19.2.08

निरर्थक बहस!

एक मोहतरमा ने भडास में ज़रा दिलचस्पी सी लेकर पोस्ट क्या कर दी सब की पछा़डी में बवासीर हो गई है, पतली खून से सनी टट्टी कर रहे हैं। उसे लगा इस बहाने मेरी टी आर पी भी बढ़ जायेगी। "भडास आंदोलन में तो सभी लोग बहती गंगा समझ कर हाथ पांव धोने चले आते हैं फ़िर वो चाहे भडासी कैटेगरी में फ़िट होते हैं या नही इससे उन्हे कोई सरोकार नही।" करने दो बकर साला कितनी बकर करेगा कोई? एक बार पहले भी नीलिमा चौहान ने इसी से मिलता जुलता मुद्दा उठाया था कि (भडास पर महिलाओं की सहभागिता नगण्य क्यों है?) और मेरी व कुछ अन्य की इस विषय में काफ़ी अच्छी, लम्बी बहस हुई थी, पर लगता है इस बार तो सभी अपनी अपनी उल्टी और खूनी टट्टी उतारे चले जा रहे हैं। ना जाने क्या कहना चाह रहे है? भई कुंठित हो, पीडित हो जो भी हो साला हाथ पौर धो कर किसी के पीछे पड़ जाना भी तो सही नही है। खामख्वाह किसी की टी आर पी इतनी भी न बढाईये कि लोगो को अपने बारे में गलतफ़हमी सी होने लगे। काफ़ी सोचा कि मै कम से कम इस मुद्दे पर चुप रहूंगा लेकिन जब देखा कि भडासी हैं कि चुप्पा टाइट कर ही नही रहे हैं तो सोचा एक शिगूफ़ा मैं भी छोड़ दूं। देखिये इस प्रकार की निरर्थक सी बहस में शामिल होने से कुछ हासिल नही है, हर व्यक्ति की भडास की अपनी अपनी परिभाषायें हो सकती हैं और हमें शायद कोई अधिकार नही है कि उस पर किसी प्रकार का सेंसर लगाया जाये। गाली दो यार कोई प्राबलम नही है, लेकिन वहीं दो जहां बिना मा बहन करे अभिव्यक्ति (भड़ास) की कोई पहचान ही ना बन पा रही हो। जबरिया किसी की खाट खडी करने को गाली देने में क्या मज़ा है? तो आदरणीय और सम्मानित भड़ासियों तिल का ताड़ ना बनाओ। और जिसे जैसी उल्टी करनी है करने दो, हमारी ....... पर भी फ़र्क नही पड़ता। क्यों भई कैसी रही। धन्यवाद... अंकित माथुर...

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