17.11.07

ऐ ख़ाक़नशीनों उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुंचा है, जब तख़्त गिराये जायेंगे...जब ताज उछाले जायेंगे|

यशवंत भाई के उदगार पढे़।
पढ कर ये पंक्तियां खुद ब खुद ज़हन में आ गईं।
ऐ ख़ाक़नशीनों उठ बैठो वो वक़्त क़रीब आ पहुंचा है,
जब तख़्त गिराये जायेंगे...जब ताज उछाले जायेंगे

मेरे खयाल से पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है, जिसमें वाह्य आकर्षण ज़बर्दस्त है।
लोग खुद ब खुद इसकी ओर आते चले जाते हैं, और जिन लोगों को झुक कर
सलाम लेने की आदत हो जाती है उनके लिये ये क्षेत्र छोडते नही बनता।
यहां पर मै किसी व्यक्ति विशेष का नाम नही लेना चाहता लेकिन रुतबे की
हनक सभी पत्रकारों में आ ही जाती है, चाहे वो कस्बे, तहसील, जिला या राष्ट्रीय
स्तर का पत्रकार हो। हमें यह बात नही भूलनी चाहिये कि घूरे के भी दिन पलटते हैं।
और सेर को सवा सेर मिलते देर नही लगती, इसी लिये ऊंची आवाज़ मेंनही बोलना चाहिये।
ऐसे लोगो के लिये मै अंत में बस इतना ही कहना चाहूंगा कि
सांप,कुत्ता, बिच्छू, बिल्ली जो चाहो पाल लो, लेकिन खुदा के लिये गलत फ़हमी कभी ना पालो।
इस दुनिया में एक से बढ कर एक का बाप बैठे हैं।
जय भडा़स!
इति सिद्धम...

अंकित माथुर...

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