Sandeep Bundela
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कैसा ये गर्व स्वयँ पर
कभी लगे, मैं शक्ति पुंज हूँ ;
कभी लगे हूँ रेत का घर ।
कभी लगे, मैं पुण्य रूप हूँ ;
कभी लगे हूँ पाप का गट्ठर।
कभी लगे, मैं अजर-अमर हूँ ;
कभी लगे हूँ बिल्कुल नश्वर।
कभी लगे, हूँ भावुक कोमल;
कभी लगे हूँ जैसे प्रस्तर।
दैव रूप, या दुर्दम दानव,
या फिर साधारण सा मानव,
एक विधाता कि सब रचना;
फिर बोलो कैसा ये अन्तर?
साधारण बुद्धि कहती,सजीव हूँ,
पर हूँ निर्जीवोँ पर निर्भर।
प्रकृति चक्र जब सब पर निर्भर,
फिर कैसा ये गर्व स्वयँ पर।
--Sandeep Bundela
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