भई....बहुते बुरा हुआ है। भड़ास शुरू करके फंस गया लगता हूं। जिस ब्लाग को अपने गले में फंसी आवाज उगलने के लिए बनाया था, वही गले की फांस बन गया है। इतना गड़बड़ हो जाएगा, अपन को बिलकुल उम्मीद न थी। आप पूछेंगे- हुआ क्या? मैं कहूंगा- बच्चा रो रहा है। आप कहेंगे- वुडवर्स दे दे। लेकिन मैं कहूंगा- इससे काम नहीं चलने वाला। तो फिर?
देखते देखते 90 लोगों से उपर की टीम, और उसमें भी कई घुसपैठिए फर्जी नाम से विराजे हैं। रोज बीस-पच्चीस मेल तो सिर्फ भड़ास की पोस्टों, कमेंटों व कनबतियां से जुड़ी होती है। अपना फोन नंबर देकर और आफत मोल ली। एसएमएस, फोन काल, मेल...सबमें कनबतियां और भड़ास.....। आज से पहले कभी जरूरत महसूस न हुई कि घर पर कंप्यूटर रखें। देहाती आदमी। जितने कम साजो-सामान में ज़िंदगी खिंच जाए, उतने भला। आफिस में आठ-दस घंटे आंख फोड़ने के बाद घर में कंप्यूटर पर आंख का आपरेशन करने की मेरी बिलकुल तमन्ना नहीं। लेकन मुआ भड़ास, ये तो अब वीकली आफ में परान लिए है। आफिस में वैसे ही बास डांट पिला देते हैं--जब देखो भड़ास खोले मिलता है, इसी में टुक टुक करता रहता है....। मैं भी अपराध बोध से भर जाता हूं। भई, आफिस में तो आफिस ही होना चाहिए। अगर मेरे अंडर में कोई बालक इस तरह का कृत्य करेगा तो मैं तो तनिक न माफ करता। तो एकदम से ठान लेना पड़ा...नहीं, अब नहीं। आफिस में भड़ास अब नहीं। पर हरामजादी ये कसमें हैं न, कभी तो ठीक से ठिल्ले चढ़ जाएं। साली टूट जाती हैं। ये भी टूट गई। भाई लोग इंडिया का मैच देखने में लगे हैं तो मुझे लगा, चलो लगे हाथ अपनी भड़ास की भड़ास ही निकाल दूं जो गले में अंटकी हुई है और गाहे-बगाहे अपने अविनाश भाई से रोकर मन हलका कर लेता हूं। मैं अविनाश जी से कहता हूं कि प्रभु, इससे मुक्ति दिलाओ। जान फंस गई लगती है। तो अपने अविनाश भाई जान बचाने की बजाय जान और उलझाने वाली बातें समझा देते हैं और बुरी बात ये कि मैं इसे समझ भी जाता हूं। वे भड़ास के बेहतर भविष्ट के जो सब्जबाग दिखाते हैं और हिंदी ब्लागिंग में इस अभिनव प्रयोग को जो तमगे देते हैं, उसे सुनकर चुप्पी साध लेता हूं और एक आज्ञाकारी की तरह फिर भड़ास की ड्यूटी बजाने लगता हूं। लेकिन बात ड्यूटी बजाने की हो तो कउनो बात नहीं। दरअसल पेंच तो दूसरी है। अब पाकेट का खर्चा भी इसी में जा रहा है। मुंह को लगी दारू तो अभी छूटी नहीं, एक भड़ास और पाल लिया। दोनों पर डबल खर्चा। अरे हां, इसी प्रसंग में याद आया। कल शशि जी मुंबई से लोकमंच वाले फोन किए रहैं। बोले- यशवंत भाई, बधाई, भड़ास के लिए। बात देर तक होती रही। दशा-दिशा पर। मैं भी दूसरे पत्रकारों की तरह अपनी शेखी बघारने और हांकने में पीछे नहीं रहा। भड़ास का जो भविष्य उन्हें बताया तो वे भी वाह वाह कर उठे। बाद में वे बताए कि दरअसल जो वो लोकमंच डाटकाम चलाते हैं उसमें सिर्फ वो पैसा खर्च करते हैं जो दूसरे उनके साथी प्रेस क्लब में जाकर खर्च कर देते हैं। प्रेस क्लब का मतलब दारू ही होता है, बिलकुल सही समझा आपने। तो मैंने तुरंत कहा- भाई, मेरा तो डबल खर्चा है। प्रेस क्लब वाला भी और भड़ास वाला भी। अब रोज एक से लेकर चार घंटे तक साइबर कैफे में बैठना पड़ता है। पंद्रह रुपये प्रति घंटे के हिसाब से पेमेंट देकर जब आता हूं तो दिल में हूक उठती है--साले, चूतियापे में आज के पव्वे का पैसा तो तुमने इस चूतिये साइबर कैफे वाले को दे दिए। शाम को क्या करेगा...घंटा। तो मन रोने लगता है। घर पहुंचकर पत्नी और बच्चों की शक्ल देखता हूं तो लगता है कि यशवंत तुझसे ज्यादा पागल पत्रकार कोई न होगा। तूने आज तक कोई बैंक बैलेंस को कौन कहे, एक रुपया तक नहीं बचाया। जो मिलता है सब फूंक ताप कर बराबर। पी-पाकर बराबर। फूंक-उड़ाकर बराबर। गा-बजाकर बराबर। खिला-पिलाकर बराबर। इन नन्हे मु्न्नों की तो सोचो। इन छौनों की तो सोचो। इन अपने क्लोनों की तो सोचो। इस सीता रूपी पत्नी की तो सोचो। ये कहां जाएंगे। टुकुर टुकुर करके तुमको ही तो निहारते हैं। लेकिन तू है कि कमीने...........मानता नहीं।
अब आप ही बताइए। कैसे चले भड़ास। सब साथी सलाह देते हैं। घरवा पर कंपूटरवा लगवा ला ना। त हमार जवाब होला...झोली में झांट नहीं, चला जगन्नाथ जी। एक साथी ने कहा - भड़ास के साथियों से चंदा मांग कर ले लो। तो मैंने कहा- उससे अच्छा होगा कि मैं भड़ास बंद कर दूं। भड़ास तो देने का मंच है। मुक्ति देने का, सहजता देने का, सरसता देना का, एकजुटता देने का....। .यहां लेने से क्या मतलब? तो ये आइडिया भी निप इन द बड कर दिया। दरअसल निप इन द बड इसलिए याद रहता है क्योंकि अंग्रेजी के इस एकमात्र मुहावरे को बचपन में खूब रटा था। तो भइया......भड़ास को लेकर मैं बड़ा परेशान हूं और भड़ास से कई भाई लोग बहुत परेशान हैं। ऐसे में करें क्या....कुछ उपाय सुझाइए ना........।
आज तो जय भड़ास कहने की कतई इच्छा नहीं हो रही क्योंकि बेहद गुस्से में हूं। इसलिए माफ करिएगा, आज कहूंगा.....
भड़ास मुर्दाबाद
यशवंत
No comments:
Post a Comment