कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना, कभी चांद खिले तो मेरे दिल में आ जाना... सुर फिल्म का यह गीत जिसे संभवतः महालक्ष्मी नामक गायिका ने गाया है, जब पहली बार सुना था तो पागल हो गया था। और सुना भी कहां, एक मित्र को फोन किया तो उनके डायल टोन के रूप में यह था। उन्होंने फौरन उठा लिया था, इसलिए उनसे रिक्वेस्ट करना पड़ा कि दुबारा डायल कर रहा हूं, फोन न उठाइयेगा, गाना बहुत बढ़िया है। और मैं कई बार फोन करके सुनता रहा।
बाद में इस गाने से इतना प्रभावित हुआ कि इसे खुद के मोबाइल का डायल टोन बनाना चाहा पर कई कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाया। आखिरकार इसे एक मेरे मित्र ने आनलाइन म्यूजिक साइट smashits.com पर सुनवाया। तभी जान पाया कि यह सुर फिल्म का गाना है, 2002 में बनी फिल्म है यह, महालक्ष्मी ने गाया है, डायरेक्टर तनूजा चंद्रा हैं और म्यूजिक डायरेक्टर एमएम करीम। आज ये गाना सुनते हुए मुझे अपनी कई कमियों पर तरस आई....जैसे..
1- ब्लागिंग में अगिया बेताल की तरह भड़ास लेकर चला आया पर ब्लागिंग की तकनीक जानने के मामले में गदहा ही रह गया। कई गानें चाहता हूं भड़ास पर डालूं, पर इसलिए डाल नहीं पाता क्योकि मैं पाद-वाद आदि कास्टिंग करना नहीं जानता। काश, ये आता तो इस गाने को आप सभी को सुनाता। अगर कोई साथी मेरी मूढ़ता पर तरस खाकर इस गाने को भड़ास पर डाल दे तो मजा आ जाय। उसकी जय जय होगी।
2- आईटीओ और कनाट प्लास तो मशहूर जगहें हैं, दिल्ली या नोएडा या गुड़गांव या गाजिबायाबद या किसी शहर में देख लो, लड़के लड़कियां कान में खोंसे रहते हैं, जरूर गाना ही सुनते होंगे। स्साला, मैं सोचता हूं कि ये मैं क्यों नहीं कर सकता। पता है, बहुत महंगा या मुश्किल नहीं है, पर कर नहीं पाता। ये जो काम चलने वाली मानसिकता है, अनाप-शनाप के काम में उलझ रहने की आदत है, उससे निजात मिलने तो कुछ नया करूं। हालांकि सच कहूं, ये जो कान में खोंसे रहते हैं, इन्हें देखकर जाने क्यों दया भी आती है। कई तो जिनुइन तौर पर संगीत सुनने वाले लगते हैं, लेकिन कई तो लगता है सिर्फ मुझे चिढ़ाने के लिए बजा रहे हों...
किशोर उम्र के रूमानी दिनों में जब अभाव जिंदगी को खुशगवार बनाये हुए थी और गांव का जीवन व्यक्तित्तव में नाजुकता व संवेदना भरे था, रेडियो खटिया के कोने में धीमी आवाज में बजाते हुए, पेटकुनिया सोते हुए गानों के शब्दों के अर्थों को बंद आखों में विजुवलाइज किया करते थे, लगता था, किसी कोने से आसमान से उतरकर वो परी बस मेरे लिए ही आने ही वाली है, यही गाते हुए, जो सुन रहा हूं....। खैर, वो परी नहीं आई, खयालों में हमेशा बसी रही, और जो परियां दिखीं वो सिर्फ नाम की थीं, दिल-दिमाग में हमारे आप जैसे दुखों-सुखों स्वार्थों-दुविधाओं को जीती हुईं लड़कियां थीं। तो उन दिनों जो गाने मुझे बेहद पसंद थे, जिन्हें आज भी शाम को घर जाते वक्त गाड़ी में गाता रहता हूं. वो इस प्रकार हैं--
तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी मे शामिल है,
जहां भी जाऊं ये लगता है मेरी महफिल है
ये आसमान, ये बादल, ये रास्ते, ये घटाएं
हर एक चीज है अपनी जगह ठिकाने पे
कई दिनों से शिकायत नहीं जमाने से...
समझे आप, रुमानी दिनों मे किसी को किसी से भला क्या शिकायत हो सकती है। फंतासी, कल्पना, सपने, गाने, संगीत, खोया खोया सा रहना, आसमान निहारना, अकेले सूनसान नदी किनारे या बगीचे में बैठकर सोचना.....और दूर से सीलोन, या विविध भारती, या आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से आ रहे गानों को सुनना, गुनना, बूझना, शरमाना, समझाना, हंसना......
