29.1.08

पत्रकारिता का यथार्थ

अब जब हम देख रहे हैं कि भड़ास का मंच है वो भी मुफ़्त में तो हमारे भीतर का बेहोश हुआ कवि खड़भड़ा कर बाहर आ गया है और आप लोगों को पत्रकार बंधुओ (अरे भाई,बहनों को नहीं भूला हूं ,अब यार मेहरबानी करके गरियाना मत कि कमीना खुद तो सबको बहन कह रहा है लेकिन हमें भाई क्यों कह रहा है क्या जीजाजी कहने में मुंह को लकवा मार जाएगा ,दया करो हम पर हम ससुरे ऐसे ही है रिश्तों के समीकरण समझ नहीं पाए तो लोगों से कहते हैं कि कलाम साहब हमारे रोल-माडल हैं इसी खातिर कुंआरे रह गए) के लिये लिखी एक छोटकई कविता प्रेषित कर रहा हूं ,दरअसल इसमें खुद के लिए भी तो शेखी मारी है न....खैर पिओ यार.....
खोपड़ी की हंड़िया में सवाल की दाल है उत्तरों की छौंक नहीं व्यर्थ का उबाल है , कलम की करछुल का भाल में भूचाल है पेंदी की रगड़ से हाल ये बेहाल है , ओंठो के बीच दबी बीड़ी की नाल है आग फूंक धुंआ खींच राख सा मलाल है , पुष्टि नहीं तुष्टि नहीं जाल है जंजाल है स्वप्निल यथार्थ में कंगाल ये कंकाल है , रौंद दिए सत्य के हाथ में कुछ बाल है बालों की खाल पर उठ रहे बवाल हैं , पत्र-पत्र यत्र-तत्र पत्रकार ताल है सत्यमेव जयते से इनका रक्त लाल है ।

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