10.4.24

सिद्धांत बनाम सुविधा की राजनीति

विजय सिंह-

से तो अब सालों भर नेताओं द्वारा पार्टियां बदलने का क्रम चलता रहता है परन्तु चुनाव के समय इसमें विशेष तेजी आ जाती है। चुनाव के वक्त तो इन सबकी अंतरात्मा ऐसे जागती है जैसे,पहले कभी सोई ही न रही हो। सालों साल से किसी भी पार्टी में रहते हुए, उसकी वकालत करते हुए,उसके नीति सिद्धांतों को मानते हुए, अनुसरण करते, हुए नेतृत्व का "गुणगान" करते हुए, विपक्षी पार्टियों को गलियाते हुए क्या कभी निद्रा से नहीं उठी होगी,क्या कभी यह नहीं ख्याल आया होगा कि कल को यदि पार्टी या निष्ठा बदल दी तो पूर्व में कहे गए शब्दों को कैसे "जस्टिफाई" करेंगे? 

अरे साहब, दूसरों की छोड़िए, खुद को कैसे समझायेंगें? शायद "अंतरात्मा के जागने का यही फन" राजनीतिज्ञों को आम साधारण जन से अलग करता है जो आज भी कार्यस्थल बदलने के पहले भी सोचते हैं।अभी हाल ही में कांग्रेस के दो चर्चित नेता संजय निरुपम और गौरव वल्लभ कांग्रेस छोड़ कर क्रमशः शिंदे शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए हैं। संजय निरुपम पहले भी शिव सेना छोड़ कर कांग्रेस में आये थे, शिव सेना से वे राज्य सभा के सांसद भी रहे, बाद में उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया और अब फिर से शिव सेना (शिंदे ग्रुप ) में शामिल हो रहे हैं। 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार पार्टियों के गठबंधन बदलने के उस्ताद रहे हैं ,इसलिए संजय निरुपम और नीतिश कुमार की इस विषय में चर्चा अब बेमानी है। अभी हाल ही में झारखंड में भाजपा के जय प्रकाश पटेल ने कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा की सीता सोरेन ने भाजपा का हाथ थामा है। 

सिंहभूम से एकमात्र कांग्रेस की सांसद रहीं, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी,गीता कोड़ा, लोकसभा चुनाव के आगाज होने के साथ ही कांग्रेस का हाथ छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी  के कमल को अपना चुकी हैं। इसी कड़ी की  ताजा घटनाक्रम में राजनीतिज्ञों के उसी अंतरात्मा की आवाज पर जमशेदपुर स्थित प्रसिद्ध प्रबंधन शिक्षण संस्थान एक्सएलआरआई के अर्थशात्र व वित्तीय मामलों के व्याख्याता प्रोफेसर गौरभ वल्लभ ने कांग्रेस के हाथ को टाटा बाय बाय कर भाजपा के कमल को आत्मसात कर लिया और अब वे भाजपा व भाजपा नेतृत्व की उन्ही नीतियों का गुणगान करेंगे जिनका कुछ समय पहले तक वे विरोध करते थे या उपहास उड़ाया करते थे।  

इन्हीं सवालों के जवाब पाने के लिए हमने प्रोफेसर गौरव वल्लभ से कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहा। हमने उनसे पूछा कि -कांग्रेस छोड़ने की मूल वजह क्या है, जबकि पार्टी ने आपको राजनीतिक सफर शुरू करने के साथ ही पहले जमशेदपुर पूर्वी और फिर उदयपुर से प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़वाया। आप दोनों ही जगह से चुनाव हार गए, यह आपकी व्यक्तिगत कमी थी या पार्टी की? जब कांग्रेस ने अल्पसमय में आपको इतना मान दिया तो "कठिन समय" (जैसा वर्त्तमान में कांग्रेस के लिए प्रचलित है) में कांग्रेस पार्टी और नेतृत्व के प्रति आपकी "निष्ठा" क्यों कमजोर पड़ गयी? 

कांग्रेस में रहते हुए आपने हमेशा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा व उनके सहयोगियों का मजाक उड़ाया या विरोध किया है, अब अचानक उन्हीं भाजपा और नरेंद्र मोदी के प्रति आसक्ति कैसे जाग उठी? आपने अपने इस्तीफे में सनातन धर्म, राम मंदिर आदि की चर्चा की है परन्तु आपके ट्विटर पर अब तक लिखे गए (कांग्रेस में रहते हुए समेत) पोस्ट पर कभी किसी कांग्रेसी नेता व कार्यकर्ता की ना तो आपत्ति दिखी और न ही विरोध या रोकने का प्रयास? 

