31.3.13

पागल मत बनो केजरीवाल-ब्रज की दुनिया

मित्रों,वैसे तो मेरी सोंच और मेरा स्वभाव शुरू से ही युवा साम्यवादियों जैसा रहा है। मैंने हमेशा यथास्थिति को शिव के पिनाक धनुष की तरह पुनर्वार भंग करने का,तोड़ने का प्रयास किया है लेकिन मुझे इस बात को लेकर कभी गफलत नहीं रही है कि वर्तमान काल में ऐसा करना काफी कठिन है और दिन-ब-दिन कठिन से कठिनतर होता जानेवाला है। मैंने अपने एक आलेख में कई साल पहले ही लिखा था कि आज अगर गांधी भी साक्षात् आ जाएँ तो वे भी देश को कुछ खास नहीं बदल पाएंगे और उनको भी निराशा ही हाथ लगेगी। जब पूरा देश दूसरे रीतिकाल का निर्बाध और निफिक्र आनंद ले रहा हो,जब पूरा देश ऐन्द्रिक सुख के पीछे पागल हो,जब समाज का ज्यादा बड़ा तबका शराब की खुमारी में डूबा हो और सन्नी लियोन के देह-दर्शन को व्याकुल हो तब देश को कोई कैसे जगा सकता है?
                                           मित्रों,यह तो आप भी जानते हैं कि शहीद दिवस,23 मार्च से ही अरविन्द केजरीवाल नामक एक उत्साही-उन्मादी युवक दिल्ली की जनता के दुःखभार को कम करने के लिए अनशन पर बैठा हुआ है परन्तु जनता है कि जैसे उसको नेताओं और पानी-बिजला कंपनियों के हाथों लुटने में ही मजा आ रहा है। वह एक ऐसे मरीज की तरह व्यवहार कर रही है जिसको स्वस्थ होना रास ही नहीं आ रहा फिर आप ही बताईए कि कोई अन्ना या केजरीवाल जान देकर भी उसका कैसे भला कर सकते हैं?
                                    मित्रों,पहले तो संदेहभर था अब तो मुझे इस बात का पक्का यकीन हो गया है कि ये दोनों गुरू-चेले अव्वल दर्जे के पागल हैं प्यासा फिल्म के गुरूदत्त की तरह इसलिए इनको तो पागलखाने में होना ही चाहिए। बड़ा चले हैं जान देने। अमाँ मियाँ किसको चाहिए तुम्हारी जान? कोई क्या करेगा तुम्हारी जान का? चले हैं जनता को जगाने। जनता तो राग-रंग में डूबी हुई हो तुम भी डूब जाओ और मानव-जीवन का आनंद लो। संतों ने कहा भी तो है कि यह मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलनेवाला। तो क्यों नहीं तुम भी डूब जाते आनंद के महासागर में? आखिर इसमें तुम लोगों को परेशानी ही क्या है? क्यों नहीं चिपक जाते तुम भी सत्तारूढ़ दल से? क्यों नहीं बन जाते तुमलोग भी केंद्रीय मंत्री और फिर क्यों नहीं करते लाखों के वारे-न्यारे? इस भारत का कुछ भी नहीं हो सकता मित्र,कुछ भी नहीं हो सकता। यह तो जैसा है वैसा ही रहेगा जान से जाओगे तुम दोनों। देखते नहीं कि इसी भारत में शहीद भगत सिंह का घर खंडहर हुआ जाता है,तुम्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि इसी भारत में चंद्रशेखर आजाद के घर पर सरकारी अमला कैसे बुलडोजर चलाता है और जनता मूकदर्शक बनी रहती है। ये लोग सोये हुए नहीं हैं दोस्त खोये हुए है खुद में और खुद से। ये लोग लापता हो गए लोग हैं,खुद से ही लापता। बताओ भला कैसे जगाओगे इन्हें? कैसे पता लगाओगे इनका,कहाँ जाकर खोजोगे इनको? इसलिए तुमलोग यह बार-बार का अनशन छोड़ो और भ्रष्टाचार से नाता जोड़ो जो अब हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। जिस देश में 100 में से 90 लोग बेईमान हों वहाँ कौन पढ़ेगा तुमसे ईमानदारी का नीरस पाठ? कहीं ईमानदारी से पेट भरता है दोस्त? मित्र अपनी ही जान का क्यों दुश्मन बनते हो? मर जाओगे तो ज्यादा-से-ज्यादा कहीं पार्क में या सड़क पर तुम्हारी एक मूर्ति बिठा दी जाएगी जिस पर कबूतर बीट करेंगे और आवारा कुत्ते पेशाब करेंगे। बरखुर्दार समझे कि नहीं? वैसे मेरा क्या मैं तो तेरे भले की बात कर रहा हूँ अब चाहो तो मानो और न चाहो तो नहीं मानो,अपनी बला से,हाँ! है कि नहीं!!

