*लघुकथा: चाहरदिवारी के बाहर...*
चल उठ निकम्मी... न घर का काम करती है, न चूल्हा चौका...निकलजा यहाँ से वर्ना ससुराल जाएगी तो ताने हमें मिलेंगे...
यह कहते हुए रिया की दादी ने तपाक से एक तमाचा रिया के गाल पर जड़ दिया....
यह होने के करिब 15 मिनट बाद ही गाँव के मुखि़या के साथ गाँव वाले रिया का सम्मान करने घर पहुँचे और रिया की दादी से कहने लगे...
दादी ,
हमारी छोरी गाँव के छोरों से भी आगे है... गाँव में शौचालय बनवाने की जिद्द के कारण आज कोई खुले में शौच नहीं जावे है... और हमारे गाँव को सरकार की तरफ से सम्मान भी मिला है...
तो हम जे सम्मान तो रिया बिटियाँ को ही देवेंगे...
असली हकदार तो रिया बिटियाँ ही है.....
दादी के मुँह से मानों स्वर ही गायब हो गए थे... दादी और रिया चुपचाप एक दूसरे को देखकर बस रो रहे थे.....
आखिर चूल्हे चौके के बाहर भी है आधी आबादी की दुनिया....
डॉ.अर्पण जैन 'अविचल'
हिन्दीग्राम, इंदौर
28.2.18
27.2.18
26.2.18
21.2.18
20.2.18
एक पत्र
प्रिय पैर,
अब तो तुम्हारा स्पर्श करना भी पाप का कारण बनता जा रहा है, क्योंकि तुम भी पाश के आलोक में बदल से गए हो...
पर सुनो, मुझे तुम्हारे साथ के बिना चलने की आदत नहीं है, ना मैं चलना चाहता हूँ । सच कहूँ तो आदत नहीं रही अकेले चलने की।
समय के प्रताप से हम दोनों की युगलबंदी ने कई जीवन को प्रभावित भी किया है, जैसे कुछ एक तो कुंठा के भंवर में धंस से गए और कुछ निराशा के आभामंडल में खो गए | अच्छा भी है, कम से कम उन्हें उनके खोने का पश्चाताप तो हो रहा है
खैर! ये विषय नहीं कि कौन क्या कर रहा है, हमारा विषय है साथ चलते रहना ।
और पता है कल रात तुम जिस बात को लेकर चिंतित हो रहे थे कि तुम्हारे कारण कुछ लोग दूर हो गए पर तुम क्यों चिंता कर रहे हो, वो अपने कर्मों के कारण दूर हुए है, मेरे या तुम्हारे कारण नहीं...
हाँ हमारा काम है चलते रहना, हम तो चलेंगे, भले लोग पोखर की तरह रुकने को जीवन मान रहे हो पर हमें तो नदी के मानिंद चलना ही है ।
*नित नया आकाश गढ़ना है, नित नयी ऊर्जा के साथ ।*
हाँ, सिर्फ तुम्हारे साथ ही चलना है ये भी तो मेरा प्रण है ।
क्योंकि मैं तुम्हारे कारण ही आगे बढ़ पा रहा हूँ, वर्ना मेरा अस्तित्व नहीं...
सुनो!
तुम जहाँ जाओ, मुझे याद भर रखना, क्योंकि मैं इस दुनिया में तुम्हारे बिना अपाहिज कहलाउंगा, और वो मैं कहलाना पसंद नहीं करता ।
मुझे पता है तुम मेरे बारे में क्या-क्या कहते हो, साथी, दोस्त, हमदर्द और भी कई संबोधन पर मुझे इन सबके उपर केवल ये सुनना ही पसंद है कि मैं तुम्हारा हूँ।
*बोलो, कहोगे ना!*
जैसे राधा और कृष्ण दोनो ही एक स्वरुप है वैसे ही हम दो होकर भी एक है...
हम है तो हमारा सब है, वर्ना हमारा अस्तित्व नहीं...