आपने कांग्रेस की नीतियों और कार्यशैली की चर्चा की है, इसे देश के सम्मानित प्रबंधन शिक्षण संस्थान में हर दिन नए भावी प्रबंधक के व्यक्तित्व को निखारने का जिम्मा उठाने वाले प्रबंधन शिक्षक की नाकामी के रूप में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? आप अपनी बेहतर नीतियों, कार्यशैली से कांग्रेस नेतृत्व को प्रभावित क्यों नहीं कर पाये? आपने ट्विटर पर अपने पोस्ट में देश के उद्योगपतियों, वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री की नीतियों और भाजपा प्रवक्ताओं का हमेशा उपहास किया है, तो ऐसे में क्या कांग्रेस नेतृत्व द्वारा उद्योगपतियों के विरोध करने जैसा आपके इस्तीफे में चर्चा विरोधाभास नहीं है? 

क्या इस बात से आप इंकार करेंगे कि उद्योगपति तो सत्ता के साथ ही रहते हैं, पार्टी चाहे कोई हो, जैसा पहले (कांग्रेस शासन में) अंबानी समूह के विषय में कांग्रेस को सपोर्ट करने की चर्चा रहती थी? जिन प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री व भारतीय जनता पार्टी की आप बुराई करते रहते थे, विरोध करते थे, उपहास उड़ाते थे, अब भाजपा के एक सदस्य के रूप में आप कितना सहज रह पायेंगें? इसे आप कैसे "जस्टिफाई" करेंगे? आपके अनुसार "भारत तोड़ने" वालों के प्रति अचानक आपका प्यार कैसे उमड़ पड़ा? इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हमें गौरव वल्लभ का प्रतिउत्तर नहीं मिल पाया। जवाब मिलते ही ससम्मान उनका पक्ष प्रकाशित किया जाएगा।

आक्रांता मानस की चपेट, ढ़ह रहे नैतिक विवेक के कंगूरे

कृष्ण पाल सिंह- 

आक्रांता मानस में मानवीय मूल्यों और नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता। ऐसी मानसिकता बर्बरता की ओर उन्मुख करती थी। भारत तो आक्रांताओं की मानसिकता का लंबे समय तक भुक्तभोगी रहा है। लूट के लिए भी आक्रांता धर्म का नकाब ओढ़कर आते रहे जबकि बुनियादी तौर पर सभी धर्मो की मान्यतायें एक जैसी हैं जो कि लूट जैसी असभ्यता को गुनाह यानी पाप घोषित करती हैं। ऐसे तथाकथित धर्म योद्धाओं (जिहादियों) को विजित कौम की महिलाओं से बलात्कार करने में भी पुण्य नजर आया है और न जाने कितने शैतानी कर्म हैं जो इतिहास के काले दौर में बंदगी की एक अदा के बतौर नवाजे गये थे।

ऊपर लिखी पंक्तियों का उद्देश्य किसी धर्म विशेष के समूह को निंदित करना नहीं है। सच तो यह है कि आक्रांता मानस के पीछे मनोवैज्ञानिक विडंबनायें होती हैं जिसका शिकार होने पर किसी भी धर्म का व्यक्ति या समूह विकृत चित बन जाता है। क्या भारत के राजनैतिक समाज में हाल के दौर में आक्रांता मस्तिष्क का प्रत्यारोपण किया जा रहा है। यह भारत के लिए कोई पहला अनुभव नहीं है। जब बाहरी आक्रमणकारी नहीं आये थे उस समय भी अशोक महान जैसे सम्राट इस मानसिकता के वशीभूत हो गये थे। युद्धों में खून बहाने का उन्माद उनके विवेक के हरण का कारण बन गया था। कलिंग युद्ध के बाद लगे झटके से वे इस अमानवीय लोलुपता से बाहर निकले तो प्रायश्चित से भर उठे। इसके बाद उन्होंने शांति और सृजन का नया सूत्रपात किया जिसने एक महान सम्राट के रूप में इतिहास में उनको अभिषिक्त किया।

