19.1.08

नेताओं ने माना “बास्टर्ड”(हरामी) हैं, खिलाड़ियों ने कहा “विजेता” हैं?

जैसा कि हमेशा होता आया है, नेता संकट खड़े करते है, देश का अपमान करवाते हैं, लेकिन जनता अपने संघर्षों से देश को सही राह पर लाने और उसका गौरव वापस पाने की जद्दोजहद में जुटी रहती है, ठीक उसी प्रकार पर्थ में भारतीय टीम ने सब कुछ भुलाकर जोरदार संघर्ष किया और ऑस्ट्रेलिया को नाकों चने चबवा कर जीत हासिल की। तारीफ़ करना होगी अनिल कुंबले के नेतृत्व की और युवाओं के जोश की जिसने यह अभूतपूर्व कामयाबी हासिल की। पता नहीं हमारे नेता इस नई सदी के जोश और आत्मविश्वास से भरे भारतीय युवा की ताकत को क्यों नहीं पहचानते और जब-तब देश को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।

“बास्टर्ड” शब्द का अर्थ शब्दकोष के अनुसार “अवैध संतान” या “हरामी” होता है। सिडनी टेस्ट के बाद में जो “तात्कालिक” राष्ट्रवाद बासी कढ़ी की तरह पैदा हुआ था, उसका झाग अब बैठ गया है, और हम वापस अपने “गाँधीवाद” और “पूंजीवाद” की ओर लौट आये हैं। ऐसा हमेशा ही होता है, हमारा “राष्ट्रवाद” क्षणिक होता है, या तो मीडिया द्वारा पैदा किया गया नकली राष्ट्रवाद (जैसा कि ताजमहल वोटिंग के मामले में हुआ था) या फ़िर कारगिल युद्ध के समय चन्दा माँगने जैसा… पाठक सोच रहे होंगे कि इस बात का “बास्टर्ड” शब्द से क्या लेना-देना? दरअसल सिडनी टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी ब्रेड हॉग ने गांगुली, कुम्बले और धोनी को “बास्टर्ड्स” कहा था, और हरभजन ने तथाकथित रूप से सायमंड्स को “मंकी” कहा था। दोनों टीमों ने इस मामले में एक दूसरे की शिकायत की थी। हरभजन का मामला आईसीसी की धाराओं के मुताबिक 3.3 स्तर का और हॉग के अपशब्द 3.0 स्तर के माने गये। नियमों के अनुसार दोनों खिलाड़ियों को सजा के तौर पर कम से कम तीन टेस्ट से बाहर किया जा सकता है। ऐसे में विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के रीढ़विहीन रवैये और शर्मनाक समर्पण के कारण आज की स्थिति यह है कि कुंबले ने अज्ञात(??) दबाव के कारण ब्रेड हॉग पर लगाये गये आरोपों को न सिर्फ़ वापस ले लिया बल्कि उन्हें “माफ़”(?) भी कर दिया है, बेईमान और अक्खड़ रिकी पोंटिंग ने सिर्फ़ शाब्दिक तौर पर कहा कि “उनसे सिडनी में एक-दो गलतियाँ हुई हैं…”, गिलक्रिस्ट ने भी खुलेआम कहा कि “ऐसा खेल” तो हमारी संस्कृति है और हम इसे जारी रखेंगे, अम्पायरों को भी मीडिया के दबाव के कारण सिर्फ़ आगामी दो मैचों से हटाया गया, लेकिन सबसे मुख्य बात यानी हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी वाले मामले में ऑस्ट्रेलिया ने अपने आरोप वापस नहीं लिये, यानी हरभजन मामले की सुनवाई होगी और हो सकता है कि उन्हें कुछ सजा भी हो जाये।
“एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। नेताओं को देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।
आजादी के समय पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने हों, 1962 में चीन से पीठ में छुरा खाना हो, एहसानफ़रामोश बांग्लादेश का जब-तब आँखें दिखाना हो या कंधार-कारगिल में मुशर्रफ़ का षडयंत्र हो…… “एक गाल पर थप्पड़ खाकर दूसरा गाल आगे करने…” की जो गाँधीवादी घुट्टी हमारे खून में रच-बस गई है, उसने कई मौकों पर देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है। लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी हमारे नेता यह बात समझने को तैयार नहीं हैं कि देश की पचास प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या “युवा” है, जो अपने हुनर और शिक्षा के बल पर समूचे विश्व में डंका बजा रहे हैं, जबकि “कब्र में पैर लटकाये” हुए चन्द नेता अपने स्वार्थ की खातिर देश को नीचा दिखाने में लगे हुए हैं। अब वे 1974 के दिन नहीं रहे जब इंग्लैंड दौरे पर एक क्रिकेटर सुधीर नाईक पर एक जोड़ी मोजे चुराने का आरोप लगाया गया था, और हमारे “अंग्रेजों के मानसिक गुलाम” क्रिकेट बोर्ड ने आरोप को मान भी लिया और उस बेचारे को देश लौटने का आदेश दे दिया था… अब 2007 का समय है लेकिन नेता आज भी नहीं बदले। इन्हें देश की “ताकत” का अन्दाजा तो है, लेकिन उस ताकत का उपयोग वे अपने निजी स्वार्थ पूरे करने में लगाते हैं, देश के स्वाभिमान की बजाय।

