1.2.08

Harsimran Sethi, Sandhya Samachar

ख़ुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है
रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है

इक कहानी ख़त्म करके वो बहुत है मुतमइन
भूल बैठा है कि आगे इक कहानी और है

बोरिए पर बैठिए, कु्ल्हड़ में पानी पीजिए
हम क़लन्दर हैं हमारी मेज़बानी और है

जो भी मिलता है उसे अपना समझ लेता हूँ मैं
एक बीमारी ये मुझमें ख़ानदानी और है

5 comments:

  1. bahut umda. kafi vajan hai aapki shayari me janaab

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  2. कलम चले तो जिगर खुश भी हो और छलनी भी
    कलम रुके तो निजाम ऐ ज़िन्दगी भी रुक जाये
    कलम उठे तो उठे सर तमाम दुनिया का
    कलम झुके तो खुदा की नज़र भी झुक जाए

    बहुत खूब लिखा सेठी साहब ........ एक शायर को एक शायर से मिल कर जो ख़ुशी होती है मुझे हुई है !!

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  3. अति सुन्दर है लिखे जाओ भाई पर इधर तो अपुन सिर्फ़ ऐसा मानता है कि भड़ास निकाली जाए ,ये साला इतना सुन्दर-सुन्दर साहित्यिक रचना तो गुंडे पोस्ट्स के बीच मं रजिया जैसी लग रही है इसे मेरी बुरी नजर न लगे.......
    जय भड़ास

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  4. इतनी सुंदर कविता....... पर भड़ास किधर है ? नही है तो फिर इधर काई कू ?

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  5. आखिरी चार लाइनें तो वाकई अपने दिल के तार को झंकृत कर गईं। भई, बधाई और भड़ास में स्वागत। लगे रहिये....
    यशवंत

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