30.3.13

भाग मुलायम...CBI आई..!


मुलायम सिंह को सीबीआई का बड़ा डर है। डर भी इस कदर की आए दिन सीबीआई के खौफ के किस्से सुनाते फिरते हैं। कहते हैं कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार डराकर समर्थन लेती है और समर्थन न देने पर सीबीआई का डर दिखाती है। मुलायम ये भी कहते हैं कि कांग्रेस ने ही उनके पीछे सीबीआई को लगा दिया और ऐसा ही कुछ कांग्रेस ने डीएमके के साथ भी किया।
मुलायम यहीं नहीं रुकते वे केन्द्र सरकार पर जमकर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाते हैं। कहते हैं कि केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगा रही है। कोयला घोटाले,किसानों के कर्ज माफी घोटाले औऱ हेलिकॉप्टर सरीखे घोटालों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए जमकर कोसते हैं लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस को समर्थन जारी रखते हैं। (पढ़ें- सीबीआई जिंदाबाद..!)
हालांकि इसके पीछे भी मुलायम अजीब से तर्क देते हैं। एक तरफ आडवाणी की तारीफ करते हैं और दूसरी तरफ भाजपा की ओर ईशारा करते हुए मुलायम कहते हैं कि वे सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए ही केन्द्र सरकार को समर्थन दे रहे हैं। मुलायम सिंह की बातों को अगर गंभीरता से लिया जाए तो मुलायम की बातें मुलायम पर ही कई सवाल खड़े करती है। मसलन मुलायम समर्थन न देने पर सीबीआई का डर दिखाने का आरोप कांग्रेस पर लगाते हैं और कांग्रेस को समर्थन जारी रखते हैं...इसका मतलब मुलायम सीबीआई से डरे हुए हैं और जानते हैं कि समर्थन वापस लिया तो सीबीआई उनके पीछे लगा दी जाएगी और कहीं सीबीआई के जाल में वे न फंस जाएं। आय़ से अधिक संपत्ति का मामला तो वैसे भी मुलायम सिंह की कमजोर कड़ी है..!
मुलायम का केन्द्र सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना और उसके बाद भी समर्थन देना जारी रखना क्या ये साबित करने के लिए काफी नहीं है कि मुलायम भी केन्द्र सरकार में हो रहे भ्रष्टाचार को अपना समर्थन दे रहे हैं..?
मुलायम भले ही लाख सफाई दें कि वे सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस को समर्थन देना जारी रख रहे हैं लेकिन उनकी ये दलील गले तो नहीं उतरती।
अब मुलायम ऐसा क्यों करते हैं ये तो मुलायम ही जानें लेकिन सीबीआई का खौफ किस कदर मुलायम पर हावी है ये आए दिन मुलायम की केन्द्र सरकार के खिलाफ बयानबाजी जाहिर करती है और इसके बाद भी समर्थन जारी रखने की बात करना इस पर मुहर भी लगाती है। (पढ़ें- सीबीआई- फिर काम आया ब्रह्मास्त्र..!)
मुलायम ये कभी नहीं चाहेंगे कि उम्र के इस पड़ाव में केन्द्र सरकार से समर्थन वापस लेकर पंगा लें और बदले में अपना बुढ़ापा खराब करें..! जाहिर है मुलायम कि नजरें 2014 पर हैं और वे तीसरे मोर्चे के मुखिया के तौर पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब भी संजो रहे हैं ऐसे में अगर सीबीआई पीछे पड़ गयी तो मुलायम का तीसरे मोर्चे के सहारे पीएम की कुर्सी पर बैठने का ख्वाब अधूरा रह जाएगा..! यही वजह है कि मुलायम सिंह कांग्रेस के खिलाफ भड़ास तो खूब निकाल रहे हैं लेकिन समर्थन वापस लेने का दम मुलायम चाह कर भी नहीं दिखा पा रहे हैं..!
सही मायने में शायद यही राजनीति है...बोलो कुछ, करो कुछ और दिखाओ कुछ और...मुलायम सिंह भी तो कुछ ऐसा ही कर रहे हैं..! लेकिन देखना ये होगा कि क्या यूपी की जनता मुलायम के इस रूप को समझ पाएगी और 2014 में साईकिल को पंचर कर मुलायम की पार्टी को सबक सिखाएगी या फिर 2012 में हुए यूपी के विधानसभा चुनाव की तरह आम चुनाव में भी साईकिल पर मुहर लगाएगी..!

