ख़ुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है
रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है
इक कहानी ख़त्म करके वो बहुत है मुतमइन
भूल बैठा है कि आगे इक कहानी और है
बोरिए पर बैठिए, कु्ल्हड़ में पानी पीजिए
हम क़लन्दर हैं हमारी मेज़बानी और है
जो भी मिलता है उसे अपना समझ लेता हूँ मैं
एक बीमारी ये मुझमें ख़ानदानी और है
bahut umda. kafi vajan hai aapki shayari me janaab
ReplyDeleteकलम चले तो जिगर खुश भी हो और छलनी भी
ReplyDeleteकलम रुके तो निजाम ऐ ज़िन्दगी भी रुक जाये
कलम उठे तो उठे सर तमाम दुनिया का
कलम झुके तो खुदा की नज़र भी झुक जाए
बहुत खूब लिखा सेठी साहब ........ एक शायर को एक शायर से मिल कर जो ख़ुशी होती है मुझे हुई है !!
अति सुन्दर है लिखे जाओ भाई पर इधर तो अपुन सिर्फ़ ऐसा मानता है कि भड़ास निकाली जाए ,ये साला इतना सुन्दर-सुन्दर साहित्यिक रचना तो गुंडे पोस्ट्स के बीच मं रजिया जैसी लग रही है इसे मेरी बुरी नजर न लगे.......
ReplyDeleteजय भड़ास
इतनी सुंदर कविता....... पर भड़ास किधर है ? नही है तो फिर इधर काई कू ?
ReplyDeleteआखिरी चार लाइनें तो वाकई अपने दिल के तार को झंकृत कर गईं। भई, बधाई और भड़ास में स्वागत। लगे रहिये....
ReplyDeleteयशवंत