आज दुनिया अतीत के उस दौर से बहुत आगे निकल चुकी है। सभ्य शासन के सार्वभौम प्रतिमान हर देश के लिए स्थापित किये जा चुके हैं। कट्टर से कट्टर और बर्बर से बर्बर देश आज कमोवेश इन प्रतिमानों की कसौटी पर खरा साबित करने की विवशता में अपने को पा रहे हैं। शरीयत शासित देशों में भी लोकतंत्र की भले ही वह सीमित हो बयार और स्त्रियों को सार्वजनिक जीवन में अवसर देने के मामले में रूढ़ियों से उबरने की कोशिश इसकी गवाह है। भारत के नेतृत्व ने तो आजाद होते ही विश्व बिरादरी का गरिमावान सदस्य बनने के लिए सभ्यता के उन्नत प्रतिमानों में शिखर पर पहुंचने की उत्कंठा प्रदर्शित की थी। वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्रीय शासन का वरण किया था। धर्मनिरपेक्षता के मामले में देश की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों के बावजूद उसकी निष्ठा विश्व बिरादरी में सराही गई थी। भारतीय संवैधानिक संस्थाओं और शासन-प्रशासन प्रणाली का पेशेवर तौर पर उत्कृष्ट प्रदर्शन विश्व बिरादरी को इस देश की भूरि-भूरि सराहना के लिए प्रेरित करता था।

लेकिन हाल के वर्षों में जो उथल-पुथल शुरू हुई है वह इस श्रेय को तितर-बितर करने वाला है। इन वर्षों में भारत के दृढ़ शासन और द्रुतगामी विकास तो अत्यंत प्रशंसा योग्य है लेकिन लोकतंत्र में मनमानी और ज्यादती के जिस नये युग को देखा जा रहा है उससे अधोपतन की ऐसी तस्वीर तैयार हो रही है जो देश की अभी तक की तमाम उज्जवल उपलब्धियों को चकनाचूर कर सकती है। विपक्षी दलों को आर्थिक और वित्तीय तौर पर पंगु बनाना, चुनाव के समय दिग्गज विपक्षी नेताओं को जेल में डालने का अभियान, विमत वाले राज्यों की सरकारों को काम न करने देना, उन्हें उखाड़ फेंकने के लिए हार्स ट्रेडिंग करना, धनबल के तौर पर सत्तारूढ़ पार्टी को ड्रेगन बनाने के लिए धृष्टतापूर्वक घोटाले, चंदाखोरी और कमीशन खोरी को अंजाम देना और उनकी कोई जांच न होने देना आदि ऐसे कृत्यों का तांता लगा हुआ है जिससे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्न चिंह लग गया है। अंतरराष्ट्रीय जगत और सोशल मीडिया पर इसके लिए हमारे नेतृत्व की आलोचना हो रही है लेकिन तानाशाहों की तरह उसे इनकी परवाह करने की कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही।

सत्ता प्रतिष्ठान को लोकलाज से विचलित होने की जरूरत तब होती है जब इसके कारण जनमत विरोधी दिशा में मुड़ता दिखायी दे। लेकिन इतिहास के प्रेत और बदले की भावना ने आक्रांताओं की तरह देश के जनमत का नैतिक विवेक समाप्त कर दिया है। सत्तारूढ़ पार्टी तक के कार्यकर्ताओं को अब इस मामले में हो रही आलोचनाओं के जबाव नहीं सूझ रहे। इन पंक्तियों के लेखक की सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों से रोज बात होती है जिसमें वे यह मानने में गुरेज नहीं करते कि उनकी पार्टी तो वाशिंग मशीन में तब्दील हो चुकी है जिसमें आकर हर बदनाम नेता के भ्रष्टाचार के दाग आसानी से धुल जाते हैं। लेकिन इस पर लोगों को आपत्ति नहीं है तो चंद लोगों की आलोचना से क्या होता है। सत्तारूढ़ पार्टी समर्थक कुछ लोग जिनके जमीर जिंदा हैं वे कहने लगे हैं कि इतनी ज्यादती ठीक नहीं है लेकिन इसके कारण वे पार्टी के प्रति अपना समर्थन खत्म करने की सोचने को तैयार नहीं हैं।

लोगों के सरोकार उनके पूर्वजों पर इस्लामिक बादशाहों के शासन काल में हुए अत्याचारों का बदला लेने तक सिमट कर रह गये हैं। लेकिन आक्रांता मानस का विस्तार केवल यहां तक सिमटा नहीं है। उन्हें आजादी के बाद के दशकों में संविधान के समतावादी निर्देशों के कारण सामाजिक प्रभुत्व में आ रहे घाटे की क्षतिपूर्ति का अवसर बदले हुए हालात में सुलभ होने से भी अलग तरह के संतोष का अनुभव हो रहा है। जिस धार्मिकता के आवेश में समाज गिरफ्तार हो रहा है उसमें समता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। यह धार्मिकता उपनिवेशवादी सामाजिक व्यवस्था के स्रोत का काम कर रही है। आजादी के बाद के भारत में देश की धार्मिक व्यवस्था को मानवाधिकारों पर आधारित वल्र्ड आर्डर के अनुरूप समंजित करने का जो प्रयास आगे बढ़ा था वह बैक फायर की जद में है। अनुदारवादी पुनरूत्थान की भट्टी में दहक रहा यह नया भारत दुनिया को क्या दिशा देने वाला है यह सोचनीय है।

4.4.24

संपत्ति की जंग!