deepaktiwari555@gmail.com

29.3.13

Cancer is curable


Now for the story of Dr. Siegfried Ernst...


During one of my interviews with Dr. Johanna Budwig at her home in Freudenstadt, the phone rang and a happy and lively interview in German ensued. In a few minutes Dr. Budwig asked me to come to the phone.

"Take the phone," she said. "This is Dr. Ernst, the friend I told you about. Speak with him and confirm anything you would like."
Our conversation lasted approximately ten minutes and I tried to remember as much as I could. Most of the facts had already been related to me by Dr. Budwig. When I returned to my hotel I jotted down whatever I could recall. The next day was Friday and I was scheduled to leave in the morning for Stuttgart. My return flight was on Sunday at eight in the morning. Because it required a very early wake-up and I did not want to risk missing it, I decided to arrive there a day early. After purchasing as many of Dr. Budwig's books as possible at a local apothecary, I took a taxi to the train station and was on my way. The plane that I had hoped to take was full, and I was advised that I would be able to get a flight out of Munich. On the way to Munich the train stopped at Ulm, which in our phone conversation, Dr. Ernst had mentioned was his home. I decided to get off the train and try to find him. Within an hour I had a hotel room and arranged to meet with Dr. Ernst the following morning.
I spent the day with Dr. Ernst who, though in his late seventies, seemed tireless. This is a rare, dedicated man in every possible way. He is devoted to family, church, city and humanity. He counted among his personal friends the present Pope and many other dignitaries. Although he is undoubtedly grateful to Dr. Budwig, he disagreed on various points with reference to her therapy being complete. He felt as I do, that if there is a large tumor, it should be removed without mutilation or incapacitation to the patient the reason being its tremendous toxic effect and thus incredible drain on our protective resources. I must remind you that Dr. Budwig is a purist with reference to the efficacy of her own therapy. She firmly believes that any failures are caused by non-compliance on the part of the patient or alterations in the protocol on the part of the physician. Although she may be correct, I prefer to use every possible safe and non-destructive technique on behalf of the patient against such a formidable enemy as cancer. I would happily change my mind if comparative studies were available. In early tumors, her therapy should be sufficient. It becomes a judgement call in referrence to surgery, but I personally reject chemotherapy or radiation almost without exception.
Dr. Ernst related in detail many fascinating episodes of his life. For this book, I will relate only the cancer story. He told me that seventeen years ago he had developed a cancer of the stomach for which he had major surgery. It had required removal of his stomach and left him with a great number of digestive problems and considerable debilitation. His professional life had virtually come to an end. He was approximately sixty years old at the time. He had great difficulty in continuing to practice medicine.
Two years later he had a recurrence of the cancer and was offered chemotherapy as the only available remedy. There was little hope for survival, and knowing that chemotherapy was not only ineffectual, but completely destructive of the quality of life, he refused. It was then that he turned to Dr. Budwig for help. For two years he religiously followed the dietary routine outlined in this book and , in addition, he used the application of the linseed oil to his body every evening. The oil was applied lo the abdominal area and wrapped with cloth bandages. He has since persisted in remaining true to the diet 95% of the time and continues the low fat cottage cheese and linseed oil daily. It has been fifteen years since the recurrence of the stomach cancer und the institution of the Budwig therapy. Dr. Ernst has had good quality of life except for relatively minor problems with eating and digesting food. The simple addition of digestive enzymes and other supplements have made his existence almost completely normal.
