((नमस्कार सर, मेरा नाम चंदन है। अपने छोटे अनुभव में मैंने कई बार इसको महसूस किया है या इससे भी ज्यादा दूसरों से कइ बार कहानियों के रूप में सुना है। मौजूदा समय में न्यूज चैनल में काम कर रहा हूं। उम्मीद है कि मेरे इस पाती को आप अपने ब्लाँग में जगह देगें।
धन्यवाद सर
चंदन))
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पत्रकारिता में ये बीमारी तो पहले से थी लेकिन अब इसने महामारी का रूप ले लिया है। कस्बों और गांवों में औरतों के आदमी हुआ करते हैं लेकिन यहां आदमीयों के आदमी हैं। अन्दर आने के लिए किसी का आदमी, बने रहने के लिए किसी का आदमी और आगे बढ़ने के लिए भी किसी का आदमी होना बेहद जरूरी है। घर बैठ किसी के साथ सुरापान तो कर सकते हैं लेकिन दफ्तर के आहाते में किसी के साथ चाय की चुस्की भी ली तो उसके आदमी। नतीजा... आपका साथ देने वाला शख्स अगर दफ्तर में हावी है तो चौका वरना आप तत्काल प्रभाव से टीम के सोलहवें खिलाड़ी की मानिंद। चौके लगाने का दमखम रखते होंगे अपनी बला से लेकिन फिलहाल तो किस्मत पर ग्रहण लगता जान पड़ता है। मानो पेप्सी की बोतल लेकर ब्रेक का इंतजार करना ही भाग्य में बदा है।
शायद वो समय कुछ और रहा होगा जब दादा परदादा कहा करते थे कि सबसे मिलकर रहो लेकिन अब तो हालात ये है कि इधर के रहो या उधर के रहो। पत्रकारिता में नये हैं या युं कहें कि नौसिखये हैं तो किसी का आदमी होना और भी जरूरी है। चुंकि से इस बेलौसपन से बीमारी को पोषण मिलता है। इसलिए बचना थोड़ा मुश्किल है। डर तो है लेकिन अर्थशास्त्र की परिभाषा के अनुसार जोखिम उठाने वाले ही उद्यमी कहलाते हैं। इसलिए आप अगर इस बीमारी को जीना सीख गये तो रिलांयस मोबाइल की तरह दुनिया आपकी मुट्ठी में।
मेरे एक सहयोगी वसीम बरेलवी का एक शेर गाहे बगाहे गुनगुनाते हैं -------
मेरा अहले सफर कब किधर का हो जाए
ये वो नहीं जो हर रहगुजर का हो जाए
जीने का हक सिर्फ उसी को है दुनिया में
जो इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
पर सातवीं में तो मेरे मौलवी साहब ने बताया था कि आदमी तो वही है जो इसका भी रहे और उसका भी हो। पर छोटे से अनुभव और कइ अपरिचित कहानियों के बाद मौलवी साहब भी अब झूठे लगने लगे हैं ।
--चंदन
sbka aadmi hone pr log jarkrmi kahte hain...guru apn nhi u log kahte hain
ReplyDeleteNAHI CHANDAN...APNE IRADE BULAND RAKHO..USKE BAD DEKHNA...YE VICHAR KABHI TUMHARE DIL KO NAHI BEDHENGE.
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