डॉ. सुभद्रा राठौर,
बी-81, वीआईपी इस्टेट, खम्हारडीह, रायपुर (छत्तीसगढ़)
विज्ञान और विश्वास के अद्भुत मणिकांचनीय योग से पैदा हुई बरुण सखाजी की कृति ''परलोक में सैटेलाइट'' साहित्य जगत के साथ-साथ आम पाठक को भी अच्छी खासी दस्तक देती है। एक ओर ''परलोक'' है, जिसका संबंध मिथक से है, पौराणिक गल्प से है तो दूसरी ओर है ''सैटेलाइट'', जो विशुद्ध वैज्ञानिक युग की देन है। शीर्षक पर नजर फेरते ही तत्काल समझ में आ जाती है यह बात कि लेखक की दृष्टि सरल नहीं बंकिम है।आलोच्य कृति व्यंग्य है, जिसे हास्य की पांच तार की चासनी में खूब डुबोया, लपेटा गया है। व्यंग्य पितामह हरिशंकर परसाई की परंपरा के अनुपालक व ज्ञान चतुर्वेदी की शैली के परम भक्त सखाजी के भीतर विसंगतियों के प्रति भरपूर असहमतियां हैं। आक्रोश यह है कि मनुष्य अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनैतिक, मूल्यहीन, पापमय हो गया है। कहीं शुचिता नहीं, कहीं प्रतिबद्धता नहीं। मनुजता लुप्त हो रही है। क्यों? क्योंकि उसमें किसी भी प्रकार का भय नहीं रहा। इहलोक का सिस्टम उसके आगे पानी भरता है, उसमें इतनी कठोरता नहीं रह गई है कि वह मनुष्य को अनुशासित रख सके। ऐसे में एक सार्थक डंडे की तलाश है कृति, जिसका मंतव्य और गंतव्य मानुष-मन है, उसे झिंझोड़ा-जगाया जाए। कर्मफल के दर्शन को आधार बनाकर लेखक ने मानव समुदाय को ''परलोक'' दिखाते हुए वस्तुत: भविष्य के प्रति न सिर्फ सचेत किया है, वर्तमान को सुधारने का संदेश भी दिया है। खूबी यह है कि गहनतम संदेश गंभीर होकर भी बोझिल नहीं होता, पाठक को आद्यांत गुदगुदाते हुए लक्ष्य की ओर ले चलता है।
प्रारंभिक अंशों में साइंस-फिक्शन सा अहसास देते इस व्यंग्य उपन्यास का प्रसार पौराणिक कथा की भूमि पर होता है। लेखक ने अपने ''कंफर्ट जोन'' से प्लॉट का चयन किया है, उसकी चिर-परिचित भूमि है गरुड़ पुराण की। गरुड़ पुराण इसलिए माफिक था क्योंकि इसमें कर्मफल के अनुसार सुख-दुख भोगने के विधान वर्णित हैं। इसलिए ही लेखक का ''सैटेलाइट'' किसी अन्य धर्म के परलोक में गमन नहीं करता, भारतीय संस्कृति की डोर पकड़कर यमपुरी ही चला जाता है। पाठकों को प्रथम दृष्टया यह उपन्यास काल्पनिक प्रतीत होगा किंतु यह सुखद आश्चर्य है कि कल्पना की जमीन पर रोपी गई कथा में लेखक ने अपनी ही तरह का ''जादुई यथार्थवाद'' पैदा कर लिया है। कल्पना में भी मानवीय जीवन का घोर यथार्थ। यहां तक कि धरती में तो यथार्थ वर्णित है ही, परलोकवासियों के कृत्यों में भी धरतीवासियों के क्रियाकलाप, छल-छद्म पूरी सत्यता के साथ उकेरे गए हैं। समाज में व्याप्त कदाचार, भ्रष्टाचार, अनैतिक कार्य व्यापार, अधर्म, पापाचार पर तीखे कटाक्ष हैं यहां। राजनाति, समाज, धर्म, ज्योतिष, अर्थ, विज्ञान, पुलिस, प्रशासन, अफसरशाही, अवसरवादिता, प्रकृति, पर्यावरण, मीडिया, कानून, गांव, शहर, कौन-सा क्षेत्र छूटा? लेखक की टोही नजरें उन्हें देखती हैं, दिखाती हैं और कर्मदंड की भागी भी बनाती चलती हैं। उपन्यास में यत्र-तत्र संकेत हैं कि धरती पर पाप बढ़ गए हैं, फलत: स्वर्ग सूना-सूना सा है, यहां कोई आता ही नहीं। जबकि नरक में रेलमपेल है। पापकर्म अनुसार नरक में दी जाने वाली यातनाओं के दृश्य भी खूभ उभारे गए हैं ताकि पाठक को उनसे वितृष्णा हो। देखा जाए तो कृति का उद्देश्य सीधे तौर पर ''लोक शिक्षण'' ही है। लोक मानस यदि पापिष्ठ हो गया है, तो उसे यह भी समझना होगा कि ''जो जस करहिं सो तस फल चाखा''। धरती पर फैलने वाली नई-नई बीमारियों, आपदाओं, विपदाओं, कष्टों का कारक लेखक कर्म को ही बताता चलता है, नरक की भीड़ कम करने के लिए ऊपरवाले ने धरती को ही नरक बना देने की योजना बना ली है। ''जैसी करनी वैसी भरनी'' ही नहीं, जहां किया, वहीं भुगतो, यह भी।