अश्विनी-

संपत्ति की जंग कितनी ख़तरनाक होती है जानने के लिए किसी ज़िला अदालत में पहुंच जाइए। केस लड़ रहे अधिकतर लोग ऐसी उम्र के मिलेंगे जिनका एक पैर कब्र तो दूसरा पैर कोर्ट परिसर में होता है। ये वो लोग होते हैं जिन्हें हालात अदालत का नियमित आगंतुक बना चुका होता है। महीने दो महीने में पड़ने वाली अनगिनत तारीख़ों का गवाह बनकर ये लोग मान चुके होते हैं कि अब उनके मरने के बाद ही कोई फ़ैसला आएगा। मैं जब भी ऐसे बुज़ुर्गों से मिलता हूं तो सहानुभूति से भर जाता हूं। सोचता हूं बाबा ने ऐसा कौन सा पाप किया होगा कि जवानी के बाद बुढ़ापा भी कोर्ट के चौखट पर काटने को मजबूर हैं। 

ज़िला अदालतों में आने जाने के दौरान मैंने उत्सुकतावश दो चार बुज़ुर्गों से सवाल भी किया तो उनका जवाब चौंकाने वाला ही मिला। पहले बुज़ुर्ग ने बताया कि वो भरोसा करने की सज़ा भुगत रहे हैं। जिस भाई पर भरोसा किया उसी ने भरोसे का खून कर दिया। बुज़ुर्ग ने बताया पहले छोटे भाई ने मान मनौव्वल कर उनकी ज़मीन का टुकड़ा खेती करने के नाम पर लिया लेकिन सालों बाद उसने खेत ही छोड़ने से ही मना कर दिया। यही नहीं ज़मीन वापस मांगने पर वो पत्नी, बच्चों संग मारपीट पर उतारू हो जाता। खसरा खतौनी में नाम होने के बाद भी हारकर कोर्ट का सहारा लिया लेकिन पंद्रह साल बाद भी फ़ैसला नहीं मिल सका है। ये सब सुनकर मुझे बड़ा अजीब लगा सोचने लगा भला ऐसा भी होता है। 

ज़मीन के मालिक को अपनी ही ज़मीन वापस लेने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। बुज़ुर्ग बोले दीवानी का मुकदमा है जाने कितनी तारीखें गई उन्हें तो याद भी नहीं है। कई बार साहब आते नहीं हैं तो कई बार तारीख़ देकर टरका दिया जाता है तो कई बार वकीलों की हड़ताल तो कभी किसी के निधन पर अदालत नहीं लगती। बुज़ुर्ग बहुत मायूसी से बोले अब तो लगता है मेरे मरने के बाद बच्चे ही मुकदमा देखेंगे। एक अन्य बुज़ुर्ग की दास्तान भी धोखे से भरी मिली। बुज़ुर्ग बोले नौकरी के सिलसिले में आधी ज़िंदगी दूसरे शहर में रहा। तनख्वाह मिलती तो बच्चों के लालन- पालन, पढ़ाई-लिखाई पर खर्च करता। 

यही नहीं ज़रुरत पड़ने पर गांव में रह रहे माता-पिता और परिजनों की भी मदद करता रहा। सब कुछ अच्छा चल रहा था, परिवार में शादी जश्न सब मिलकर मनाते थे। खेतीबाड़ी भी ठीक ठाक थी लेकिन वक़्त के साथ बहुत कुछ बदल गया जिस भाई को लक्ष्मण मानता था उसी भाई ने माता-पिता को जाने क्या घुट्टी पिलाई कि वो उसके मोहपाश में उलझ कर संपत्ति के बड़े टुकड़े को ही उसके नाम कर दिया। बुज़ुर्ग ने आगे कहा सोचा था सब मिलकर रहेंगे लेकिन किसी एक के चाहने से थोड़े ही होता है। परिवार के मुखिया की बेरुखी की वजह से परिवार तो टूटा ही ऊपर से मुकदमा अलग हो गया। जो भाई दांत काटी रोटी का रिश्ता रखते थे, एक दूसरे के दर्द का आलिंगन करते थे, अब हालात ये हो गए कि देखकर रास्ता बदल लेते हैं। 

