16.3.08

कैसा ये गर्व स्वयँ पर

Sandeep Bundela
sandeepbundela@gmail.com

कैसा ये गर्व स्वयँ पर

कभी लगे, मैं शक्ति पुंज हूँ ;
कभी लगे हूँ रेत का घर ।

कभी लगे, मैं पुण्य रूप हूँ ;
कभी लगे हूँ पाप का गट्ठर।

कभी लगे, मैं अजर-अमर हूँ ;
कभी लगे हूँ बिल्कुल नश्वर।

कभी लगे, हूँ भावुक कोमल;
कभी लगे हूँ जैसे प्रस्तर।

दैव रूप, या दुर्दम दानव,
या फिर साधारण सा मानव,
एक विधाता कि सब रचना;
फिर बोलो कैसा ये अन्तर?

साधारण बुद्धि कहती,सजीव हूँ,
पर हूँ निर्जीवोँ पर निर्भर।
प्रकृति चक्र जब सब पर निर्भर,
फिर कैसा ये गर्व स्वयँ पर।

--Sandeep Bundela

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