उपन्यास की अंतर्वस्तु जितनी गंभीर है, उसका ताना-बाना उतना ही सरल-सहज और हल्का फुल्का है। कहें तो ''गुड़ लपेटी कुनैन''। शैली में रोचकता, चुटीलापन है; व्यंग्य इसका प्राण है तो हास्य देह। फलत: धीर-गंभीर विषय को भी पाठक सहज ही हंसता-मुस्कुराता गटकने को तत्पर हो जाता है, प्रारंभ से ही। लेखक हास्य का एक भी क्षण छोड़ने को तैयार नहीं, सदैव लपकने को तत्पर, ''मत चूको चौहान''। कठोर चट्टान को फाड़कर भी कुटज की तरह इठलाने को तैयार। उदाहरण के तौर पर वह दृश्य लीजिए, जहां धरती पर ही नाना प्रकार के कष्ट झेल आई गरीब की आत्मा को नरक की वैतरणी भी कहां कष्टप्रद लगती है, वह वैतरणी में भी चहक रही है। वैतरणी का मतलब तो खूब समझते हैं आप, वही नदी जिसे पार करने को प्रेमचंद का ''होरी'' जीते जी एक अदद गाय तक न खरीद सका था। वैतरणी अर्थात् खून, पीब, बाल, अस्थि, मज्जा और हिंसक जीव-जंतुओं से भरी वीभत्स नरक की नदी, जिसे पापी आत्मा को पार करना होता है। तो कृति में वह गरीब आत्मा इस वैतरणी को भी खुशी-खुशी पार कर रही है, कभी मगर की पीठ पर चढ़ जाती है, कभी उसकी पूंछ से ही खेलने लग जाती है। ऐसे स्थलों पर छलककर आता हास्य और व्यंग्य वस्तुत: हास्य-व्यंग्य से आगे बढ़कर करुण में तब्दील हो जाता है, अचानक और अनायास। वैसे, हास्य उपजाने में लेखक बेजोड़ है, कई बार आपको भ्रम होगा कि आप कहीं हास्य ही तो नहीं पढ़ रहे।
इस व्यंग्य कृति में एक ओर हास्य की विपुलता है तो दूसरी ओर गंभीर स्थलों की भी कमी नहीं है। यहां सूक्तियां हैं, तो कई प्रोक्तियां भी। जहां भी अवसर आया, लेखक पूरे धैर्य के साथ, ठहरकर चिंतन-मनन करता दीख पड़ता है। संदर्भों, अर्थों, भावों को सहेजे यह अंश सूझ-विवेक से भरे हुए हैं। धर्म पर कटाक्ष करते हुए लेखक का यह कथन देखिए- ''धर्म की यही विकलांगता है, यह अजीब है। जो नहीं मानता, वो नहीं मानता, मगर वो भी मानता है। यानी जो नास्तिक है, वह भी आस्तिक है और जो आस्तिक है वह तो आस्तिक है ही''। इसी प्रकार यह कथन भी गूढ़ संदेशों के साथ आकर्षित करता है- ''जब सफलता मिलती है तो वह अपने साथ मद मस्ती भी लोटाभर लेकर आती है। जब असफलता आती है तो अपने प्रहार से आत्मबल को रगड़ती है तो सतर्क भी करती है''।
कृति की भाषा सहज-सरल, ग्राह्य अर्थात् आमफहम है। भाषा में, कहन में एक रवानी है, गति है। भाषा कथा के लिए सप्रयास जुटाई गई हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। बोलचाल की भाषा है, फलत: इस दौर की हिंदी, जिसमें अंग्रेजी के शब्द बहुतायत में आ गए हैं, लेखक ने उसे अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। कुछ शब्द व्यंग्य और हास्य के बहाव में डूबते-उतराते लेखक ने खुद ही गढ़ लिए हैं, जो फुलझडियां ही बिखेरते हैं। यथा- ''अनयकीनेबल'', ''अप्सराईजेशन''। इसी तरह हिंदी-अंग्रेजी के ''स्लो मौत'' जैसे संकर प्रयोग भी भाषा को चमक ही देते हैं, अवरोध नहीं बनते। हां, कथारंभ में पाठक को आंचलिकता के दर्शन अवश्य होंगे, जहां रामसेवक और अन्ना जैसे पात्र बुंदेली बोलते नजर आएंगे। यह आंचलिकता भी रोचक है, पात्रानुकूल है और अर्थ में किसी प्रकार की बाधा भी उत्पन्न नहीं करती। चूंकि बुंदेली हिंदी की ही बोली है, सहज समझ में आती है।
कुल मिलाकर, कैसी है सखाजी की यह रचना? कथानक की दृष्टि से देखें तो कथावस्तु अच्छी है, रोचक है। उद्देश्य भी ऊंचा है। कथा की बनावट-बुनावट भी ठीक है, यह अवश्य है कि इसे शत-प्रतिशत अंक दिया जाना भले ही संभव नहीं है, पर लेखक की तारीफ की जानी चाहिए इसलिए कि उसमें संभावनाएं परिलक्षित हो रही हैं। ''पूत के पांव पालने में''। पहली ही कृति है, पूर्णता की अपेक्षा करना बेमानी होगी, किंतु लेखक में क्षमता है कि वह पूरी सुगठता और कसाव के साथ ऐसी कई कृतियों को आगे भी जन्म दे सकेगा। लेखन में प्रकृति झांक रही है, अकृत्रिमता का यह गुण अच्छी कृति की पूर्वपीठिका बनेगा। देश को, समाज को तीखी और तिरछी नजर की बेतरह आवश्यकता है, जो उसकी चीर-फाड़ करे, पड़ताल करे, उसकी खामियों को उजागर करे और तिलमिला देने वाली वाणी से जगा सके। सन्मार्ग दिखाने के लिए अभी कई कबीर अपेक्षित हैं, सखाजी का मानव-समाज में स्वागत है, वे ऊंघते-उनींदे मानुष को जाग्रत करें। हमारी शुभकामनाएं।