तुम कहते हो ना कि डर लगता है तुम्हें मुझे खोने से, पर यह डर तो मुझमे भी है क्योंकि एक के बिना दूसरे का क्या मोल?
चलो, आज इस डर को निकालें, मिलकर एक पत्थर तराशें...
हाँ! वही पत्थर जो संभावनाओं की उन्मुक्त रेत पर हमारे भविष्य की एक आकृति है । आओ हम दोनों मिलकर जीवन के समर्थ अध्यायों को सबलता अर्पण कर दे ।
*बताओ आओगे ना मेरे साथ...?*
कम लिखा है, ज्यादा समझना...
तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा में..
तुम्हारा,
*दूसरा पैर*
====================
पत्र लेखन-
*डॉ.अर्पण जैन 'अविचल'*
अब तो तुम्हारा स्पर्श करना भी पाप का कारण बनता जा रहा है, क्योंकि तुम भी पाश के आलोक में बदल से गए हो...
पर सुनो, मुझे तुम्हारे साथ के बिना चलने की आदत नहीं है, ना मैं चलना चाहता हूँ । सच कहूँ तो आदत नहीं रही अकेले चलने की।
समय के प्रताप से हम दोनों की युगलबंदी ने कई जीवन को प्रभावित भी किया है, जैसे कुछ एक तो कुंठा के भंवर में धंस से गए और कुछ निराशा के आभामंडल में खो गए | अच्छा भी है, कम से कम उन्हें उनके खोने का पश्चाताप तो हो रहा है
खैर! ये विषय नहीं कि कौन क्या कर रहा है, हमारा विषय है साथ चलते रहना ।
और पता है कल रात तुम जिस बात को लेकर चिंतित हो रहे थे कि तुम्हारे कारण कुछ लोग दूर हो गए पर तुम क्यों चिंता कर रहे हो, वो अपने कर्मों के कारण दूर हुए है, मेरे या तुम्हारे कारण नहीं...
हाँ हमारा काम है चलते रहना, हम तो चलेंगे, भले लोग पोखर की तरह रुकने को जीवन मान रहे हो पर हमें तो नदी के मानिंद चलना ही है ।
*नित नया आकाश गढ़ना है, नित नयी ऊर्जा के साथ ।*
हाँ, सिर्फ तुम्हारे साथ ही चलना है ये भी तो मेरा प्रण है ।
क्योंकि मैं तुम्हारे कारण ही आगे बढ़ पा रहा हूँ, वर्ना मेरा अस्तित्व नहीं...
सुनो!
तुम जहाँ जाओ, मुझे याद भर रखना, क्योंकि मैं इस दुनिया में तुम्हारे बिना अपाहिज कहलाउंगा, और वो मैं कहलाना पसंद नहीं करता ।
मुझे पता है तुम मेरे बारे में क्या-क्या कहते हो, साथी, दोस्त, हमदर्द और भी कई संबोधन पर मुझे इन सबके उपर केवल ये सुनना ही पसंद है कि मैं तुम्हारा हूँ।
*बोलो, कहोगे ना!*
जैसे राधा और कृष्ण दोनो ही एक स्वरुप है वैसे ही हम दो होकर भी एक है...
हम है तो हमारा सब है, वर्ना हमारा अस्तित्व नहीं...
तुम कहते हो ना कि डर लगता है तुम्हें मुझे खोने से, पर यह डर तो मुझमे भी है क्योंकि एक के बिना दूसरे का क्या मोल?
चलो, आज इस डर को निकालें, मिलकर एक पत्थर तराशें...
हाँ! वही पत्थर जो संभावनाओं की उन्मुक्त रेत पर हमारे भविष्य की एक आकृति है । आओ हम दोनों मिलकर जीवन के समर्थ अध्यायों को सबलता अर्पण कर दे ।
*बताओ आओगे ना मेरे साथ...?*
कम लिखा है, ज्यादा समझना...
तुम्हारे जवाब की प्रतीक्षा में..
तुम्हारा,
*दूसरा पैर*
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पत्र लेखन-
*डॉ.अर्पण जैन 'अविचल'*