विनीत खरे
(http://paankidukaan.blogspot.com/)
इस महानगर की भागदौड़ में मैं शायद खो गया हूँ। मैंने अपने को खोजने नाकाम कोशिश की कुछ याद आया लेकिन धुंधला सा।
मैं इलाहाबाद में रहता था , वहाँ के रास्ते गलियां सब अपने थे, जब भी मैं अपनी साईकिल से वहाँ से निकलता था, कोई न कोई चाचा ताऊ मिली ही जाता था। मैं भी उन लोगो को बहुत अदब से नमस्कार करता था। फिर वह अपने घर ले जाते, चाची प्यार से अपने हाथो से बने लड्डू खिलाती फिर हालचाल पूछती थी। ..... लेकिन महानगर में तो कोई एक दूसरे को पहचानते ही नही। लड्डू क्या वह तो नमस्ते तक नहीं करते।
कुछ तो बात है अपने पुराने शहरो में ...
वहाँ के तयौहारों में तो पता चलता त्यौहार है। हफ्तो पहले से ही माँ तैयारी शुरू कर देती थी। वहाँ की होली की बात ही कुछ और। वह् माँ के साथ आलू के पापड़ बनवाते बनवाते चुपके से खाना, गुझिया के बनते समय गरम-गरम चखना, शाम को हास्य कवि सम्मेलन में वह हास्य की फुहार, होली जलने की रात दोस्तो के साथ शहर में घूमना, वह होली के दिन रंगो की बाल्टी, हर तरफ़ अबीर गुलाल .... लेकिन यहाँ तो भाई एक दूसरे को रंग क्या पानी की बूंद नहीं डालता।
यहाँ मरने पर चार कंधे नहीं नसीब होते है. यहाँ रहने वाले एक अजीब सी जी रहे है। जिसमे न प्यार, न रिश्ते , न जज्बात, बस जी रहे है। मेरा मानना है कि ९०% लोगो वही के है लेकिन वहाँ के लोग महानगर में आ के महानरकीय जिन्दगी जी रहे है। पता नहीं क्यों जी रहे है।
विनीत भाई,आपने तो यार ननिहाल याद दिला दिया और आंखे गीली कर दी । इन महानगरों की जिन्दगी ने तो पतलून गीली कर रखी है अगर आप ऐसा ही लिखते दिखाते रहे तो मैं सब धंधा रोजगार छोड़ कर मामी के पास भाग जाऊंगा....
ReplyDeletedr. sab mujhe bhi le chlna....
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