29.5.15
परलोक में सैटेलाइट: एक विहंगम दृश्य
27.5.15
में क्षमा चाहुगा की मैंने बहुत दिनों से नहीं लिखा पर अब शायद लगता है लिखना चाहिए ये हमारा दायित्य है
26.5.15
मोदी के एक साल बनाम सौ दिन के केजरीवाल
मित्रों,दूसरी तरफ दिल्ली में केजरीवाल सरकार के सौ दिन भी दो-तीन दिन में ही पूरे हो जाएंगे। जहाँ नरेंद्र मोदी ने शपथ-ग्रहण से पहले ही काम करना शुरू कर दिया था वहीं दिल्ली में केजरीवाल सरकार के काम शुरू करने का अभी भी इंतजार हो रहा है। हम यह तो नहीं कह सकते कि मोदी सरकार ने एक साल में ही उतना काम कर दिया है जितना कि उसको 5 साल में करना था लेकिन हम यह जरूर दावे के साथ कह सकते हैं कि मोदी सरकार ने पिछले एक साल में उतना काम तो जरूर किया है जितना कि एक साल में कर पाना किसी भी सरकार के लिए संभव था और जब आगाज अच्छा होता है तो अंजाम भी अच्छा ही होता है।
मित्रों,आपको याद होगा कि मोदी सरकार ने पहला फैसला लिया था कालाधन पर एसआईटी के गठन का। फिर भारत के इतिहास में पहली बार मेक इन इंडिया अभियान का आगाज किया गया । फिर लाई गई प्रधानमंत्री जनधन योजना और तत्पश्चात् एलपीजी सब्सिडी को सीधे ग्राहकों के खातों में डालने की शुरुआत की गई। और अब लाई गई है 12 रुपये सालाना वाली लाजवाब प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना एवं प्रधानमंत्री जीवन सुरक्षा बीमा योजना । आगे उम्मीद की जानी चाहिए सारी सब्सिडी आधारित योजनाओं की सब्सिडी सीधे लाभान्वितों के खातों में डाल दी जाएगी और इस तरह दिल्ली से चला 1 रुपये में से 1 रुपया ही लाभुकों तक पहुँचेगा न कि 15 पैसे। इसी तरह ऐसी उम्मीद भी की जानी चाहिए कि निकट-भविष्य में पूरी सरकार हमारे मोबाईल में होगी,हमारी मुट्ठी में होगी। सबकुछ ऑटोमैटिक, न तो रिश्वत देनी पड़ेगी और न ही टेबुल-टेबुल दौड़ना ही पड़ेगा। जहाँ तक कालेधन का सवाल है तो संस्कृत का एक श्लोक तो आपने पढ़ा ही होगा कि पुस्तकेषु तु या विद्या परहस्तगतं धनं। आपतकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनमं।। इसलिए अगर मोदी सरकार देसी-विदेशी कालाधन के निर्माण पर ही रोक लगा दे तो देश का कायाकल्प हो जाएगा। इसके लिए आयकर विभाग को चुस्त-दुरूस्त बनाना होगा और आयकर अधिकारियों की सम्पत्ति की जाँच करवानी होगी और कदाचित सरकार ऐसा करेगी भी। इसके साथ ही कृषि को लाभकारी बनाने की दिशा में भी कई योजनाएँ बनाई जा रही हैं जिनको जल्दी ही लागू किया जाएगा। अगर भारत को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में लाना है तो हमें कृषि को लाभकारी बनाने के साथ-साथ कृषि पर से जनसंख्या के भार को भी कम करना होगा और मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना मेक इन इंडिया इसी दिशा में किया जा रहा सार्थक प्रयास है।
मित्रों,जहाँ सोनिया-मनमोहन-राहुल की सरकार इसलिए चर्चा में रहती थी क्योंकि उसमें रोज ही कोई-न-कोई घोटाला होता था वहीं आज विपक्ष शोर मचा रहा है सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी के कपड़ों को लेकर। बेचारे करें तो क्या करें सरकार के खिलाफ और कोई मुद्दा मिल भी तो नहीं रहा। हल्ला भी एक ऐसे नेता के कपड़ों को लेकर किया जा रहा है जो हर साल अपने कपड़ों की नीलामी का आयोजन करता है और उससे होनेवाली आय को हर साल सरकारी खजाने में जमा कर देता है। भारत के किसी भी अन्य नेता ने कभी ऐसा किया था क्या?
