((दोस्तों, इसे पढ़ते हुए थोड़ा रो लेना अकेले में.....प्लीज पूरा पढ़ना...यशवंत))
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आजकल वृंदावन के बनारसीपने को जी रहा हूं। कल रात चार बजे होटल पहुंचा। बंदरों और कुत्तों से भागते, बचते, भटकते, होटल का रास्ता खोजते। कल शाम और रात के दौरान दो मीटिंग की, उसके बाद सिर्फ और सिर्फ वृंदावन के देसजपने को समझता बूझता रहा। सच कहूं, बिना शाम और रात को जिये किसी शहर को आप समझ ही नहीं सकते, समझेंगे भी तो वो आधा अधूरा और अधकचरा होगा जिसे आप अपनी संपूर्ण सत्य राय बताकर दूसरों के दिमाग पर थोप देंगे। कल की यादगार शाम और रात बिलकुल फक्कड़ी के नाम रही। हर दुकान पर मुंह मारते, पान घुलाते, अनजान और अजनबी लोगों से दोस्ती गांठते, उनसे बतियाते, खामखा दांत निपोरते हुए अपनी अति विनम्रता प्रस्तुत करने के साथ अगले आदमी को प्रभावित करते...... गपियाते ....गोलियाते....।
शहरों, लोगों, गलियों, माहौल, रातें, नदी, रिक्शा, पान.....सभी को आंखों में सजो लेने, जी लेने, महसूस कर लेने को हर पल बेचैन मैं कल रात को दिल से थैंक्यू कहा, उपरवाले को, भाई आज तो मजा बांध दिया। जीवन में हर चीज का दुहराव आज ब्रेक हुआ। ऐसा ही कुछ चाहता हूं रोज। देखो, ये नजारा देखकर पीना पिलाना भूल गया। डिप्रेसन गायब। दिल से पाप रार खत्म। लोग कितने अच्छे हैं। सब कुछ कितना सुंदर है। हर शख्स की जुबान पे है....राधे राधे। रिक्शा वाला आगे किसी को चेतावनी भी देता है तो कहना है राधे राधे। दुकान वाला अपने ग्राहक को देखते ही कहता है राधे राधे। मतलब हर बात में राधे राधे। जय हो राधे राधे।
तो वृंदावन की गलियों में रात के वक्त जो मिनी बनारस की झलक मिली, उसे खूब जिया। इस रिक्शे से उस रिक्शे। यहां से वहां। पैदल तो फिर पैदल ही पैदल। पान घुलाय घुलाय के। चुनरी बंधाय के। टिक्का लगाय के। चेहरा हंसाय के। कोई पाप वाप नहीं है। सब राधे राधे। जीवन कितना बढ़िया है। सब मस्त हैं। राधे राधे।
पर ससुरी निगाह ऐसी है अपनी न कि दुख को बुला ही लेती है। गम को देख ही लेती है। अवसाद को बूझ ही लेती है। भीगी पलकों से भीग ही जाती है। और इन दुखों, गमों, अवसादों, भीगी पलकों के साथ संबल बन खड़ा रहने को चल पड़ता हूं। भांड़ में जाये सुख, भांड़ में जाये राधे राधे। मुझे तो इन रुस्तम के साथ जीना है, दुखी होना है, उन्हें पल दो पल की खुशी देना है ताकि लगे कि वो उतने अभागे नहीं, जितना वो खुद अपने को मानते होंगे। वो बहादुर हैं, दुर्भाग्यशाली नहीं।
65 साल के रुस्तम के रिक्शे पर बैठने और फिर उतरने के बाद गौतम बुद्ध सी अवस्था में आ गया। दुख दुख दुख दुख...। रुस्तम की लंबी दाढ़ी से ही उनकी जात धर्म का पता चल जाता है पर इसका सिर्फ प्रतीकात्मक मतलब है, रुस्तम की ही तरह इसी शहर में या उस शहर में कोई कैलाश भी हो सकता है कोई दुखहरन भी हो सकते हैं कोई गुरमीत भी हो सकते हैं कोई जोजेफ भी हो सकते हैं.....। फिर भी, उनसे पूछ लिया, आपका नाम क्या है दादा?