Virtually all individuals with a recurrence of this type of cancer rarely last a year. If they agree to chemotherapy, the time gained is negligible, and the side-effects from the chemotherapy makes it regrettable. Of course the establishment will dismiss the results as a "spontaneous remission" in spite of the fact that it is unheard of, except when patients go for simple alternative therapies. I seriously think that alternative (orthodox) physicians should create a specialist's designation and advertise themselves as "practice limited to spontaneous remissions." If a colleague attributed Dr. Ernst's results to happenstance, I am sure Ernst would answer in the polite German equivalent of "Why don't you come off it!"
Dr. Ernst's son, Martin, also a physician, joined us in the afternoon for several hours. I was saddened to find out that the physicians in Germany faced many of the same problems as doctors in the United States. I listened to the cases of physicians who brought their family members for successful non-establishment treatments, but renounced and refused those same remedies to their patients. I was angered at one story about a physician who had treated a child with leukemia with non-toxic natural remedies and was brought to court by the medical establishment. The parents had refused chemotherapy from another doctor and had requested the alternative therapy from the doctor who was now being charged with depriving the child of proper medical treatment. The child survived the same amount of time she would have on chemotherapy, without any of the debilitating, painful and dehumanizing effects.
Establishment medicine, with little or no evidence to support their barbaric use of these highly toxic drugs, continues to make fortunes while their patients spend their last days vomiting, debilitated, baldheaded and without dignity. While patients suffer from "cutting edge" therapy, the physician places his head comfortably on his pillow at night, content that he has served humanity with the best "anyone" has to offer. His dreams and his waking hours know nothing of the other world out there that has existed for five thousand years. Besides, how dare anyone suggest that a tribal medicine man or a dissident colleague could accomplish more. It is incredible to me that physicians could accept the fact that a single artificial chemical compound created in a laboratory could cure or control a disease and reject the idea that a natural food, with its many chemical compounds, could do the same or infinitely better.
Our conversation lasted for many hours and he confirmed much of what Dr. Budwig had told me and more. I recalled the many stories of patients she had treated. I had been made privy to her private papers. She carefully guarded the identity of her patients and I respected her all the more for it. My conversation with the incredibly kind and sensitive Dr. Ernst recanted some of the information and results I had learned in my visit with Dr. Budwig. I must admit that whatever skepticism I may have had when Dr. Budwig was emphatic that her diet actually prevented and cured cancer, disappeared after my memorable meeting with Dr. Ernst. He was both a colleague and a fellow cancer victim who had been truly cured, not just a five-year survival.

सरकती रात का आँचल । (गीत)






सरकती रात का आँचल । (गीत)


सरकती रात का, आँचल मैं  थामे  बैठा  हूँ ।

यारों   की  भीड़  में, तन्हाई  थामे  बैठा  हूँ ।


दिदारे यार  को, तरसता रहा, मैं भी, यार भी,

भरी  महफ़िल में  ये,रुसवाई  थामे  बैठा  हूँ ।


अंतरा-१.

आस थी इस शाम को,आयेंगे ना, आये वो..!!

बेवफ़ा, ग़मे  आशिकी,गले लगाए  बैठा  हूँ ।

भरी  महफ़िल में  ये,रुसवाई  थामे  बैठा  हूँ ।

सरकती  रात  का, आँचल  मैं थामे बैठा  हूँ ।

अंतरा-२.

