता जा रहा था पतन 
सारे देवगन हो गए परेशान 
फिर नारायण को किया आह्वान 
श्री नारायण ने मंथन का राह दिखाया 
अमृत पान का गुरु मन्त्र सुझाया 
अमृत कि खातिर एक हुए दैत्य दैत्यारी 
समुद्र मंथन कि हो गयी तैयारी 
पर्वत मंदराचल कि बनी मथनी 
वासुकी नाग बन गया नेती
श्री विष्णु ने लिया कच्छप अवतार 
आधार बन संभाला पर्वत का भार
देव दानव सबमें शक्ति का संचार किया 
गहन निद्रा दे वासुकी का कष्ट हर लिया 
वासुकी कि मुख का भाग दैत्यों ने थाम लिया
देवताओं ने उसकी पूंछ कि ओर स्थान लिया 
समुद्र मंथन कि क्रिया हो गयी प्रारंभ 
मंदराचल का घूमना हुआ आरम्भ 
जल का हलाहल विष निकला सर्वप्रथम 
इतनी दुर्गन्ध कि घुटने लगा सबका दम 
उसके प्रभाव में सभी क्रांति खोने लगे 
दुर्गन्ध,जलन सभी असह्य होने लगे 
तभी शिव शंकर औढरदानी वँहा आये 
कालकूट विष पीकर नीलकंठ कहलाये 
भोले शंकर ने सबको पीड़ा से उबार दिया 
विष कंठ में धर सबका उन्होंने उद्धार किया 
कहते हैं कुछ बूंद विष जो गिरा धरती पर 
उसी से जन्मे सर्प,बिच्छु सारे विषधर 
विष पीड़ा काल हुआ संपन्न 
पुनः प्रारंभ हुआ समुद्र मंथन 
निकली कामधेनु नामक गोधन 
उस गाय को ऋषियों ने किया ग्रहण 
उच्चः श्रवा नामक जो अश्व आया 
दैत्यराज बलि ने उसे पाया 
फिर आया कल्पद्रुम औ आई रम्भा अप्सरा 
दोनों को देवलोक में स्थान मिला 
फिर मंथन ने माता लक्ष्मी को उत्पन्न किया 
लक्ष्मी ने खुद हीं श्री विष्णु का वरण किया 
फिर कन्या रूप वारुणी हुई उत्त्पन्न 
दैत्यों ने किया उसे ग्रहण 
यूँ हीं उद्भव हुआ चंद्रमा,पारिजात वृक्ष और शंख का
अंत में आये धन्वन्तरी लेकर घट अमृत का 
दैत्यों ने अमृत घट छीन लिया 
स्वभाववश  फिर आपस में युद्ध किया 
देख कर घट दैत्यों के पास 
देवता बेचारे खड़े थे उदास
तत्काल विष्णु ने मोहिनी रूप धरा
जिसने देखा उसे बस देखता ही रहा 
सुन्दरता को भी लजाने वाली वह रूपसी 
छम छम करती दैत्यों के पास चली 
मोहित हो दैत्य करने लगे वंदन 
हे सुमोहिनी,हे शुभगे,हे कमल नयन 
हम पर अपनी सौन्दर्य कृपा बरसा दो 
इन कर कमलों से अमृतपान करा दो 
वह मुस्काई तो सबके दिल में हुक उठी 
आखिर वह कोकिल बयनी कुक उठी 
हे कश्यप पुत्र,हे वीर कुछ सयाने भी लगते हो 
फिर भी मुझ सुंदरी,चंचला पर विश्वाश करते हो ?
इस अमृत घट से मेरा क्या प्रयोजन ?
आपस में खुद हीं कर लो न वितरण 
कामांध वे दैत्य कुछ समझ नहीं पाते थे 
उस ठगनी पर और विश्वास जताते थे 
मोहिनी ने दैत्य देवों को दो पंक्ति में बिठा दिया 
देवों को अमृत दैत्यों को तो बस झांसा दिया 
 (एक दैत्य ने भी अमृत पिया था जो राहू केतु बना पर उसका जिक्र इस कविता में नहीं है क्यूंकि वह दूसरी कहानी शुरू हो जाती )

5 comments:

  1. बेहद सुन्दर वर्णन किया है काव्य मे पूरे प्रसंग का…………बहुत पसन्द आया।

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  2. एक पौराणिक कथा का अत्यंत रोचक वर्णन

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  3. एक पौराणिक कथा का अत्यंत रोचक वर्णन

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