बोले - रुस्तम।
फिर पूछा, तो फिर इतनी उम्र में रिक्शा काहें को खींच रहे हैं, इतने दुबले पतले हैं आप, क्या दिक्कत है आखिर?
रुस्तम दादा बोले...बेटवा, सब नसीब का खेल है।
थोड़ी चाय वाय साथ पी गई और बातें आगे बढ़ी तो रुस्तम की कहानी सुन आंखें भर आईं। किसी को ऐसी स्थिति में न लाये खुदा।
रुस्तम के चार बेटें और तीन बेटियां हैं। तीनों बेटियों को ब्याह कर उनके घर भेज दिया। चार बेटों में से एक के सात बच्चे हैं, दूसरे के पांच और तीसरे के तीन। चौथा कहीं बाहर रहता है अपना परिवार लेके। बाकी तीनों घर पे, रुस्तम के साथ ही। साथ कहें या सीने पे कहें। रुस्तम के बच्चे जो कमाते हैं उसे अपने बच्चों को खिलाने में गंवा देते हैं। तो रुस्तम क्या करें? अगर अकेले होते तो वो भी दाढ़ी वाढ़ी कटवा कर, पहचान छिपा कर, गेरवा वेरवा धारण कर राधे राधे कहते किसी आश्रम में प्रसाद पाते या फिर किसी मस्जिद पर ही चले जाते, दो चार पैसे जुटाकर खा पी जी लेते....मतलब जिंदगी किसी तरह बसर करने के जो हजार तरीके विकल्प स्थितियां हैं जो दुखदायी अदुखदायी दोनों ही हैं, को अपना लेते। पर 65 साले के अब गये तब गये वाली स्थिति में दिख रहे रुस्तम की मां भी अभी जिंदगा हैं। रुस्तम की बेगम साहिबा भी उन पर निर्भर हैं। तो रुस्तम को अपने अवाला दो और जानों की देखभाल, खिलाने पिलाने जिलाने की जिम्मेदारी उठानी पड़ रही हैं और बेटें बेटियां इनमें उनकी एक कौड़ी की मदद नहीं करते या नहीं कर पाते, जो भी हो।
तो रुस्तम ने 65 की उमर में रिक्शा थाम लिया और राधे राधे वाले इस शहर में पूरी अंकड़ के साथ हांफते थूकते मुंह पोंछते सांसें संभालते भरे पेट निकली तोंद वाले स्वामियों, अनुयायियों, संप्रदायियों, यात्रियों....के बीच रिक्शे की घंटी मारते राधे राधे कहते अपने रिक्शे को वनखंडी से रमणरेती और परिक्रमा मार्ग से बस अड्डा ले जाते ले आते। कभी दस तो कभी पांच तो कभी बीस तो कभी कुछ नहीं पाते।
जोड़ गांठकर थक हारकर थूक हांफकर रुस्तम दादा रुपया लुंगी में गंठिया कर घर पहुंचते और अपने और दो स्त्रियों मां व बेगम को खिलाने जिलाने की कवायद में जुट जाते।
मैं सुनता रहा, भींगी आंखों को टपक पड़ने से रोकता रहा। इस पवित्र शहर की इस दुखी आत्मा के जीवन संघर्ष ने मुझे सबसे बड़ा संदेश दिया है। कोई भगवान वगवान नहीं, कोई खुदा वुदा नहीं। सब ढोंग पाखंड है। सब बातें है। सब झूठ है। सब बहकावा है।
रुस्तम की गलती क्या है? रुस्तम को सजा ये क्यों है? पिछला जनम, अगला जनम....सब बेकार की बातें। मन करता है कि गोली मार दूं सबको, एक एक को, सारा उत्सव खत्म हो जाए। सारी हलचल शांत हो जाए। सिर्फ और सिर्फ रुस्तम जिंदा रहे। और मैं देख सकूं उनकी खुशी.....उन्हें सताने, रुलाने, परेशान करने वाली दुनिया के खत्म हो जाने पर उनकी न रुकने वाली पागलों जैसी हंसी, उपर वाले का आभार प्रकट करत हुए कृतज्ञता भरी आंखों के साथ आसमान को निहारते।
