16.4.08

पलकों में आंसूओं को


पलकों में आंसूओं को छुपाते चले गए।
हम इस तरह से इश्क निभाते चले गए।।

मैं कहते कहते थक गया कि मैं नशे में हूं।
लेकिन वो मुझको और पिलाते चले गए।।

हर जख्म नासूर बन चुका था मगर वो।
सितम दर सितम हम पर ढाते चले गए।।

चलने का तमीज मुझको आ जाए एक बार।
इसलिए नजरों से बार बार वो गिराते चले गए।।

अबरार अहमद

3 comments:

  1. अच्छी कविता है.

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  2. भाई
    कहीं इश्क विश्क का चक्कर तो नही है,

    वैसी लिखा अच्छा है।
    बधाई

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