बुज़ुर्ग की बात सुनकर लगा कि क्या ऐसा भी होता है। माता पिता के लिए तो सभी बच्चे बराबर होते हैं तो चूक कहां हो जाती है कि प्रेम किसी एक ही बच्चे पर न्योछावर करने लगते हैं। सोच रहा था कि क्या चूक परदेशी बच्चे से भी हुई थी। क्या वो अपनी ज़िंदगी में इतना मशगूल था कि माता पिता से ही दूर निवास करते हुए उनके दिल से ही दूर हो गया। मेरेे मन में रिश्तों को लेकर उधेड़बीन जारी थी तभी एक ऐसे बुज़ुर्ग दंपति से मुलाकात हुई जो अपने बेटों से ही मुक़दमा लड़ रहे थे। दंपति की फरियाद थी कि वो अपने जिन बेटों को लाड़ प्यार, पालन पोषण में कोई कमी नहीं की उन्हीं बेटों ने सबसे गहरा ज़ख्म दे दिया। 

दंपति ने सोचा कि उनके पास जो भी संपत्ति है क्यों न वो बेटों के नाम कर दें। उस दौरान कुछ नजदीकी रिश्तेदारों ने समझाया भी कि अपने बुढ़ापे का ख्याल रखें अपने लिए भी कुछ रख लें लेकिन दंपति ने बेटों के प्रेमपाश में उलझकर संपत्ति को उन्हें बांट दिया। समय गुज़रा तो बेटों ने रंग दिखाते हुए माता-पिता को ही बेघर कर दिया। आज माता पिता ज़िंदगी की आखिरी मोड़ पर दाने दाने को मोहताज हैं। आप देश के किसी भी कचहरी में एक खोजो तो हज़ार ऐसे बुज़ुर्गों सरीखें किस्से मिल जाएंगे जो इंसानियत पर से भरोसा हटाते हैं। चौथे बुज़ुर्ग ने कहा कई बार कचहरी में तैनात कर्मचारी तो कई बार आपके वकील ही मुकदमा लंबा खींच देते हैं। हुआ यूं कि बुज़ुर्ग के मुकदमे का फ़ैसला बीस साल बाद आने वाला था तभी उनके वकील ने ही गच्चा दे दिया। 

मजिस्ट्रेट महोदय फ़ैसले के लिए वकील साहब से आवश्यक दस्तावेज मांग रहे थे लेकिन वकील साहब इतने धूर्त थे कि पैसों की लालच में महीनों पेपर बनाने में ही लगा दिया। बुज़ुर्ग की मुताबिक फ़ैसला अब ऐसा अटका कि लगता है उनके अंतिम संस्कार के बाद ही सलटेगा। आज रिश्तों में किस तरह खिंचाव आ रहा है उसकी तस्दीक के लिए आखिर में एक और सच्चा किस्सा बताता हूं। घटना करीब दस साल पहले बनारस शहर की है। एक व्यक्ति ने घर में ही फांसी लगाकर जान दे दी थी। वो अपनी पत्नी बच्चों के साथ किराए के घर में किसी तरह गुज़र बसर कर रहा था। 

उसकी मौत के बाद पता चला कि उसके निवास से महज़ एक किलोमीटर दूर उसके माता-पिता का आलीशान घर था। पिता का करोड़ों का कारोबार था लेकिन बाप बेटे में नहीं बनी। बेटा अपने परिवार समेत किराए के घर में रहने को मजबूर था। वो किसी तरह मेहनत मजदूरी कर पति-पत्नी बच्चों को पाल रहा था। बच्चे भी खुद्दार थे किसी तरह मांगी गई पुरानी किताबों से पढ़कर क्लास में अव्वल आते थे। दूर के रिश्तेदार भी तरस खाकर अनाज पानी का इंतजाम कर देते थे । परिवार की ज़िंदगी कट रही थी लेकिन एक दिन परिवार का मुखिया हार गया। पंखे से लटकर अपनी जान दे दी। 

सोचिए पिता के उस करोड़ों की दौलत का क्या काम जो जवान बेटे की जान तक न बचा सके। मेरा ये सब लिखने की पीछे की पीड़ा समझने की कोशिश करें। इंसान नंग धड़ंग, खाली हाथ ही जन्म लेता है और जब धरती से अपनी पारी समाप्त कर निकलता है तब भी उसके साथ कुछ नहीं जाता है। मतलब साफ़ है हर किसी को खाली हाथ ही लौट जाना है फिर ये स्वार्थ का खेल क्यों। जानते सब हैं लेकिन अफ़सोस की बात है चिंतन मनन कम ही लोग करते हैं।