पर ये ईंटों, सीमेंट, गाटरों की बड़ी खड़ी दुनिया में संवेदना तो कतई नहीं बसती, इनमें बसने वालों की आत्मा में चतुराई, चालाकी, धूर्तता, मक्कारी, चालबाजी, बनियागिरी, धंधेबाजी, काइयांपना, अवसरवाद.......बसता है। और राधे राधे के आध्यात्मिक इंट्रो के बाद अपने मूल रूप में पूरी विनम्रता के साथ सौदैबाजी धंधेबाजी अवसरवाद मक्कारी ....पर उतर आता है। सखी संप्रदाय के ये पुरुष जो स्त्रियों के वेष में साड़ी पहने मटकते लरजते शर्माते चले जा रहे हैं, उन्हें घंटी मारते हांफते रुस्तम राधे राधे कहकर हटाने की कोशिश करते हैं पर वो हैं कि वो खुद पर टिकी निगाहों को भरपूर समवेत जवाब देते हुए अपिने संप्रदाय के अनोखेपन का वर्णन प्रदर्शन करते चल रहे हैं। रुस्तम ने बड़ी देर की मेहनत के बाद कलेजे से सांस लेते हुए पैडल पर शरीर का पूरा जोर मार मार कर रिक्शे की जो स्पीड बनाई थी, इन सखियों के इसी मचकपने में उस पर ब्रेक लग जाता है। रिक्शा रुका तो रुस्तम की सांसते थामे नहीं थमी, धौंकनी की तरह उठते गिरते सीने से निकलती सांसें मुंह दाढ़ी समेत पूरे बदन को हिला रही थीं। ओफ्फ....क्या करें इस शांति, सुख, सौंदर्य, राधे राधे का......
रुस्तम रुके, थमे, फिर हांफते हुए पैदल ही रिक्शा खींचने लगे। हम उतर गए। रुस्तम से बतियाते, बातें करते सड़क की चढ़ाई पार करने।
रूस्तम ने बीस रुपये मांगे, बीस दिए। बातें शुरू हुईं। चाय पी गई। और उनके दुख से दुखी मैं भीगी आंखें लिए जब यह कहते हुए उनसे अलग हुआ कि रुस्तम दादा, आप बहुत बहादुर हैं। आप इस शहर के असली संत हैं, असली तपस्वी हैं, मुझे गर्व है कि मैंने आपका दर्शन किया। और....मैं आगे बढ़ गया। साथ वाले साथी ने बाद में बताया.....यशवंत, तुमने रुस्तम को रुला दिया।
सोचता हूं, रोने हंसने में कोई खास फर्क नहीं है। अच्छे बुरे में कोई खास फर्क नहीं है। संत राक्षस में कोई खास फर्क नहीं है। जीवन मरण में कोई खास फर्क नहीं है। अवसाद प्रसन्नता में कोई खास फर्क नहीं है। दुख सुख में कोई खास फर्क नहीं है। मेरे होने न होने में कोई खास फर्क नहीं है। आपके कहने न कहने में कोई खास फर्क नहीं है........
और शायद यही शिवत्व है, यही मुक्ति है, यही आनंद है, यही अमरता है.....जिसे पा लेना चाहिए, हम सभी को। हम भड़ासियों को। हम मनुष्यों को......ताकि
हाय हाय मार मार भाग भाग चल चल चढ़ चढ़ काट काट दौड़ा दौड़ा गिरा गिरा सफल सफल हार हार जीत जीत .....के चूतियापे से उबर कर केवल संवेदना बड़प्पन को जिया जा सके......
क्यों भाई लोग, आप लोग क्या सोचते हैं महाराज....कहिए राधे राधे.....
वंदावन के सबसे बड़े संत रुस्तम दादा को सलाम करता हूं क्योंकि ...