मित्रों,एक और कारण से मोदी सरकार के खिलाफ हल्ला मचाया जा रहा है और वह है भूमि अधिग्रहण बिल। आरोप लगाया जा रहा है कि मोदी सरकार किसान-विरोधी है और किसानों की जमीनों को छीनकर राबर्ट वाड्राओं और जिंदलों को सौंप देगी। आश्चर्य तो इस बात को लेकर है कि आरोप लगानेवाले वही लोग हैं जिन्होंने पिछले 50 सालों में किसानों की जमीनों को मनमानी शर्तों पर बिना कुछ दिए छीनने का काम किया है और वाड्राओं और जिंदलों को देने का काम किया है। केंद्र सरकार आश्वस्त कर रही है कि अधिगृहित भूमि सरकार के पास ही रहेगी,पहली बार प्रभावित किसानों को चार गुना मुआवजा दिया जाएगा और देश के इतिहास में पहली बार नौकरी भी दी जाएगी फिर भी चोर शोर मचा रहे हैं। वास्तव में ये लोग चाहते ही नहीं हैं कि देश का विकास हो और इनक्रेडिबल इंडिया वास्तव में इनक्रेडिबल इंडिया बने। नई सड़कों,नए उद्योगों,पावर-प्लांटों,रेलवे-लाइनों के लिए जमीन के अधिग्रहण की आवश्यकता है और विपक्ष नहीं चाहता कि मोदी सरकार भारत की आधारभूत संरचना का विकास करे,भारत को उत्पादन में,जीडीपी में दुनिया में नंबर एक बनाए जैसे कि भारत 1813 ईस्वी तक था। हम उम्मीद करते हैं कि चालू वित्त वर्ष में मोदी सरकार बहुत जल्दी किसी-न-किसी तरह भूमि अधिग्रहण बिल को संसद से पारित करवा लेगी और वास्तविक भारत के निर्माण की दिशा में रॉकेट की गति से अग्रसर होगी। मोदी सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि चाहे उनका मूलमंत्र सबका साथ सबका विकास कितना ही पवित्र क्यों न हो उनके मार्ग में,यज्ञ में राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों स्तर पर कुछ राहु(ल)-केतु हमेशा विघ्न डालते ही रहेंगे।
मित्रों,अब बात करते हैं राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में सौ दिन पूरे करनेवाली केजरीवाल सरकार की जिसने वेलेन्टाईन दिवस को पदभार संभाला था। पिछले सौ दिनों अगर इस सरकार ने कुछ किया है तो बस रायता फैलाने का काम किया है। पहले आपस में ही झगड़ने का काम किया और अब संविधान और केंद्र सरकार से झगड़ा कर रही है। हमने विधानसभा चुनावों के समय दिल्ली की जनता को इसकी बाबत सचेत भी किया था लेकिन जनता ने हमारी नहीं सुनी और एक ऐसी सरकार चुनी जो सरकार है ही नहीं बल्कि अराजकतावादियों का जमघट है फर्जी डिग्रीवाले फर्जी लोगों की भीड़ है। जिसके लिए कसमें वादे प्यार वफा सब बातें हैं और बातों का क्या! केजरी सर के लिए न तो कसमों का कोई मोल है,न ही पुराने साथियों का और न तो चुनावी वादों का ही। केजरी बाबू तो यही चाहते हैं कि उनके मन-मुताबिक फिर से भारत के संविधान का निर्माण हो जिसके अनुसार राबर्ट मुगाबे,किंग जोंग इल या सद्दाम हुसैन के चुनावों की तरह प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति पद के लिए सीधा चुनाव हो और उस चुनाव में राबर्ट मुगाबे,किंग जोंग इल या सद्दाम हुसैन के चुनावों की तरह केवल केजरी सर ही उम्मीदवार हों।
(हाजीपुर टाईम्स पर प्रकाशित)
19.5.15
कलम से..: लव जिहाद और आईने का सच (कहानी) - सुधीर मौर्य
17.5.15
White Mulberry
है। इसकी पत्तियों में कई महत्वपूर्ण पोषक तत्व, विटामिन और खनिज जैसे बीटा-केरोटीन, गाबा-1, अमाइनो एसिड्स, क्लोरोफिल, विटामिन सी, बी-1, बी-2, बी-6, ए और फाइबर होते हैं।
मलबेरी के फायदे
- डायबिटीज - चाइनीज मेडीसिन में मलबेरी डायबिटीज की अहम दवा मानी गई है। इसमें डी एन जे (1-Deoxynojirimycin) नामक तत्व होता है, जो कार्बोहाइड्रेट को पचाने वाले अल्फा-ग्लूकोसाइडेज को निष्क्रिय करता है। जिससे स्टार्च और कार्ब का पाचन धीमा पड़ जाता है और खाने के बाद ब्लड शुगर एक दम से नहीं बढ़ती। यह तत्व सिर्फ शहतूत में ही होता है। डी एन जे की संरचना ग्लूकोज से हू बहू मिलती है, बस इसके अणु में ऑक्सीजन की जगह नाइट्रोजन होती है। जब हम डाइसेकेराइड शर्करा का सेवन करते हैं तो उसका तुरंत विघटन हो कर ग्लूकोज में परिवर्तित होने लगती है। लेकिन यदि हम DNJ का सेवन करते हैं तो ग्लूकोज की जगह DNJ का अवशोषण होने लगता है क्योंकि यह ग्लूकोज से बिलकुल मिलती जुलती होती है। और ग्लूकोज आंत में ही रह जाती है और बिना पचे मल के साथ विसर्जित हो जाती है।
- यह इम्युनिटी बढ़ाती है और कैंसर में फायदा पहुँचाती है।
- रक्त, लीवर और किडनी का शोधन करती है।
- कॉलेस्टेरोल कम करती है और हृदय के लिए हितकारी है।
- त्वचा का नवेला रखती है और रंग रूप में निखार लाती है।
- केश घने और काले बने रहते हैं।
M.B.B.S., M.R.S.H.(London)
7-B-43, Mahaveer Nagar III, Kota Raj.
http://flaxindia.blogspot.in
Email- dropvermaji@gmail.com
+919460816360
16.5.15
कलम से..: खूबसूरत अंजलि उर्फ़ बदसूरत लड़की की कहानी - सुधीर ...