सिडनी के इस मामले में कई घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पेंच भी जुड़ गये थे। बीसीसीआई की सनातन राजनीति में गहरे धँसे डालमिया ने तत्काल पवार पर मामले को ढील देने का आरोप जड़ दिया, दूसरी तरफ़ लालू हुँकार भरते रहे कि “यदि मैं बीसीसीआई अध्यक्ष होता तो अब तक टीम वापस बुला लेता…” (क्योंकि उन्हें अगला अध्यक्ष बनना है और अपने बेटे को भारत की टीम में लाना है)। अब पवार अपने विरोधियों की बात कैसे मानते, भले ही मुद्दा राष्ट्रप्रेम से जुड़ा हो। उन्होंने नया “गणित” लगाया और भारत सरकार पर दबाव बनाया कि यदि इस मुद्दे को ज्यादा तूल दिया गया तो दोनों देशों के आपसी सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं जिससे कि हमें ऑस्ट्रेलिया से यूरेनियम मिलने में दिक्कत होगी। बात में “वजन” था, विदेश सचिव स्तर का प्रतिनिधिमंडल ऑस्ट्रेलिया में यूरेनियम की भीख माँगने पहुँचा हुआ ही था। बस फ़िर क्या था… कुंबले को बुलाकर दबाव बनाया गया कि ब्रेड हॉग के खिलाफ़ मामला वापस ले लो, बात को यहीं रफ़ा-दफ़ा करो (दूसरे अर्थों में, मान लो कि हम “बास्टर्ड” हैं)। जबकि असल में पवार साहब को अपनी आईसीसी की कुर्सी खतरे में दिखाई दे रही थी। ये और बात है कि इतना सब करने के बावजूद ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने यूरेनियम के नाम पर हमें “ठेंगा” दिखा ही दिया है। रही बात बकनर के कारण वेस्टईंडीज के नाराज होने की, तो भविष्य में उसे एक “बड़ा टुकड़ा” देकर राजी कर लिया जायेगा। अब निश्चित ही अन्दर ही अन्दर हरभजन पर दबाव बनाया जा रहा होगा कि मामले की सुनवाई हो जाने दो, मैच रेफ़री (मांडवाली करने गये बिचौलिये) रंजन मदुगले को “सेट” कर लिया जायेगा कि तीन की बजाय सिर्फ़ एक टेस्ट का ही प्रतिबन्ध लगाया जायेगा, जिसे हरभजन सिंह और हमारी क्रिकेट टीम सहर्ष स्वीकार कर लेगी, नेता लोग कुछ “गाँधीवादी” बयान (“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले” या फ़िर “खेल भावना के सम्मान” टाईप का) देंगे। भारतीय जनता (और मीडिया भी) जिसकी याददाश्त बहुत कमजोर होती है, इसे वक्त के साथ भुला देंगे, और फ़िर से हमारे खिलाड़ी ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका में गालियाँ खाने को तैयार… (सम्बन्धित लेख “शरद पवार जी अब तो मर्दानगी दिखाओ…)