1- जाति धर्म मजहब अलग होने के बावजूद वे असल भारतीय हैं। राधे राधे उनकी जुबान से इसलिए नहीं फूटता कि वे बहुसंख्यक हिंदू बहुस शहर में रहते हैं, इसलिए फूटता है कि वृंदावन की ये जुबान है, मैं खुद यहां फोन आने पर राधे राधे करने लगा हूं.....वो फोन चाहे मेरे गांव गाजीपुर से क्यों न आया हो। ये वृंदावन का असर है। यह साझी संस्कृति है। यह मिट्टी की खुशबू है।
2- बुजुर्ग होने के बावजूद, बेटों के मुंह फेर लेने के बावजूद जिंदगी से हार न मानी, रार न ठानी। जिंदगी को जीने की ही राह पर चलते रहे। भले उतना ही पसीना बहाना पड़ रहे हो जितना जवानी में बहाते थे तो कोई फरक नहीं पड़ता था और अब बहा रहे हैं तो पूरा शरीर हिलने लग रहा है।
3- बेटियों बेटों पर उम्मीद करने, उनसे मांगने, उन पर निर्भर होने की बजाय....मुश्किल आने पर खुद दौड़ पड़े अपनी शहर की सड़कों पर, रिक्शा खींचते। किसी से क्यों हाथ पसारे, जब तक है दम में दम, जी लेंगे हम।
4- धर्म, नोटों, मंदिरों, रास, मस्ती, आनंद, मस्ती, ईश्वर....वाले शहर की खुशी से थोड़ा भी दुखी ना होते हुए उनके साथ दिखने रहने की कोशिश करते हुए भी अपने दुख को न बताना, न प्रकट करना, न खोलना। बस अपने काम से काम रखना। यही तो लय है।
5- एक बहादुर इंसान, जिसे किसी पल आई किसी मुश्किल से कोई घबराहट नहीं, कोई ढोंग नहीं, कोई पाखंड नहीं। बिलकुल साफ पारदर्शी जीवन। मुश्किल है तो है, हल कर। आगे बढ़। जिंदगी जी। दुखों से लड़। आगे बढ़े।
जय हो रुस्तम की
जय भड़ास
यशवंत
DADA ISE HI KAHTE HAIN ASLI TAKAT.RUSTAM JAISE LAKHON LOG APNI JINDGI KO GHASIT KAR JI RAHE HAIN.CHALIYE AAPNE UNKO KAMSEKAM SAHANUBHUTI TO DI.SABHI LOGON KE SHAHAR,GAANV MEIN AISE RUSTAM HAIN,AGAR HAM UNKA BHALA KAR DE TO SAREE TIRTH HO JAYE DAADAA.
ReplyDeletepadh kar hil gaya guru. aap Hyper sensitive aadmi hain. yahi tatwa Manto me tha, Brecht, Hemingwe, Nirala, Kazi Nazrul Islam wagerah me tha. abhi yah lekh man me ghul raha hai...ankhon me sara manzar tair raha hai.
ReplyDeleteदादा,रुस्तम दादा ने आंसू निकाल दिये और अगली ही पोस्ट पर हंसी उबल पड़ी ,पंकज जी सही कह रहे हैं कि आप हाइपर सेंसटिव हैं पर यह प्रशंसा है मैं इसी को इंसानियत के स्केल का उच्चतम बिंदु मानता हूं....
ReplyDeleteJai ho rustamji ki, radhe radhe, har-har mahadev
ReplyDeleteवृंदावन के घाट पर जुटे भड़ासी संत।
ReplyDeleteठाकुर जी चंदन घिसैं तिलक करैं यशवंत।
संत यशवंत की जै.....
यशवंत जी ऎसे रुस्तम ओर भी हे हमारे आसपास फ़र्क बस इतना हे यह दादा रिक्शा चलाते हे,दुसरे अपने कर्मो को रोते हे,ओर कई बार हम चाह कर भी मदद नही कर पाते, चाहे वो रुस्तम हमारे अपने ही कयो ना हो,एक सोया दर्द फ़िर से याद दिला दिया आप ने
ReplyDeleteरुस्तम की कहानी सुना कर सहानुभूति रखना या बेचारगी दिखाना एक टुच्ची हरकत है,
ReplyDeleteजिसे आप द्वारा करते देखा टू दुःख हुआ |
आज हर आदमी के अन्दर एक रुस्तम है, जनाब आप किस किस की कहानी पर भड़ास निकालोगे यशवंत जी ?
aapke visleshan preshan kiya...
ReplyDeletetisri dfa padhne pr kuchh kahne ka sahs kr rha hoon....
do dfa hath kap gye