White Mulberry
से ढाई गुना और पालक से 10 गुना आयरन होता है। 100 ग्राम मलबरी की सूखी पत्तियों में 230 मिलिग्राम गामा अमाइनो एसिड (जो ब्लड प्रेशर कम करता है) और 46 ग्राम साइटोस्टेरोल होता है जो कॉलेस्टेरोल कम करता है।इसमें उत्कृष्ट एंटीऑक्सीडेंट रेसवेराट्रोल (जो अंगूर में पाया जाता है), एंथोसायनिन, फ्लेवोनॉयड, ल्यूटिन, जियाजेंथिन, बी केरोटीन और ए केरोटीन पर्याप्त मात्रा में होते हैं।
- डायबिटीज - चाइनीज मेडीसिन में मलबेरी डायबिटीज की अहम दवा मानी गई है। इसमें डी एन जे (1-Deoxynojirimycin) नामक तत्व होता है, जो कार्बोहाइड्रेट को पचाने वाले अल्फा-ग्लूकोसाइडेज को निष्क्रिय करता है। जिससे स्टार्च और कार्ब का पाचन धीमा पड़ जाता है और खाने के बाद ब्लड शुगर एक दम से नहीं बढ़ती। यह तत्व सिर्फ शहतूत में ही होता है। डी एन जे की संरचना ग्लूकोज से हू बहू मिलती है, बस इसके अणु में ऑक्सीजन की जगह नाइट्रोजन होती है। जब हम डाइसेकेराइड शर्करा का सेवन करते हैं तो उसका तुरंत विघटन हो कर ग्लूकोज में परिवर्तित होने लगती है। लेकिन यदि हम DNJ का सेवन करते हैं तो ग्लूकोज की जगह DNJ का अवशोषण होने लगता है क्योंकि यह ग्लूकोज से बिलकुल मिलती जुलती होती है। और ग्लूकोज आंत में ही रह जाती है और बिना पचे मल के साथ विसर्जित हो जाती है।
- यह इम्युनिटी बढ़ाती है और कैंसर में फायदा पहुँचाती है।
- रक्त, लीवर और किडनी का शोधन करती है।
- कॉलेस्टेरोल कम करती है और हृदय के लिए हितकारी है।
- त्वचा का नवेला रखती है और रंग रूप में निखार लाती है।
- केश घने और काले बने रहते हैं।
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7-B-43, Mahaveer Nagar III, Kota Raj.
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15.5.15
स्मार्ट वर्क चाहिए अफसर नहीं
हमें स्मार्ट सिटी चाहिए, स्मार्ट सरकार, स्मार्ट कार्ड, स्मार्ट फोन, स्मार्ट पत्नी, स्मार्ट क्लास और स्मार्ट टीवी समेत और भी न जाने क्या-क्या स्मार्ट चाहिए। मगर अफसर वही चाहिए। सफारी सूट या तपती धूप में भी गलेबंद टाई, सूट में कैद कांख में फाइल दबाए कोई मुनीम सा। ऐसा क्यों?
छत्तीसगढ़ कैडर के आईएएस अफसर और जगदलपुर के जिला कलक्टर अमित कटारिया से राज्य सरकार ने सिविल सर्विस के सिविल कोड की किसी अ, ब, स, द धारा के उपबंध ढिमका के तहत फलां के उल्लंघन का दोषी मानते हुए जवाब तलब किया है। अफसर की चूक सिर्फ इतनी है कि उसने प्रधानमंत्री से मिलते वक्त ब्रांडेड चश्मा और रंगीन चटक शर्ट पहन रखी थी। बेचारे कमअकल अफसर ने भारत की आम आदमी की पहचान बांह से फटी शर्ट नहीं पहनी, अस्पतालों में मिलने वाला मोतियाबिंद ऑपरेशन वाला चश्मा नहीं लगाया था। मोदी के दो घंटे के कार्यक्रम में दो शर्ट भी बदल ली थी। इसलिए अफसर बहुत दोषी है।
न जाने क्यों ये देश नंगों पर ही भरोसा करता है। बाबा, वैराग्य के चोले को ही क्यों मान्यता देता है। हाथी पर बैठकर भीख मांगने वाले को क्यों संत कहता है और पैदल चलकर तल्ख धूप में सब्जी बेचने वाले को ठग्गू क्यों मानता है।
इक्कसवीं सदी में प्रधानमंत्री के सूट पर बवाल, अफसर के ब्रांडेड चश्मे पर सवाल गले में फंस जाते हैं। क्या इस देश को गंगा किनारे के पंडा चलाएं, जो पहनें तो भरोसे का प्रतीक भगवा, मगर ठगी में चंबल के डाकुओं के बाप हों। क्यों किसी अफसर को हम भिनका सा ही देखना चाहते हैं। क्या छत्तीसगढ़ में ही ऐसे अफसर नहीं हैं, जो अरबों की संपत्ति के मालिक हैं, जिनके पैसे स्विस बैंक में जमा हैं। दुबई में इंटरनेशनल कंपनी में भागीदारी है। कइयों मंत्रियों की अकूत संपदा देश-विदेश में है। नसबंदी कांड के दोषी मंत्री अमर अग्रवाल के दामादों की दवा कंपनियों के ही कितने ठेके राज्य के स्वास्थ्य विभाग में हैं। लेकिन वे सामान्य खादी का कुर्ता पहनते हैं, इसलिए हमें ऐतराज नहीं। वे सामान्य पोशाक में आते हैं तो हमें दिक्कत नहीं है। बस कोई स्टाइल में नजर न आए। मजे की बात तो ये है कि समकक्ष और वरिष्ठ अफसर तो वेतन वृद्धि तक रोकने की बात कह रहे हैं। अमित कटारिया कोई दूध के धुले नहीं हैं। मगर इस मामले में आम आदमी उनके साथ है। ऐसे तो युवा अफसर लाॅबी डिमॅरलाइज हो जाएगी। जरा मुक्त रखिए इन्हें बकवासों से। कितने ऊर्जावान हैं छत्तीसगढ़ के युवा अफसर ओमप्रकाश चौधरी, अमित कटारिया, सारांश मित्तर, रजत कुमार, किरण कौशल, सिद्धार्थ कोमल परदेशी। इन्हें यूं डिमॅरलाज न कीजिए।