प्यार में अक्सर, कहते थे  वो, मर जायेंगे ..!!

मैं  न  भूला,आज तक,जाँ  लूटाये  बैठा हूँ ।

भरी  महफ़िल में  ये,रुसवाई  थामे  बैठा  हूँ ।

सरकती रात  का, आँचल मैं थामे  बैठा हूँ ।

अंतरा-३.

ना जाने क्यूँ, दामन बचा कर, वो चल दिये..!!

राहें  उनकी, रोशन  रहें, दिल जलाए  बैठा हूँ ।

भरी   महफ़िल  में  ये, रुसवाई  थामे  बैठा  हूँ ।

सरकती  रात  का,  आँचल   मैं  थामे  बैठा हूँ ।

अंतरा-४.

क्या करुं,दिले जलन को,काश ये होता नहीं..!!

मर जाउंगा लो, आज  मैं, जाम थामे  बैठा  हूँ ।

भरी   महफ़िल  में   ये,रुसवाई  थामे  बैठा  हूँ । 

सरकती   रात  का, आँचल  मैं  थामे  बैठा हूँ ।


यारों   की   भीड़   में,   तन्हाई  थामे  बैठा  हूँ ।

सरकती  रात  का, आँचल  मैं  थामे  बैठा हूँ ।

मार्कण्ड दवे । दिनांक-१३-१०-२०११.

Appan Samachar kee Rinku Kumari ko S. P. Singh Patrakarita Puraskar

अप्पन समाचार की रिंकु कुमारी को पटना पुस्तक मेला में २२ मार्च को  S. P. Singh Patrakarita Puraskar से नवाजा गया।

अप्पन समाचार को जानने पहुंची केंद्रीय विश्वविद्यालय की टीम

केंद्रीय  विश्वविद्यालय, पटना बिहार की २२ सदस्यीय टीम २२ मार्च को पटना से मुजफ्फरपुर पहुँची। सहायक प्रोफ़ेसर सुजीत कुमार और दीक्षा चमोला के नेतृत्व में २० छात्र-छात्राएं अप्पन समाचार के बारे में जानने आये थे. इस टीम में पत्रकारिता व जनसंचार और विकास अध्ययन विभाग के छात्र-छात्राएं शामिल थे. २२ मार्च को मुजफ्फरपुर में दिनभर का सेशन चला, जिसमें कम्युनिटी मीडिया बनाम कॉरपोरेट मीडिया पर चर्चा चली। इस दौरान अप्पन समाचार परिकल्पना, उसके सफ़र, प्रभाव आदि के बारे में भी खुलकर बातें हुईं। अप्पन समाचार के संस्थापक संतोष सारंग ने छात्र-छात्राओं को अप्पन समाचार के अलावा पत्रकारिता में आनेवाली नई पीढ़ी के सामने आ रही चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताया। दैनिक जागरण के एम् अखलाक, अप्पन समाचार के प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर अमृतांज इंदीवर, आनंद मूर्ति, के नीरज, हेमनारायण विश्वकर्मा ने भी संबोधित किया।
शाम में टीम मुशहरी के मणिका गाँव जाकर प्रख्यात समाजवादी चिन्तक व लेखक सच्चिदानंद सिन्हा से मिलकर करीब डेढ़ घंटे गाँव व पत्रकारिता पर बात की। छात्रों ने अपनी जिज्ञासाएं मिटाई।
२३ मार्च को यह टीम पारू प्रखंड के चान्दकेवारी गाँव पहुंची। वहां अप्पन समाचार टीम की लड़कियों, ग्रामीणों के साथ घंटों बैठकर अप्पन समाचार की गतिविधियों पर चर्चा की। दोनों टीमों ने अपने-अपने अनुभव बाँटें। फिर केंद्रीय विश्वविद्यालय की टीम के छात्र-छात्रों ने तीन समूह में बंटकर गाँव के तीन टोलों में जाकर अप्पन समाचार के काम, उसके प्रभाव पर सर्वे किया। अंत में सर्वे से छनकर आई बातों पर चर्चा की गयी। पटना से आई टीम ने बताया कि अप्पन समाचार की फ्रिक्वेंसी बढ़ाने की जरूरत है। इसे घर-घर तक पहुँचाना होगा।
इस मौके पर अप्पन समाचार की रिंकू कुमारी, खुशबू कुमारी, पिंकी, अनीता, रेनू, प्रियंका, ममता, जुबेहा खातून, अमृतांज इन्दीवर, राजेश कुमार, पंकज सिंह, फूलदेव पटेल, नीतीश कुमार, शम्भू सिंह, चान्द्केवारी के मुखिया विनोद साह, सकलदेव दास, संजय कुमार, हसरत अली आदि मौजूद थे.                  