इस सारे मामले में “पैसे” ने भी अपना खासा रोल निभाया है, दौरा निरस्त कर टीम के वापस लौटने की सूरत में भारत पर आठ करोड़ (क्या यह BCCI के लिये बड़ी रकम है?) का जुर्माना हो जाता, आगामी वन-डे ट्राई-सीरिज पर भी खतरा मंडराने लगता, जिससे प्रति खिलाड़ी कम से कम पाँच करोड़ तथा बोर्ड को कम से कम 400 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ सकता था… ऐसे में आसान रास्ता यही था कि राष्ट्रवाद को भाड़ में झोंको, “बास्टर्ड” सुनकर भी मुस्करा दो, यहाँ तक कि अपने आपको “नस्लभेदी” भी मान लो… खैर, ऑस्ट्रेलिया की घटना के कारण भारत में हुए मीडिया प्रायोजित “देशभक्ति” नाटक का फ़िलहाल अन्त हो गया लगता है। जैसा कि भारत में हरेक मुद्दे का अन्त होता है मतलब शर्मनाक, खुद को महाशक्ति कहने वाले देश के पिलपिले साबित होने जैसा, ठीक वैसा ही अंत (फ़िलहाल) इस मामले का हुआ है। साथ ही कुछ बातें भी साफ़ हो गई हैं… जैसे –

(1) किसी भारतीय को “बास्टर्ड” (हरामी) कहा जा सकता है, लेकिन अंग्रेज को “मंकी” (बन्दर) नहीं कहा जा सकता…
(2) आठ करोड़ का जुर्माना ज्यादा बड़ा है देश की टीम के स्वाभिमान से…
(3) यूरेनियम की भीख माँगना ज्यादा जरूरी है, राष्ट्र के सम्मान की रक्षा की बजाय…
(4) भले ही हम “नस्लवादी” साबित कर दिये जायें, लेकिन “माफ़” करने की महान गाँधीवादी परम्परा नहीं टूटनी चाहिये…


लेकिन भारतीय युवाओं ने साबित कर दिया है कि जैसे हम “मुँहजोर” हो गये हैं वैसे ही मैदान में भी दमखम दिखा सकते हैं, बशर्ते कि देश और बीसीसीआई का नेतृत्व उनका खुलकर साथ दे, और गाली के बदले गाली, गोली के बदले गोली (प्रतिभा ताई सुन रही हैं ना… अफ़जल वाली फ़ाईल अभी भी आपकी टेबल पर पड़ी है) वाली नीति अपनाये…

और अब अन्त में एक गुप्त बात… असल में हरभजन ने सायमंड्स को “माँ की……” कहा था, लेकिन दर्शकों के शोर में सायमंड्स ने उसे “मंकी……” सुन लिया, इसलिये आईसीसी से अनुरोध है कि इसे भाषा सम्बन्धी समस्या माना जाये, न कि नस्लभेदी प्रकरण…
- सुरेश चिपलूनकर
http://sureshchiplunkar.blogspot.com

1 comment:

  1. सुरेश जी,जिस प्रकार भारतिया बन्दर कहने पर ज्यादा गुस्सा नही करता, कयो कि यह कोई गाली नही, उसी प्रकार गोरो को “बास्टर्ड” (हरामी) शव्द से कोई प्रहेज नही कयो की इन्हे कया, इन की मां को पता नही इन का कोन सा बाप हे,फ़िर सबी हुये न “बास्टर्ड” अब एक नगा दुसरे को नगा तो नही कहे गा ना.लेकिन अब हमारे नेता कुछ भी करे लेकिन, हमारे शेर अगला मेच भी जीत कर इन हरामियो को सबक जरुर दे,ओर मे यही प्राथना करता हु,क्योकि इस से बडा थपाड ओर दुसरा नही उन पर ओर हमारे नेता के मुह पर,
    आप का लेख हमेशा की तरह जोरदार तमाचेदार हे,ध्न्यवाद

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