-सखाजी
''परलोक में सैटेलाइट'' की समीक्षा
व्यंग्य उपन्यास ''परलोक में सैटेलाइट'' हास्य व्यंग्य का जीवंत नायक है। इसके जरिए लेखक ने समाज के हर वर्ग को संबोधित किया है। गहन विज्ञान और मनोविज्ञान का इस्तेमाल नजर आता है। कथानक की शुरुआत ही बुंदेलखंड के एक ऐसे पात्र से होती है, जो अपनी कुर्सी बचाने और उसे जस्टीफाई करने के लिए अपने मातहतों को तौलता रहता है। व्यंग्य सरकारी दफ्तरान में ''साहबवाद'' को भी एड्रेस करता है। सबसे मौजू और महत्वपूर्ण व्यंग्य के भीतर छुपा वह विचार है, जिसमें लेखक दुनियाभर की स्पेस एजेंसियों के अलग-अलग मिशनों पर कटाक्ष करता है। वह यहां सार्वभौमवाद जैसे अतिगंभीर टाॅपिक पर भी पाठक से वार्तालाप सा करता हुआ हास्य अंदाज में चर्चा करता है।
भूखे देश में अरबों रुपये विफल सैटेलाइट पर खर्चने के बाद स्पेस एजेंसी के डायरेक्टर की राजनैतिक खुरफातों का व्यंग्य में जीवंत चित्रण है। गंभीर से गंभीर बात बेहद सरल और हास्य के जरिए ऐसे कर दी गई है, जैसे पाठक से आमने-सामने तादातम्य बिठाकर बात की जा रही हो।
सैटेलाइट का परलोक से दृश्य भेजना। पृथ्वी के मानव समाज की प्रतिक्रियात्मकता अद्भुत है। कई बातें ऐसी हैं, जिनकी बहुत ढंग से व्याख्या की जा सकती है। कई नये शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। मुद्दों पर विस्तृत राय है।
व्यंग्य दो कारणों से जरूर पढ़े। पहला तो एक संपूर्ण व्यंग्य, जहां कहीं भी आपको गंभीर होने की जरूरत नहीं और एक बार भी बचकाना या हल्कापन नहीं लगेगा। दूसरा कारण इसकी शैली है। पाठक को कहीं भी उलझना नहीं पड़ता। एक पैरा सवाल खड़ा करता तो दूसरा ही पैरा जवाब दे देता है।
व्यंग्य की दो खामियां भी हैं। पहली तो यह अश्लील गालियों से गुरेज नहीं करता दूसरी इसमें किसी तरह की व्यावसायिकता की परवाह नहीं की गई। इससे प्रकाशक खोजने में दिक्कत हुई। वहीं इतनी स्पष्टवादिता बरती गई है, कि कोई भी सरकारी पुस्तकालय इस विस्फोटक को अपने यहां रखने से भी गुरेज कर रहा है।
12.5.15
10.5.15
Book Review- Half Girlfriend
9.5.15
आज मेरे पास न बंगला है, न गाड़ी है, न बैंक बैंलेन्स है और न माँ है
मित्रों,बचपन में मैं भी अंधेरे से बहुत डरता था। डरकर आँखें बंदकर लेता और माँ के सीने से चिपक जाता। सोंचता कि चाहे कोई भी संकट हो मेरी माँ उस संकट को खुद पर झेल लेगी लेकिन मुझे बचा लेगी। जब भी बीमार होता और माँ एक मिनट के लिए भी आँखों से ओझल हो जाती तो छटपटाने लगता ठीक वैसे ही जैसे पानी से बाहर निकाल देने पर मछली छटपटाने लगती है। मेरी माँ ने मुझे दूध पिलाकर नहीं बल्कि अपना खून पिलाकर पाला। कुछ बड़ा हुआ तो देखा कि घर-परिवार के मामलों के चलते माँ-पिताजी में झगड़ा अक्सर झगड़ा होता। मैंने कभी पिताजी का पक्ष नहीं लिया बल्कि हमेशा माँ का पक्ष लिया। हाँ,एक मुद्दे पर मैंने कभी माँ का समर्थन नहीं किया और वो मुद्दा था दो नंबर के पैसे का मुद्दा। मेरी माँ को न जाने क्यों एक नंबर के पैसों से ज्यादा दो नंबर के पैसों से प्यार था। वो हमेशा पिताजी को गलत तरीके से पैसे कमाने के लिए उकसाती लेकिन तब तक मैं पिताजी की ही तरह आदर्शवादी हो चुका था और हमेशा कहता कि नहीं माँ पिताजी ठीक कर रहे हैं। भले ही मेरे पाँव में चप्पल हो या नहीं,मेरे जिस्म पर अच्छे कपड़े नहीं हों,होली में पुराने कपड़ों से काम चलाना पड़े,सिर्फ पर्व-त्योहारों में मिठाई खाने को मिले लेकिन मुझे अपने पिता के आदर्शवाद पर तब भी गर्व था और आज भी है।
मित्रों,जब 1982 में मेरा हाथ टूटा तो मुझसे ज्यादा दर्द मेरी माँ को हुआ,जब 1991 में मैंने माँ से अंतिम विदा ले ली और उसके पैरों पर सर पटककर फिल्मी स्टाईल में बेहोश हो गया तब मेरी माँ पागलों की तरह जहर खोज रही थी। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि आज माँ दीवार फिल्म के रवि को छोड़कर विजय के घर जा बैठी है। साथ ही,साथ न देने पर आत्महत्या कर लेने की धमकी देकर मेरे पिताजी को भी साथ ले गई है। उसी पिताजी को जो कभी मुझसे एक दिन भी दूर नहीं रह पाते थे और ऐसा होने पर उनकी हालत अयोध्यापति दशरथ जैसी हो जाती थी। उसी पिताजी को जो मुझसे फोन पर बात करते-करते रोने लगते थे। मैं तो राम बन गया लेकिन अब कौशल्या और दशरथ को कहाँ से लाऊँ।