बिहार में पुलिस को रंगदारी नहीं देनेवालों की खैर नहीं-ब्रज की दुनिया


मित्रों,हम बिहारियों के शब्दकोश में बिहार पुलिस के कई पर्यायवाची दर्ज हैं। कोई इन्हें सरकारी कुत्ता कहता है तो कोई सरकारी दामाद। इन्हें कुत्ता इसलिए नहीं कहा जाता है क्योंकि यह जनता की रक्षा करती है बल्कि इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह जनता को काट खाती है और सरकारी दामाद इसलिए क्योंकि इनको मुफ्तखोरी की बहुत बुरी आदत होती है। लालू राज में भी ऐसा देखने आता रहा है कि कभी-कभी मुफ्त में सामान नहीं देने पर ये लोग ठेले-रेहड़ीवालों की कभी कानून के डंडे से और कभी बेंत के डंडे से पिटाई कर देते हैं लेकिन तब ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि कोई थानेदार रंगदारी नहीं देने पर अपनी सर्विस रिवाल्वर को किसी मजलूम पर खाली ही कर दे। परन्तु सुशासन की रामराजी सरकार में ऐसा भी होने लगा है।

          मित्रों,ताजी घटना में रंगदारी में शराब नहीं देने पर नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में थानेदार ने दुकान के सेल्समैन की सरेबाजार गोली मारकर हत्या कर दी है। यह घटना जिले के थरथरी थाने के अस्ता-खरजम्मा बाजार में सोमवार 25 मार्च की रात करीब दस बजे हुई। मृतक के मौसेरे भाई संजय यादव ने एफआईआर में कहा है कि थरथरी थाने का थानेदार रामप्रवेश सिंह सोमवार की रात गश्ती के दौरान दुकान पर आया और मनोज (अब मृतक) से दो कार्टन शराब देने को कहा। शराब देने से मना करने पर उसने तत्काल मनोज को गोली मार दी और फिर पुलिस जीप में बैठकर भाग गया।
         मित्रों,मैं पहले भी अर्ज कर चुका हूँ कि इन दिनों बिहार में घटनेवाली 90% आपराधिक घटनाओं के लिए नीतीश सरकार की दोषपूर्ण आबकारी या शराब नीति जिम्मेदार है। बिहार में अधिकतर अपराध या तो शराब के लिए हो रहे हैं या फिर शराब के नशे में संपन्न किए जा रहे हैं। दुर्भाग्यवश पूरे बिहार को शराबी बनाकर भी नीतीश सरकार शुतुरमुर्गी मुद्रा अख्तियार किए हुए है। अभी कल-परसों में ही हमारे राज्य में होली के सुअवसर पर बिहार के आबकारी विभाग द्बारा बेची जा रही विषैली मुँहफोड़वा या रंथी एक्सप्रेस शराब को पीने से कई दर्जन लोगों की जान जा चुकी है।
               मित्रों,जहाँ तक सुशासन में पुलिस द्वारा जनता की की जा रही अमूल्य सेवाओं का प्रश्न है तो इससे तो हम इतने अभिभूत हैं कि सोंचकर ही हमारा दिल बैठा जा रहा है। पिछले सात सालों में हमारी सुशासनी सरकार ने बिहार पुलिस का चेहरा ही बदल कर रख दिया है। उसने पहले जिस तरह अहैतुकी कृपा करके शराब की दुकानों पर शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है लिखवा दिया था उसी तरह अब उसने राज्य के तमाम थानों पर आदर्श थाना लिखवा दिया है। माबदौलत (पगले आजम?) समझते हैं कि जब थाने का नाम ही आदर्श थाना होगा तो वहाँ पदस्थापित पुलिसकर्मी और अधिकारी खुद ही शर्म के मारे गलत काम नहीं करेंगे और इस प्रकार बिहार में स्वतः राम-राज्य कायम हो जाएगा।
                मित्रों,मेरा तो चिरकाल से यह भी मानना रहा है कि यदि बिहार में नौकरशाही के चरम स्वरूप बिहार पुलिस नामक संस्था को समाप्त ही कर दिया जाता तो यह यहाँ की जनता पर सरकार का सबसे बड़ा उपकार होता। पिछले कई दशकों से बिहार पुलिस बिहार का सबसे बड़ा आपराधिक गिरोह बनी हुई है। लालूराज तक तो यह जनता को सिर्फ लूटती ही थी परन्तु अब तो यह जान से मारने भी लगी है। आगे-आगे देखिए कि यह लोकसेवक संस्था प्रदेश की कथित मालिक जनता के साथ/जनता के लिए और क्या-क्या करती है।

