पक्की खबर मिली है कि अपने समय के सचेत व तेवरदार पत्रकारों में से एक, मशहूर एंकर और पिछले कई महीनों से सहारा समय न्यूज चैनल के सर्वेसर्वा पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इस चैनल को बाय बाय बोल दिया है। इसके पीछे वजह क्या रही? यह तो नहीं पता चल पाया है लेकिन पुण्य प्रसून का जाना उनके चाहने वालों को दुखी कर गया। उनमें मैं भी हूं। फोन पर संक्षिप्त बातचीत में पुण्य प्रसून ने सहारा छोड़ने की खबर की पुष्टि की।
पुण्य प्रसून के चलते पिछले कई महीनों में सहारा समय पर ठीकठाक खबरें, बहस और मुद्दे देखने व सुनने को मिले। अब शायद वो सब न देखने को मिले। कई बार यह होता है कि आप काम तो ठीक से करते हो, मेहनत व विजन से करते हो पर सोकाल्ड टीआरपी की जो महिमा है उसमें दूसरे बाजी मार ले जाते हैं। न्यूज चैनल अब बाजार का हिस्सा हैं, सो उन्हें खबरों से ज्यादा टीआरपी से लेना होता है, गलती बस यही है। तो अगर पुण्य प्रसून जी को टीआरपी के पैमाने पर आंका गया होगा तो हो सकता है कि ढेर सारे छिछोरे चैनल इसमें बाजी मार ले गए हों और उन छिछोरे चैनलों के छिछोरे व रीढ़विहीन मुखिया लोग इसी बात से खुश हो होकर पार्टियां कर रहे हों और अपने चेलों से अपनी पीठ थपथपवा रहे हों कि उनके चैनल की टीआरपी ज्यादा है, लेकिन दरअसल पत्रकारिता के इतिहास में इन छिछोरों का जिक्र किसी हाशिए पर भी नहीं होना है, यह तय है।
अब तो ढेर सारे दर्शकों को यही नहीं पता है कि कुल कितने न्यूज चैनल हिंदी में चल रहे हैं। जो भी न्यूज चैनल खोलिए तो उसमें खबर कम, हल्ला ज्यादा दिखता है। देश की नीति व दशा-दिशा की तस्वीरें कम, खेल व मनोरंजन के विजुअल ज्यादा परोसे जाते हैं। हद तो ये है कि प्राइम टाइम जैसे समय में ढेर सारे कथित बड़े नाम लोगों को चूतिया बनाते हुए सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट व मनोरंजन की खबरों का खामखा हाईप देकर लोगों को बांधे रखने की कोशिश करते हैं।
खैर, यहां न्यूज चैनलों की मीमांसा करने नहीं बैठा हूं बल्कि पुण्य प्रसून वाजपेयी के सहारा समय छोड़ने की जिस खबर का पता चला है, उसे भड़ासियों तक पहुंचाने में लगा हूं। मैं निजी तौर पर पुण्य प्रसून का काफी सम्मान करता हूं। हालांकि उनसे केवल एक दो बार की चलताऊ मुलाकात है, लेकिन वो व्यक्ति आज भी इतनी ऊंचाई पर होने के बावजूद लोगों से जिस सहजता के साथ मिल लेते हैं, बतिया लेते हैं, उनके फोन काल रिसीव कर लेते हैं, अपने विचार व विजन पर अड़े रहते हैं, पत्रकारिता के तेवर को कायम रखने के लिए लड़ते रहते हैं, उससे जाहिर होता है कि इस व्यक्ति के पास अगर कोई कुर्सी न भी हो तो वो उन सभी से बड़ा और सम्मानीय है, जो कुर्सियों के लिए ही जीते मरते हैं और उसको बचाने में अपनी आत्मा की ऐसी तैसी कराते हैं, पत्रकारिता को भरेचौराहे लतियाकर डस्टबिन में फिंकवा देते हैं।
तो भई पुण्य प्रसून जी, हिम्मत न हारिएगा, परेशान मत होइएगा। आप के साथ हम सारे संवेदनशील और सजग लोग हैं जिन्हें वाकई लगता है कि पत्रकारिता कुछ व्यभिचारियों, छिछोरों की रखैल नहीं है बल्कि इस देश की आम जनता की तकलीफों और दशा-दिशाओं को प्रतिध्वनित करने वाला माध्यम है, जिसे आप बखूबी अपने करियर में कायम रखने में, जीते रहने में, आगे ले जाने में कामयाब रहे हैं।
