27.4.08

पत्रकारिता तो गई गदहिया के उसमें ए रामू!

जेपी नारायण

पूंजी लूटने का इस समय सबसे मजबूत मोहरा मीडिया। बातें क्रमशः सौ (प्रतिदिन दस) काल्पनिक पात्रों के माध्यम से। पत्रकारों ही नहीं, पूरे सिस्टम के मन की गांठें खुद-ब-खुद खुलती जा रही हैं....कितने धूर्त और लंपट हैं मीडिया के भारतीय आकाश पर चमकते कुछ चांद-सितारे, एक-एक चेहरे पर कई-कई चेहरे चढ़ाये हुए, कर्मचारियों को हुरपेटते हुए और अपने हुजूरों के सामने दुम दुबकाए हुए, कैसे-कैसे खोखलेजी दर्शन और राजनीति के महामहोपाध्याय बने डोल रहे हैं, और अंदर खाने मचा हुआ है हाहाकार। हर अखबार या चैनल का हर तीसरा आदमी अपने हालात से उकताया हुआ कहीं और नौकरी पाने की जुगाड़ या ताक में। यानी भीतर-ही-भीतर पानी खदबदा रहा है।

1. विनोद मदहोशी जी देश के सबसे बड़े अखबार के सबसे बड़े संपादक हैं। अपनी लखटकिया नौकरी बरकरार रखने के लिए रोजमर्रा के अखबारी कुकर्म निपटाते हुए, हर किसी को हूल-पट्टी पढ़ाते हुए, अपने ऊपर वाले से रिरियाते, नीचे वाले से खिखियाते हुए, स्वदेशी से विदेशी पूंजी तक के गुणा-भाग लगाते हुए, सपने में भी एनसीआर-एनसीआर गुनगुनाते हुए हर हफ्ते अपने अखबार में चोंतभर बस्सैनी लीद फिर देते हैं। लफ्फाजी फिरना उनका पुराना शगल है। इसके बाद शुरू होता है दूसरे पायदान पर यानी दूसरे नंबर के मातहत का लाजवाब अल्हैती-गायन। वाह्ह-वाह्ह, वाह्ह-वाह्ह। आज तो आपने कलम तोड़कर रख दी। आपका लेख पढ़के अब तक सीएम-पीएम गश खा चुके होंगे। हीहीहीहीहीहीही....

2. मदहोशी जी होश-हुनर के पूरे हैं, पक्के पहाड़ी घूरे हैं। आज कल मैदानी क्षेत्रों में मैदान किए जा रहे हैं। उनके अखबार में नौकरी की पहली शर्त है पहाड़ी होना। आप पहाड़ के नहीं तो किसी काम के नहीं। उनकी लालटेन सिर्फ पहाड़ पर जलती है। मैदानी के नाम पर भुकभुकाने लगती है। मीडिया में ये खफ्तुलहवासी किस्म का क्षेत्रीयतावाद कहा जा सकता है। उनके इर्द-गिर्द पल रहे मैदानी भाई-बंधु मन-ही-मन कलपते रहते हैं, मसोसते रहते हैं कि काश हम भी होते पहाड़ के डब्लू-बब्लू ....। सालो से पहाड़ी दर्रे में बेमतलब दरकचा रहे हैं। न कोई इंक्रीमेंट, न प्रमोशन। ऐसे लोग धीरे-धीरे या तो इधर-उधर, अगल-बगल के ठिकानों की ओर लपक रहे हैं, खिसक रहे हैं या झक्क में शाम को तीन-चार पैग सूत कर पट्ट हो ले रहे हैं।

3. एक हैं मिहिर जी। देश के धक्काड़ जर्नलिस्ट। तीन दशक से दिल्ली के चुनिंदा मठाधीशों में एक। उनका एक अदद मकसद होता है सत्ता के चरणों में लार पौटाते रहना। लार पौटाते-पौटाते फूलकर गैंडा हो चुके हैं। सियासत और मीडिया के विविध आयामों के साथ इन दिनों करोड़ों में खेल रहे हैं। उनकी पत्रकारिता से भौचक्के कई और वनगैंडे ताल-में-ताल मिलाकर वैसा ही हो लेने के लिए सालो से बेकरार हैं, लेकिन किल्ली-कांटा बैठ नहीं रहा। सो, यदा-कदा मिहिर जी के साथ मय-मेहमानी के दौरान कसीदे पढ़ते रहते हैं, अभिभूत होते रहते हैं, देश-विदेश की राजनीति पर अपनी पंडिताई झाड़ते रहते हैं। इन अट्ठों-पट्ठों की नब्ज से पूरी तरह वाकिफ मिहिर जी उनकी बातों पर भंगेड़ी धृटराष्ट्र की तरह मंद-मंद मुस्काते रहते हैं। खुदा-न-खास्ता किसी पर मेहरबान हुए तो किसी विदेशी थैलीचोर से दो-चार करोड़ का सौदा कराते हुए कहते हैं, जाओ वत्स! अपने स्वामी के चरणों में लोट जाओ....!!