पता नहीं क्या लेकर बैठ गया, लेकिन संगीत भड़ास का अनिवार्य पार्ट होना चाहिए और इस दायित्व को अगर कोई भड़ासी निभाएं तो बड़ी खुशी होगी, उनसे मैं चाहूंगा कि उपरोक्त तीनों गाने, ओह....तीसरा तो लिखना भूल ही गया...वो इस तरह है....
तुमसे मिलकर
ना जाने क्यूं
और भी कुछ याद आता है
ये प्यार के दुश्मन, प्यार के कातिल
लाख बने ये दुनिया....
पर हमने वफा की राहन न छोड़ी
हमने तो अपनी.....
उस राह से भी हम गुजरे हैं,
जिस राह पे सब लुट जाता है...
लुट जाता है...
भई, एक और ....प्लीज, मेरा बड़ा फेवरिट है, लव सांग में....
मेरे प्यार की उमर हो इतनी समन
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से खतम
बिन तेरे एक पल भी मुझे रहा नहीं जाये
ये दूर दूर रहना अब सहा नहीं जाये
टूट जाये न कहीं मेरे प्यार का भरम
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से...
मेरे सपने गुलाबी नीले हो गये जवां
लो आके तेरी बाहों में मैं खो गई कहां
हाजिर है जान जानेमन जान की कसम
तेरे नाम से शुरू तेरे नाम से कसम
देखा...इतनी लाइनों को लिखने का मतलब है कि मैं इन्हें वाकई गाता हैं, खामखा पेल नहीं रहा हूं कि देखो, बहुत बड़ा गवइया भी हूं। भगवान ने गला तो सबको दिया है, सो मेरे पास भी है और महेंद्र कपूर मार्का भरे गले वालों का गाना गवाना हो तो कभी भी आदेश करियेगा, मैं तो लोगों को खोज खोज के सुनाता हूं...सुन लो यार, एक और.....। और अगला कहता है, पक गया, अब अगली मीटिंग में सुनाना.....हा हा हा हा।
तो भई, इन दिनों के अपने फेवरिट गाने ....आना तो फिर ना जाना, कभी शाम ढले तो मेरे दिल में आ जाना ...को सुनते हुए ये पोस्ट लिख रहा हूं और इस गाने को बार बार सुन रहा हूं।
कुछ दिन पहले तक भिखारी ठाकुर के गाने डगरिया जोहत ना, जिसे देवी ने गाया है और जिसे मेल के जरिये अविनाश भाई मोहल्लेवाले ने भेजा था, लगातार सुनता था, पर उसे इतना सुना कि घर पर बच्चा लोग लैपटाप खोलते ही चिढ़ाने लगते हैं...डगरिया..बबरिया, डहरिया.....पता नहीं क्या क्या सुनेंगे पापा। तो, मैंने धीमी आवाज में सुनना शुरू कर दिया है।
अंत में, आप सबसे भी, खूब सुनें संगीत, खूब जियें संगीत, जीवन के जितने पल इनके पास रहकर गुजारेंगे, उतने ज्यादा पल जीवन में जोड़ेंगे वरना जीवन खत्म करने वाले पल से तो हम लोग हमेशा दो चार हो रहे हैं।
और अगर विमल वर्मा का नाम न लूं तो शायद मेरी समकालीन संगीत सोच पर यह पोस्ट अधूरी रह जायेगी। विमल वर्मा जी के ब्लाग ठुमरी (http://thumri.blogspot.com) पर जाकर मैंने वो गाने सुनें, जिन्हें हम लोगों ने जिया है। इलाहाबाद और बीएचयू में अपनी पार्टटाइमरी होलटाइमरी क्रांतिकारिता के दौरान दस्ता ग्रुप से जुड़कर जो कुछ सुना, सीखा, गाया उनें से कई कुछ लिखित व कुछ संगीत रूप में विमल जी के ब्लाग पर मिला। वैसे, विमल जी का नाम तो इलाहाबाद से ही सुन रखा था लेकिन जब उनसे उनके ब्लाग के जरिये संपर्क कायम हुआ तो वो संगीत की तरह सरल व सहज दिखे। प्रमोद सिंह जैसे भाव मारने वाले नहीं, जिनसे कई बार रिक्वेस्ट किया कि भइया, हमहूं से बतिया लो, लेकिन बंदा है कि लिफ्टे नहीं मारता, पता नहीं क्या क्या अपने ब्लाग पर पेले रहता है। हालांकि लिखता अच्छा है भाई, कुंभ के मेले में बिछड़ा हुआ भाई लगता है।
चलो, अब फिर कह दें.....
संगीत ज़िंदाबाद,
गद्यकार मुर्दाबाद
भड़ास की जय जय
सकल भड़ासियों की जय जय
यशवंत सिंह
lagta hai pure mauj me aur mood ne likhe hai guruji. aap apni javaani yaad kar rahe the ya fir bachpan.
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