तुच्छताओं के इस दौर में अगर पुण्य प्रसून जैसे लोग हैं, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि उन्होंने अगर सहारा समय को बाय बाय कहा है तो जरूर इसके पीछे अपने मूल्यों पर टिके रहने की जंग ही होगी, वरना नौकरी बचाये रखने व चलाये रखने के लिए हजार फंडे होते हैं जिसे पुण्य प्रसून जी भी आजमा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा न करके, अपनी सोच व समझ के लिए चैनल को ही बाय बाय कह दिया।
और, अगर कोई व्यक्ति किसी संस्थान में सर्वेसर्वा की हैसियत में काम करता है तो जाहिर है कि वहां उसके विरोधी भी होती हैं, जो तमाम आंय बांय सांय अफवाहें फैलाते हैं। इन लोगों की बातों, अफवाहों पर ध्यान न देकर हम तो इतना ही कहेंगे.....प्रसून बाबू, डटे रहिए। भड़ासी आपके साथ हैं। जनता आपके साथ है। आप जल्द ही अपने तेवर के साथ फिर किसी प्रिंट या इलेक्ट्रानिक के जरिए अपनी उपस्थिति की दस्तक दें, यह अपेक्षा है, यह अनुरोध है। होली जमकर खेलिएगा, हम भी खेलने आएंगे, फाग गाएंगे, चैन के दो चार पल जिएंगे......और फिर चल पड़ेंगे जीवन की जंग में अपने विचार के हथियार और अस्त्र-शस्त्र नुकीले करके, आगे बढ़ने। इसी को तो ज़िंदगी कहते हैं।
जय भड़ास
यशवंत
दादा,सही है पी.पी.भाई जैसे लोगों की बात ही अलग है । असल में इन जैसे ही लोग हैं जो पत्रकारिता की मूल परिभाषा को जीवित रख पाते हैं वरना अगली पीढ़ी तो यही समझेगी कि पत्रकारिता और चाटुकारिता पर्यायवाची शब्द हैं । उन्हें कौन रोक सकता है जो खुद ही ट्रेण्ड-सेटर्स हैं । पी.पी.भाई के साथ तो हम सब हैं ही ।
ReplyDeleteपुण्य प्रसून जी के
ReplyDeleteइधर जाऊं या उधर
चारों तरफ रास्ता आता है नजर
सभी दौडे जा रहे हैं
अपने मुकाम का पता किससे पूछूं
सभी हैं बदहवास और दर-ब-दर
कोई उठाकर नहीं देखता नजर
पुण्य प्रसून जी अब कहाँ ज्वाइन कर रहे हैं? या फिर अपना ही कुछ शुरू करेंगें!
ReplyDeletep.p .bhai sab ka sahara se jana sahara ke lie ashubh hai
ReplyDeleteमुझे समझ नहीं आता ये भड़ास है या चमचों का चबूतरा जहां कभी भई कोई आता है और मक्खन मलना शुरू कर देता है । पुण्यप्रसून की आपने जिस तरह ठकुर सुहाती की है वो बदकिस्मती है पत्रकारिता की । आप जैसे लोग क्या पत्रकारिता करते होंगो पता नहीं । जिस पुण्य प्रसून को आप मिलस सार बताते हैं जमाना जानता है कि वो बेहद घटियापन की हद तक अहंकारी है । अपने दफ्तर में काम करने वाले लोगों की नमस्ते का जवाब नहीं देना और जिसका चाहे मान मर्दन करना पुण्य की पहचान है । और सहारा से अगर वो बाहर कर दिए गए तो इसीलिए कि उन्होंने अपने अहंकार का परिचय देते हुए अपने ही पत्रकार भाईयों को मूर्ख और अनाडी बताने की कोशिश की ।वो लोगों को क्या पत्रकारिता सिखाएंगे पहले खुद तहजीब सीख लें । उनके स्टाइल के अलावा उनके पास कुछ नहीं है । वो भी उन्होंने स्वर्गीय एसपी सिंह से चुराया है ।खुद को सरे आम हिंदी न्यूज का अमिताभ बच्चन कहने वाले पीपी को विनम्रता का पाठ सीख लेना चाहिए वर्ना लोग उनका नाम तक भूल जाएंगे ।
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