4. बकचोद जी किसी टाइम्स-फाइम्स के कलमगीर रहे हैं। देश के नामी सटायरबाज हैं। अपने और अपने संस्थान को छोड़ पूरी दुनिया पर अपनी कुंद-कलम के बंदूक चलाते फिरते रहे हैं। कहा जाता है कि उनके पीछे सीख-पढ़कर पास दो-तीन दर्जन कुख्यात पत्रकारों का गिरोह बटमारी करता रहता है। यूपी के माफियाओं के साथ उनकी अच्छी ऊठक-बैठकी है। उनके साथ तूतक-तूतक तूतिया करते-करते बकचोद जी खुद को ही एक समय में तो पत्रकारिता का सबसे बड़ा माफिया मानने लगे। अपनी इज्जत-बेइज्जत से बेफिक्र, मान-सम्मान से परे संतई मुद्रा में कुछ दिनों से इतने आभाहीन और पिनकी हो चुके हैं कि अपने अखबार समूह के पुरखों को भद्दी-भद्दी गालियां देते रहते हैं। कहते हैं...कितना-कुछ किया हरामखोरों के लिए, झुंड-के-झुंड पत्रकार कौड़ियों में टांग लाये, पन्ना-का-पन्ना विज्ञापनों के अंबार लगा दिए और आज मुझे ये दिन देखने पड़ रहे हैं। कभी सिर्फ विदेशों में पिकनिक किया करते थे, आजकल मोहल्ले वालों से पान मसाला के पैसे मांगने पड़ते हैं।

5. प्रणामी जी, अभी कुछ ही दिन हुए प्रधान संपादक पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। सारा खून अपने अखबार को पिलाकर पूरा देह ठठरी भर बचा है। रिटायरमेंट के दो ही महीने में चेहरा आरके लक्ष्मणन का कार्टून हो चला है। पत्रकारिता पर किताबें लिखते रहे हैं। उनके पढ़े शिष्य कभी-कभार दिलासा देते रहते हैं कि अफसोस मत करो गुरू जी, अंत में सबकी यही गत होती है। आपको कंधा देने वालों की लाइन लग जाएगी। क्या खूब हेडिंग लगाते थे आप, क्या खूब संपादकीय लिखते थे। ...और आज आपका कोई नामलेवा नहीं। अगर आप अपने आखिरी दिनों में बौरा नहीं गए होते तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। आपसे मिलने आना चाहता हूं, लेकिन आपकी कटखनी बीवी से बड़ा डर लगता है, अब तो वह और सठिया गई होगी।

6. बिरजू प्रधान मीडिया में लच्छू घराने से आये हैं। लच्छू घराना पत्रकारिता के लक्ष्योन्मुखी मिशन के लिए मशहूर रहा है। सबसे पहले पराड़कर जी ने इस घराने को दीक्षित किया था। आजकल इस घराने के ज्यादातर लोग कटहल छील रहे हैं। बिरजू प्रधान की कटहली-पत्रकारिता से अभिभूत एक भूतपूर्व सीएम ने उन्हें उनके घर पहुंचकर एक लाख की कट्टू उपाधि से नवाजा था। बिरजू प्रधान का मझला बेटा कुछ दिनो पहले ब्लू फिल्मो की सीडी सप्लाई करते हुए पकड़ा गया है।

7. मीडिया जगत में दिगंबर दादा के नाम से प्रसिद्ध दिग्गू जी रिटायर होने के बाद भी कर्मचारियों का खून पी रहे हैं। चंदन-टीका लगाकर ठीक दस बजे दफ्तर में आकर बैठ जाते हैं। दिन भर भीतर मालिक से तीया-पांचा भिड़ाते रहते हैं, बाहर संपादकीय कर्मियों में से किसी घर की बिजली ठीक कराने, किसी को मोहल्ले की सड़क पर डामर डलवाने, किसी को अपनी खटारा (जो कभी मालिक की थी ) की सर्विस कराने तो किसी को लादकर घर पहुंचाने का हुकुम सुनाते रहते हैं। सबसे ज्यादा आजिज तो दफ्तर का चपरासी रामभरोसे। भुनभुनाता रहता है....लगता है मुझे ही चार डंडा बजाकर इसे निपटाना पड़ेगा, नौकरी रहे चाहे जाय। साला बात-बात पर तू-तड़ाक करता है, दिन भर में पचास गिलास पानी पीता है, आधा थूकदान में गुड़गुड़ा देता है।