बॉलीवुड की मंजिल के हमराही

हर साल मुंबई में लगभग डेढ़ सौ फिल्में बनती हैं लेकिन हर साल कितने हजार लोग फिल्म बनाने, फिल्म से जुड़ने के सपने को लेकर इस शहर में आते हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। मुंबई के हर गली-मोहल्ले में आपको एक फिल्म वाला मिल जाएगा। हो सकता है कि उनके लिंक बडे -बड़े डायरेक्टरों से हों लेकिन वह जहां रहता है और जो उसका रहन-सहन है, वह बहुत ही मामूली है पर उसके सपनों की मंजिल इतनी ऊंची है कि आप अपनी कल्पना शक्ति से भी वहां तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन ये मुंबई है, यहां पर पैसा जेबों से अधिक लोगों की जुबान पर रहता है। बॉलीवुड में फिल्मों की प्लानिंग कहां-कहां और कैसे- कैसे होती है, यह बात काफी दिलचस्प है, बता रहे हैं अमित द्विवेदी
अंधेरी का लोखंडवाला
यदि इस इलाके को कलाकारगढ़ कहें तो गलत नहीं होगा। भले ही इस जगह का यह आधिकारिक नाम हो लेकिन बॉलीवुड की कई जानी-मानी बड़ी-छोटी हस्तियां यहीं रहती हैं। हीरा पन्ना माल के पास बने एक रूम वाले घरों में जाने कितने कलाकार आए, रहे, बढ़े और फिर बड़ा घर लेकर निकल लिए। ‘पंचवटी’ नाम के इस अपार्टमेंट के बारे में कहते हैं कि कभी रघुवीर यादव, नंदिता दास जैसे कलाकार यहां रहा करते थे। मौजूदा समय में इस अपार्टमेंट्स के एक रूम का किराया 16 हजार रुपये प्रतिमाह है। लेकिन आप इसकी कीमत पर मत जाइए, बस अपार्टमेंट्स के सामने खड़े हो जाइए। हर दो-चार मिनट पर कोई कोई जाना-पहचाना चेहरा आपको दिख जाएगा। यदि आपको रतन राजपूत का ‘स्वयंवर’ याद हो तो बता दें कि इसी अपार्टमेंट्स के एक छोटे से कमरे में मैडम रहा करती थीं लेकिन ‘स्वयंवर’ के बाद उनको चैनल वालों ने एक घर दे दिया और वह यहां से निकल गई। लेकिन अब भी छोटे परदे पर दिखने वाले कई रईस ठाकुर-ठकुराइनों का आशियाना इसी अपार्टमेंट्स में है। ओशिवारा में स्थित इस बिल्डिंग का अतीत जाने कितनी सुनहरी यादों को अपने में समेटे हुए है। इसके बाद आपको यहां के दो और दृश्यों से अवगत करा देते हैं। यहां इनफिनिटी मॉल के सामने एक सड़क जाती है, जिस पर चाय की ढेरों दुकानें दिखेंगी लेकिन ये चाय की दुकानें बहु ही खास हैं क्योंकि जाने कितनी चुस्कियों में कितनी फिल्मों की कहानियां यहां पैदा होकर सिल्वर स्क्रीन का सफर तय