भयानक ठंड़ आन पड़ी है। इस ठंड का असली मजा भड़ासी ही ले रहे हैं। कभी रजाई फेंक देते हैं तो कभी चुहलकदमी करते घुस जाते हैं। अक्सर बुजुर्ग भड़ासी ठंड में अपनी भड़ास इस तरह निकालते हैं-
बच्चों को तो मैं छूता नहीं
जवानों का लगता हूं भाई
बूढ़ों को तो मैं छोड़ूंगा नहीं
चाहे जितना भी ओढ़ें रजाई
((बेसिकली यह कहावत मूल में भोजपुरी की है जो इस तरह है-- लइकन के छोड़ब ना, जवनका हमार भाई, बूढवन के छोड़ब ना, चाहें जतना ओढ़ें रजाई))
इधर बीच, पारा जब लड़खड़ा कर तीन डिग्री सेल्सियस पर धड़ाम हुआ तो बेडरूम के तो नजारे बदले, सड़कें भी बदल गईं, कई अखबार लिख रहे हैं-- हमारा जाड़ा, उनका जाड़ा। स्वामी भड़ासानंद एक भोरहरी सड़क पे निकल गये जायजा लेने, जो जो भड़ास में निकला, यहां नहीं दे रहे हैं क्योंकि पूरा चैप्टर लिखा जाएगा।
भड़ासी मित्रों, वो बेचारे जो अकिंचन हैं, उनका जाड़ा वाकई दर्द भरा है। गर्माहट कहां से आएगी, कोई नहीं जानता। रिश्तों की बात हो या शरीर को जरूरत भर गर्मी की।
इधर बीच, फोन पर एक मैसेज आता है---
हकीकत समझो या फसाना
अपना समझो या बेगाना
हमारा आपका रिश्ता पुराना
भड़ासियों का फर्ज है आपको बताना
कि ठंढ शुरू हो गई है
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प्लीज.....रोज मत नहाना....
दोस्तों, अंतिम बात, मैं भी भड़ास का मेंबर बन गया। नाम है, ध्यानेंद्र मणि त्रिपाठी। दिल्ली में हूं। जीवनयापन से जो वक्त बचता है उसमें ब्लाग, कविता, साहित्य, फिल्म, भोजपुरी, रंगमंच आदि से दिल्लगी करता रहता हूं। आप लोगों की दरियादिली को देख सुनकर आया हूं, उम्मीद है दुत्कारेंगे नहीं।
जय भड़ास
ध्यानेंद्र मणि
स्वागत है त्रिपाठी जी,
ReplyDeleteअपन तो बस इत्ता जानते हैं कि
नहाता वो है जो गंदा होता है,
जैसे कि खाता वह है जो भूखा होता है। ;)