लखनऊ की अदालत ने कुछ पत्रकारों और पत्रों के संपादकों को सजा सुनाई। यह खबर भड़ास पर ही पढ़ने को मिली। पूरी खबर पढ़ी तो मुझे दस बरस पुराना वाकया याद आ गया। तब हम लोगों के पास सूचना तकनीक के इतने संसाधन नहीं होते थे। एकाध कंप्यूटर और फैक्स ही हुआ करते थे।
02 अक्टूबर की इस घटना के बाद तात्कालिक जिला मजिस्ट्रेट अनंत कुमार की तरह पूरे प्रशासन का विश्वास तब मीडिया से उठ गया था। सहारनपुर के पत्रकारों के एक दल को तब प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत मुजफ्फरनगर ले जाया गया। यह एक तरह से पत्रकारों की फैक्ट्स फाइंडिंग कमेटी थी। यानी पत्रकारिता के खिलाफ तब शासन और प्रशासन ने पत्रकारों का इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अगले दिन हम लोग भी जिज्ञासावश रामपुर तिराहा स्थित घटनास्थल पर पहुंचे थे। पता चला था कि दोनों तरफ से खेल हुआ है। कथित पत्रकारों की कमेटी ने तब प्रशासन के पक्ष में कितने फैक्ट्स एकत्र किये थे, यह आज तक रहस्य है। मगर, वे पत्रकार आज भी वही कर रहे हैं जो दस बरस पहले उन्होंने किया था। यानी खबर से सरोकार नहीं और अफसरबाजी में पीछे नहीं हैं आज भी। मुझे आज भी याद है कि जो गैर जिम्मेदाराना हरकत तब रामपुर तिराहे पर पुलिस और प्रशासन ने की थी, वही हरकत पत्रकार भी कर रहे थे।
रामपुर तिराहा के आसपास के खेतों में कुछ सुबूत प्लांट किये गये साफ प्रतीत हो रहे थे। जैसे- महिलाओं के फटे हुए अंग वस्त्र, खून से सने कुछ कपड़े, दोनों पक्षों की बात करने वाले कुछ ग्रामीण। कुल मिलाकर हालात- मुंह खाये और आंख रिझाये वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे थे। प्रशासन की खामियां प्रशासन वाले जानें, लेकिन पत्रकारों की खामियों पर मुझे दस बरस पहले रोना ज़रूर आया था। मैं रामपुर तिराहे पर कोई फैक्ट ढूंढने नहीं गया था, बल्कि सीखने गया था। मैंने तब जो सीखा था, उस पर आज तक अमल कर रहा हूं। सीख यह थी कि अगर कलम से पत्रकार बनते हैं, तो तकनीक और ज़रूरी संयंत्रों से पत्रकार बचते हैं। तबसे खुद को वक्त और जरूरत के हिसाब से अपडेट रखने की कोशिश करता हूं।
मुझे कई बार प्रख्यात शायर डा. बशीर बदर से साक्षात्कार का मौका मिला। उनका एक शेर मेरे ज़हन में कौंधता था-
मैं आसमां की शाख पर ज़िंदा हूं दोस्तों
पुचकार कर बुलाओ परिंदा हूं दोस्तों
अखबार में ख़बर मेरे मरने की छप गई
मैं चीखता रहा, मैं ज़िंदा हूं दोस्तों
मैंने बशीर साहब से इस शेर का दर्द जानना चाहा, तो उन्होंने बताया कि मेरठ में दंगों के दौरान उनके घर को आग लगा दी गई। वह तब मेरठ में नहीं थे और अखबारों ने खबर छाप दी कि डा. बशीर बदर भी दंगाईयों की भेंट चढ़ गये, मारे गये, नहीं रहे आदि...। तब उन्होंने ये शेर कहा था और इस हादसे के बाद वह मेरठ छोड़ गये, भोपाल में जा बसे थे। मैंने डा. बशीर बदर से पूछा था कि फिर नफरतों से घबराकर उन्होंने मेरठ क्यों छोड़ दिया था?
उनका जवाब था- नफरत ने नहीं, मोहब्बत ने छुड़वाया था मेरठ। पुराने साथियों को शायद याद हो कि हमने दैनिक जागरण के प्रथम पृष्ठ पर इसी हेडिंग से डा. बशीर बदर का इंटरव्यू प्रकाशित किया था। दरअसल, डा. बशीर बदर की प्रेमिका (अब पत्नी) भोपाल में रहती थी।
खबरों की लापरवाही के शिकार अनंत कुमार और डा. बशीर बदर तो महज दो उदाहरण हैं। ऐसे अनगिनत मामले हैं जिन्हें एकत्र किया जाए तो एक ग्रंथ बन सकता है। मगर, इन पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया। पत्रकारिता में ये वही अधकिचरापन है जो हर फील्ड में है। कम से कम मीडिया जगत के भीतर तो इस पर गंभीर बहस होनी ही चाहिए। मैं आईएएस अनंत कुमार से न तो हमदर्दी रखता हूं और न ही तब प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन पत्रकारों में शामिल था। मगर, नई पीढ़ी के पत्रकारों से इतना जरूर कहना चाहूंगा कि कुछ भी रिपोर्ट फाइल करने से पहले उसके तथ्यों और साक्ष्यों का रिकार्ड आवश्यक रूप से सुरक्षित करना सीखें। किसी का ब्यान सिर्फ कागज़ पर नोट कर लेने भर से अब काम चलने वाला नहीं है। अनंत कुमार ने बयान दिया था या नहीं? यदि उनके बयान की तब रिकार्डिंग की गई होती तो साफ हो जाता कि उन्होंने क्या कहा था? आप पत्रकार हैं तो किसी के अधीन मत रहिये, सिर्फ पत्रकारिता के मापदंडों और जरूरतों के अधीन हो जाइये। फिर देखिये
आपका कोई बाल भी नहीं उखाड़ सकता।
और अंत में.....
‘चाहत’ को ठेंगे पर धरो, पूरी होगी
चाहत (इच्छा) इक ऐसा शब्द है जिसकी जितनी व्याख्या कर लो, उतनी थोड़ी है। यह किसी भी रूप में हो सकती है। चाहत का पूर्ति से जन्मों का बैर है। यह अनुभव भी है और लोगों से भी सुना है कि जो चाहा, वो मिला नहीं। लोग तर्क देते हैं कि चाहत कभी पूरी नहीं होती। जो इच्छा नहीं होती, उसकी पूर्ति हो जाती है। तो भाई सभी भड़ासियों के लिए यह सुझाव है कि अपनी चाहत को ठेंगे पर रखो, पूरी हो जायेगी। यानी जो हासिल करना चाहते हो, उसकी चाहत मत रखो। इच्छा पूरी कराने का यही शार्टकट हुआ ना।
जय भड़ास
रियाज़
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