8. महासंपादक भुवनचंद्र आज कल इस बात से बहुत हैरान-परेशान हैं कि हर कर्मचारी उनके पीठ पीछे उन्हें गाली क्यों देता है? गाली भी कोई हल्की-फुल्की नहीं कि पीछे से डालकर आगे से निकाल लूंगा। क्यों? .....कि मालिक के चेंबर में बैठकर हम लोगों की चारपाई बुनता रहता है। अब बहुत हो गया। बुनो चारपाई, हम तो इकट्ठे खाट खड़ी करने वाले हैं। तब न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। बहुत हो गई नौकरी....पीछे से डालकर आगे से निकाल लूंगा। ...ऐं...सच्ची....ऐसा क्या? आखिर इतने गुस्से की कोई खास वजह? हां-हां, है ना। दफ्तर की लड़कियों से पेंच लड़ाता रहता है। वे भी सब समझती हैं। कहीं लड़कियां ही न किसी दिन बीच दफ्तर बीन बजा दें।

9. मीडिया की आंखों में सुर्ख डोरे उभर आए हैं। टुंडा ने अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए जो तरकीबें इजाद की हैं, बाकी सभी चैनल पीछे-पीछे उसी राह पर चल पड़े हैं। वेश्याओं का स्टिंग आपरेशन करो। हिरोइनो को चड्ढी-चोली में कैटवाक कराओ। नई पीढ़ी के साथ कोकशास्त्र पर डिबेट करो। एकरिंग के लिए पहली शर्त होगी बार गर्ल होना या जेंट्स है तो एक झटके में नीड अद्धा सुड़ुक जाना। नारी उत्थान कार्यक्रम में सहवास की दशा-दिशा से दर्शकों को रू-ब-रू कराना। नुस्खे कामयाब रहे। टीआरपी धांय-धांय बढ़ रही है। कोठों पर मुर्दनी छायी हुई है। ब्ल्यू सीडी का धंधा करने वालों को सांप सूंघ गया है। टुंडा मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं। अब वे सीडी के बजाय डाइरेक्ट इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करने के लिए सरकार से लाइसेंस मांगने वाले हैं। कोठा तो कोठा, एक कोठा और सही।

10. आइए आखिर में स्तंभकार जोगिंदर जी की चार लाइनें आपको भी सुनवाइ देते हैं.....

नाचो खूब नचाओ रंभा....
चोंथो-चोंथो चौथा खंभा....
पत्रकारिता तो गई गदहिया के उसमें ए रामू!

सभी नाम काल्पनिक, बाकी सब सही-सही
((पत्रकारिता की कोख में कैसे-कैसे पापः भाग चार : साभार : बेहया http://behaya.blogspot.com))

6 comments:

  1. भगवान करे कि जे.पी.जी की बेहयाई इसी रंग में बनी रहे और बड़े-बड़े सफेदपोशों के मुंह काले होते रहें.....
    ढिठाई,बेहयाई और भड़ास का काकटेल एक दिन क्रांति ला देगा और जिसने इसे एक बार पी लिया तो पक्का बेवड़ा हो जाएगा.....

    ReplyDelete
  2. wah waah JP naam hi kammal ke baa to akhir men sasur ke naati sab ke kaarkhana khulwa delan,

    jai ho JP,
    jai ho yashvant.

    jai jai bhadaas

    ReplyDelete
  3. नंगा सत्य बड़ा भयावह होता है. पत्रकारिता से लोग घृणा न करने लगें कहीं. आख़िर पत्रकार भी तो उसी गलीज व्यवस्था की पैदाईश हैं जिसने आज समाज के बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले रखा है.
    वरुण राय

    ReplyDelete
  4. bhadas ka matlab yeh nahi ki sabdon ki maryada ka khyal hi nahi rahe. jo batt kisi ko kataksh se chubhati hai vo gali dene se nahi gali bakne se aadmi pagal sa lagta hai aaur uski aavaj bhi moti chamdi per beasar hai aise me kataksh karne ki kala sinkhe

    ReplyDelete
  5. अनाम, बेनाम, सुनाम, कुनाम

    आप जो भी हो। भाई हों , बहन हों । कुछ भी कहें गुमनामी के अंधेरे से ना कहें। आ जाओ भडास का सूरज निकला हुआ है , रौशनी में नहा कर, रौशनी से धो कर उजाले के गलिआरे मे जो बकना है बको। और मित्र मर्यादा की बात कभी मत करना क्योँ की मर्यादा में वह रहते हैं जो सबसे ज्यादा गैर्मर्यादित हैं, साले सफेदपोश शैतान, सफेदी के पीछे की गंदगी, अरे हम उलटी भी करते हैं तो सबके सामने, किसी के पीछे जा के उसकी चध्ही नही धोते।

    नाम भडास, काम उगलना, चाहे जहर या सुबोध।

    बस उगलना।

    फ़िर कभी मर्यादा की बात मत करना। जिसने मर्यादा की बात करी चुतिये की गांड साले अपने बाप से तो मर्यादित रहे नही। अपनी अम्मा को गरियाने में किसी को मर्यादा नही याद आता। मगर समाज का सफ़ेद लबादा ओढ़ने के लिए मर्यादा, साले गांड मारे ऐसी मर्यादा की खुजली वाले कुत्ते को।

    जय जय भडास

    ReplyDelete
  6. Seh ich auch so

    ReplyDelete