करती हैं। यहां खड़े होकर चाय पीने वाले फिल्म मेकरों के चाय पीने का अंदाज उससे भी निराला है क्योंकि ये लोग पैसा बचाने के लिए एक चाय में जितना संभव हो सकता है, उतनी चाय लेकर उसकी कम मात्रा को भी सिगरेट के धुएं के साथ-साथ घंटे भर में खत्म करते हैं। यहां पर लोगों से बात करके पता चला कि यहां पर वे स्ट्रगलर आते हैं , जिनके पास आइडिया हैं लेकिन जेब में पैसे नहीं, फिर भी उन्हें कुछ कुछ काम मिल जाता है। हिमाचल प्रदेश के छोटे से गांव से हीरो बनने का सपना लेकर आए राम ठाकुर ने बताया, ‘जिनके पास टैलेंट है उनके पास पैसा नहीं है और जिनके पास पैसा है वे बिना टैलेंट के ही आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि फिल्ममेकर फिल्म बनाने के लिए आजकल पैसा देता कम है लेता ज्यादा है।‘
इस सड़क से सिर्फ 500 मीटर की दूरी पर स्थित लोखंडवाला सर्कल के पास बना कैफे कॉफी डे देर रात तक गुलजार रहता है और यहां पर जो भीड़ जमती है, वह उन कलाकारों की है जिन्हें पैसे की टेंशन नहीं। बस, वे अपने आपको सिल्वर स्क्रीन पर जमाने के लिए मीटिंग करते हैं। यह स्ट्रगलरों का मुंबई में प्रमुख अड्डा है। यहां पर सिर्फ हीरो- हीरोइन से निर्देशक पहली मुलाकात करते हैं बल्कि कई कहानियां भी हीरो-हीरोइनों को सुनाई जाती हैं। पृथ्वी थिएटर अगर मुंबई में सबसे खास कोई जगह है तो वह है पृथ्वी थिएटर। यहां पर रंगमंच, छोटे पर्दे बड़े पर्दे के बहुत सारे लोगों से रूबरू होने का मौका मिलता है। जुहू बीच से सटे इस थिएटर की मालकिन अब संजना कपूर हैं। यह ऐसी जगह है जिसे स्ट्रगलरों का एक बड़ा गढ़ माना जाता है। कोई मुंबई घूमने जाता है तो वह भले ही इस जगह नहीं पहुंच पाए लेकिन जब कोई स्ट्रगलर आता है तो उसे यहां का रास्ता भी नहीं पूछना पड़ता। यहां आकर बहुत से लोग अपनी भड़ास भी एक-दूसरे से निकालते हैं तो कुछ छोटा- मोटा काम भी यहां से हासिल कर लेते हैं। शाम को यह जगह मुंबई के लिहाज से किसी स्वर्ग से कम नहीं लगती। यहां पर हांकने वालों का एक पूरा ग्रुप बैठा रहता है जिसकी बातें सुनकर आपको यही लगेगा कि बस, उसी ने अमिताभ, शाहरुख जैसे कलाकारों को यह मुकाम दिलाया है। लेकिन भले ही ये सब यूं ही इधर-उधर की कितनी ही बात क्यों करें लेकिन मायानगरी में यह सुनना भी किसी दिलचस्प फिल्म देखने से कम नहीं होता।