मित्रों,जो माँ कभी मेरे ऊपर तीनों लोक न्योछावर करती थी मेरी शादी के बाद वो क्यों मेरे सुख में सुख और मेरे दुःख में दुःख का अनुभव नहीं करती? क्यों जब भी मैं ससुराल पत्नी से मिलने जाता तो मेरी माँ कहती कि दिन रहते जाओ और शाम होने से पहले वापस आ जाओ? क्यों मेरी माँ मेरी शादी के बाद मुझे एक मिठाई या एक मैगी खाते हुए भी नहीं देखना चाहती? मैं तो हमेशा वही करता रहा जो करने के लिए उसने कहा फिर आज वो क्यों मुझे देखना तक नहीं चाहती? क्या इसलिए क्योंकि मेरी माँ मुझे अब बेटा नहीं अपना गुलाम मानने लगी है? क्या इसलिए क्योंकि मेरी माँ को अपने पैसों का घमंड हो गया है? क्या इसलिए क्योंकि मेरी माँ नहीं चाहती थी कि मैं अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँ और उसकी गुलामी से मुक्त हो जाऊँ? क्या इसलिए क्योंकि मैं आज भी सच बोलता हूँ और प्यार का झूठा दिखावा नहीं करता बल्कि जो सच लगता है वही बोल देता हूँ? क्या इसलिए नहीं क्योंकि मेरी माँ का मानना था कि उसके पास पैसा रहेगा तो थक-हारकर बेटे-बहू की हाँ-में-हाँ मिलायेंगे ही और मैं जान दे सकता हूँ लेकिन हाँ-में-हाँ नहीं मिला सकता और तब तो हरगिज नहीं जब असत्यभाषण किया जा रहा हो या किसी तरह के अभिमान का प्रदर्शन किया जा रहा हो। मुझे याद है कि वर्ष 2007-08 में मेरी माँ के ऐसा कहने पर कि उसके पास पैसा होगा तो झक मारकर बहू प्यार करेगी ही मेरी छोटी बहन रूबी ने उसे चेताया था कि ऐसा नहीं होता है और नहीं होगा बल्कि कोई भी बहू व्यवहार को देखकर सास को पूजती है पैसे को देखकर नहीं।
मित्रों,यह सही है कि आज मैं अंधेरों से नहीं डरता बल्कि इंसानों के मन का अंधेरा मिटाने की कोशिश कर रहा हूँ। यह भी सही है कुछ ही दिनों में मेरे कारोबार से पैसा आना शुरू हो जाएगा लेकिन फिर भी माँ की कमी तो हमेशा रहेगी। आज भले ही रवि के पास बंगला, गाड़ी और बैंक बैंलेन्स नहीं है लेकिन कल होगा जरूर लेकिन शायद तब भी उसके पास माँ नहीं होगी और न ही पिताजी होंगे क्योंकि उन दोनों को विजय की झूठ,फरेब और धोखे की दुनिया कहीं ज्यादा रास आ रही है।
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
7.5.15
आपका कानून और आपकी अदालत आज भी अमीरों की रखैल है,मी लॉर्ड!
मित्रों,हम सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दत्तू साहब के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने 27 नवंबर,2014 को बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार किया कि भारत की न्याय-प्रणाली गरीब और कमजोरविरोधी है लेकिन हमें 13 फरवरी,2015 को यह देखकर तब भारी दुःख हुआ जब इन्हीं दत्तू साहब की खंडपीठ ने तीस्ता शीतलवाड़ को जेल जाने से बचाने के लिए कपिल सिब्बल से फोन पर बात करने के दौरान ही फोन पर ही याचिका स्वीकार करते हुए फोन पर ही यह आदेश सुना दिया कि तीस्ता शीतलवाड़ की गिरफ्तारी पर हम रोक लगाते हैं।
मित्रों,दत्तू साहब ने न्यायपालिका की बीमारी तो बता दी लेकिन किया वही जिसको करने से बीमार की हालत और भी गंभीर होती हो। सवाल उठता है कि जब चीफ जस्टिस का रवैया ऐसा है तो कौन करेगा न्यायपालिका का ईलाज? कौन न्याय-प्रणाली को कमजोर और गरीबपरस्त बनाएगा।
मित्रों,इसी तरह कल भी वॉलीबुड अभिनेता सलमान खान को सजा मिलने के चंद घंटों के भीतर ही बंबई हाईकोर्ट ने याचिका स्वीकार करके,सुनवाई करके जमानत दे दी। सजा मिलने में जहाँ 13 साल लग गए वहीं जमानत मिलने में 13 घंटे भी नहीं लगे। सवाल उठता है कि देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जो 11 लाख मुकदमे लंबित हैं उनपर भी इसी तरह तात्कालिकता क्यों नहीं दिखाई जाती? क्यों एक आम आदमी को दशकों तक कहा जाता है कि अभी आपके मुकदमें का नंबर नहीं आया है और किसी रसूखदार लालू,माया,तीस्ता या सलमान के मामले की सुनवाई तमाम लाइनों को तोड़कर तत्काल कर ली जाती है?
मित्रों,कल जब सलमान खान को सजा सुनाई गई तो हमें खुशी हुई कि आखिर अदालत ने 13 साल की देरी के बाद भी यह तो साबित कर ही दिया कि कानून के समक्ष क्या अमीर क्या गरीब,क्या रामदेव और क्या रमुआ सभी एक समान हैं लेकिन कुछ ही घंटों के बाद हाईकोर्ट ने हमारे सभी भ्रमों को तोड़ते हुए गांधी जी द्वारा एक शताब्दी पहले की गई शिकायत को ही उचित ठहरा दिया। सवाल उठता है कि ऐसा कब तक चलेगा? कब तक पुलिस,सीबीआई,कानून और अदालतें चांदी के सिक्कों की खनखनाहट पर थिरकते रहेंगे? कब और कैसे कानून और अदालतें गरीबपरस्त होंगे? शायद कभी नहीं!!!
(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
4.5.15
बुद्ध महापरिनिर्वाण स्थल कुशी आज भी उपेक्षित
बुद्ध पूर्णिमा पर विशेष
--बुद्ध महापरिनिर्वाण स्थल कसियां नहीं, कुसी
जानकारों का कहना है कि उतर प्रदेश के देविरया जिले में जो किसया नामक स्थान है, वहां बुद्ध ने कसाय वस्त्र (संन्यासियों का वस्त्र) धारण किया था. इस किसया के वर्चस्व के तहत कुशीनगर बताते हुए बुद्ध महापरिनिर्वाण स्थल के रू प में मान्यता दे दी गयी. बताते चलें कि उस समय भी किसया को कुशीनगर मानने का मामला विद्वानों ने उठाया था, किंतु उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे. उत्तर प्रदेश के सांसदों का वर्चस्व था. दूसरी तरफ, बिहार के सांसदों को जानकारी की कमी थी. विदेह विशला ऐतिहासिक शोध प्रतिष्ठान का चतुर्थ वार्षिक अधिवेशन, जो 1983 में कुशी (मुजफ्फरपुर) में सम्पन्न हुआ था के प्रस्तावना के अंश में किसया कुशी नहीं का प्रश्न उठाया गया था. यह प्रश्न स्व. परमानंद शास्त्री जो कि आर्यावर्त हिन्दी दैनिक पत्र में ‘चुटकुलानंद की चिट्ठी’ के नाम से स्थायी स्तंभ लिखते थे ने वर्ष 1ृ962 के मई महीने में उठाया था. इस तथ्य को संपुष्ट करते हुए इतिहासकार श्रीमती विद्या चौधरी ने बताया कि बौद्ध साहित्य के अनुसार कुशीनारा कुशी कांटी ही है. उतर प्रदेश के देवरिया जिले में जो किसया नहीं वर्तमान में किसया भी जिला बन चुका है. पुरातत्ववेत्ता सह इतिहासकार विंदेश्वर शर्मा हिमांशु ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि यदि वैशाली अपनी जगह ठीक है. बुद्ध परिनिर्वाण विवरणी ठीक है और वैशाली से पावा कुशीनारा जाने का वृतांत भी सही है, तो वैशाली से कुशीनारा की यात्र एक दिन में गम्य है. यह वही कुशी (कांटी) है. अगर कुशी किसया (देवरिया जिला) उतर प्रदेश में है, तो यह वैशाली नहीं कोई दूसरी वैशाली होगी. इतिहासकार सच्चिदानंद चौधरी बताते हैं कि परिनिर्वाण यात्र पथ में बुद्ध के ठहराव उनकी अवस्था वैशाली से कुशी की दूरी समय भौगोलिक स्थिति चुंद लुहार का घर (जहां बुद्ध ने अंतिम भोजन किया था) आदि से पता चलता है कि बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के कांटी रेलवे स्टेशन से सटा गांव कुशी ही है बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल है. श्री चौधरी का कहना है कि ऐतिहासिक साक्ष्य बदल सकते हैं, लेकिन भौगोलिक नहीं बदलते हैं.
जानकार बताते हैं कि महापरिनिर्वाण के समय बुद्ध की अवस्था 80 वर्ष की थी. वे अतिसार रोग से पीड़ित थे. वैशाली से कुशी (कांटी) की दूरी 22 किलोमीटर है तथा वैशाली से कुशीनगर उतर प्रदेश की दूरी 139 किलोमीटर है. अब प्रश्न उठता है कि क्या एक 80 वर्ष का व्यक्ति जो अतिसार रोग से पीड़ित है एक दिन में 139 किमी की यात्र पैदल तय कर सकता है ? संभवत: नहीं. लेकिन 22 किमी की यात्र पैदल तय की जा सकती है.
खुदाई में मिले थे 148 पुरातात्विक अवशेष
वर्ष 1987 में ’ह्वेयर बुद्धा डायड’ के लेखक सूर्यदेव ठाकुर और मुजफफरपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी देवाशीष गुप्त के अथक प्रयास से खुदाई में 148 पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई थी, जिसके महत्व को सार्वजनिक नहीं किया गया. सूर्यदेव ठाकुर का असामयिक निधन हो जाने के कारण बुद्व महापरिनिर्वाण स्थल के अभियान की गतिविधि मंद पड़ गयीं. साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था नूतन साहित्यकार परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष चंद्रभूषण सिंह चंद्र कुशीहरपुर रमणी गांव स्थित मध्य विद्यालय में वर्ष 2005 में प्रधानाघ्यापक के पद नियुक्त हुए. वर्ष 2007 में विद्यालय भवन निर्माण के लिए जब मजदूर नींव की खुदाई कर रहे थे, तो उसमें से नौ मृद्घट और अनेक पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई थी. इसकी सूचना प्रधानाध्यापक चंद्रभूषण सिंह चंद्र ने आयुक्त, डीएम व इतिहासकारों को दी. स्थानीय नूतन साहित्यकार परिषद् का मानना है कि इससे न केवल मुजफ्फरपुर, बल्कि बिहार एक बड़े पर्यटक स्थल के रूप में स्थापित होगा. आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक रूप में कुशी(कांटी) पूरे विश्व में जाना जायेगा. इस पुनीत कार्य में नूतन साहित्यकार परिषद् के अध्यक्ष चंद्रभूषण सिंह चंद्र तन मन और धन से लगे हैं. इनके सहयोगियों में पूर्व मुखिया उमेश्वर ठाकुर, पिनाकी झा, शिक्षाविद् स्वराजलाल ठाकुर, समाजशास्त्री मनोज कुमार वत्स, परमानंद ठाकुर आदि के नाम शामिल हैं. इतने साक्ष्यों के बावजूद कुशी (थाना-कांटी, जिला-मुजफ्फरपुर) को बुद्ध महापरिनिर्वाण स्थल के रू प में मान्यता न मिलना महात्मा बुद्ध का अपमान है.