23.4.08

मनीषा नाम के हिजड़े का भड़ासियों द्वारा बहिष्कार प्रशंसनीय है,यही होना चाहिये.......


एक तरफ भड़ास से जुड़े लोग भावुक होने का नाटक करते नहीं थकते हैं, लोगों की बातों में मीन-मेख निकालते नहीं थकते हैं, महिला-दलित चिंतन का घंटा इधर भी पूरी ताकत से बजाने से पीछे नहीं हटते हैं तो ऐसे में भला इनके बीच में एक हिजड़े का क्या काम हो सकता है? उसे तो भगवान ने भी दंडित कर रखा है तो भला हम जैसे भावुक किस्म के भड़ासी उसे अपने बीच क्यों जगह दें। इसलिये सबसे सुन्दर तरीका अपनाया है कि इसे तो बस नज़रअंदाज करे रहो, इग्नोर करे रहो तो एक दिन अपने आप ही हौसला पस्त हो जाएगा और वापस लौट जाएगा अपनी नारकीय दुनिया में जहां से आया है। हम जैसे कुछ दो-एक जड़बुद्दि लोग हैं जैसे कि यशवंत दादा,मुनव्वर आपा और मैं जो उनकी ओर तवज्जो देते हैं बाकी लोग इस हिजड़े की तरफ तो देखिये भी मत वरना अशुद्ध हो जाएंगे इसका लिखा पढ़ कर कहीं आप भी हिजड़े बन गए तो गजब हो जाएगा। इसलिये बेहतर है कि लड़कियों को प्रोत्साहित करिये जो कि पुण्य का काम है,महिला मुक्ति का पुनीत कार्य है या फिर किस्सागोई और कविताओं का हलुआ सानिये और एक दूसरे को चटाते रहिये। अगर किसी हिजड़े के लिखे पोस्ट पर कमेंट कर दिया तो उसकी हौसलाअफ़जाई हो जाएगी जोकि हमारे सभ्य समाज के लिये ठीक नहीं है। आज लिख रहा है कल को हमारे साथ बैठ कर खाना खाएगा मुझे तो ये सोच कर भी उल्टी आ रही है। सुन्दर लड़कियों की बात ही कुछ और है मुनव्वर आपा के शब्दों में कहूं तो सुन्दर लोगों का तो पादना भी लोगों को संगीत और हगना भी व्यंजन बनाना लगता है। मैं उन सभी भड़ासियों का आभारी हूं जिन्होंने मनीषा नामक हिजड़े को भड़ास में पर हाशिये पर सरका रखा है भले ही वो ऊपर सलाहकारों में हो। आप सबका हार्दिक आभार व्यक्त करते हुए एक बार फिर से उनका पोस्ट पेल रहा हूं अब मैं बस आने वाले दस दिनों में यही एक पोस्ट दुराग्रही,हठी,दंभी की तरह से रोज सुबह-सुबह डाला करूंगा और आप लोग इसे
नज़रअंदाज करके कविता-कहानी डालते रहना बस शाम तक फिर ये किनारे सरक जाएगा और आप लोग ऊपर आ जाएगें

कुदरत मानव जाति को नष्ट कर रही

हैआज एक चैनल पर एक कार्यक्रम में "गे" और "लेस्बियन" लोगों पर बात चल रही थी, कुछ लोगों का इंटरव्यू भी था। उसे देखने पर दिल और दिमाग के साथ मेरे पूरे अस्तित्त्व में भूकंप सा आ गया। नवयुवकों ने स्त्रियों की तरह से लाली-पाउडर लगा रखा था और बड़े ही भावुक अंदाज में दलील दे रहे थे कि हमारे साथ ईश्वर ने नाइंसाफी कर दी है हम लोग मन और आत्मा से तो औरत हैं लेकिन मर्दाने जिस्म में कैद हैं वगैरह..वगैरह....। इसी तरह से लड़कियों ने भी पुरुषों की तरह से बाल छोटे कटवा रखे थे और वे भी कुछ इसी अंदाज में ईश्वर की नाइंसाफी का बखान कर रही थीं और स्टूडियो में आमंत्रित जनता भी उनसे सहानुभूति जता रही थी। मैंने जीवन में पहली बार ईश्वर को धन्यवाद करा था मेरे बड़े भाई डा.रूपेश श्रीवास्तव से मिलने पर और दूसरी बार अब दिया कि हे भगवान आपने मुझे आंगिक(लैंगिक) विकलांगता दी जो मेरे ही न जाने किन किन पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है लेकिन कम से कम बुद्धि तो संतुलित दी है वरना अगर इन लोगों जैसी बुद्धि होती तो ज्यादा कष्ट होता। गुरुशक्ति का स्मरण कर स्थिरचित्त होकर बैठने पर सोच को एक नया आयाम मिला है कि ये लोग दिमागी मरीज हैं और मैं इनसे सर्वथा भिन्न हूं। "गे" और "लेस्बियन" लोगों के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोग भी इसे ईश्वरीय अन्याय ही मानते हैं जैसा भगवान ने इन्हे बनाया है वैसे वे हैं भला इनका क्या दोष...। सत्य है इनका दोष नही है बल्कि दोष है समाज का जो इन्हें मनोरोगी न मान कर सामान्य मान लेता है और उचित उपचार की प्रेरणा नहीं देकर जस का तस स्वीकार लेता है। एक इंसान जिसे ईश्वर ने पुरुषांग से सजा कर पुरुष बना कर भेजा किन्तु जब वह किशोरावस्था में प्रवेश करता है और उसका परिचय हारमोन्स के परिवर्तनों से उपजी यौनभावना से होता है, उस दौरान यदि वह किसी मनोयौनरोगी किस्म के व्यक्ति के सम्पर्क में आ जाता है। जिससे उसे पहली बार यौन भावना की अभिव्यक्ति और उसके उद्दीपनकर्म से होता है तो उसे वही सब नैसर्गिक और सहज लगता है। जैसा कि आयुर्वेद में बताया गया है कि व्यक्ति के आहार-विहार-विचार से उसके अंतःस्रावी ग्रन्थियों यानि कि पूरे एंडोक्राइन सिस्टम पर प्रभाव पड़ता है और वे उसी के अनुरूप हो कर क्रियाशील हो जाती हैं, समय के साथ ही ये भीतर ही भीतर इस बात का अनुकूलन भी हो जाता है। इसलिये शरीर के हार्डवेयर को कुदरत द्वारा निर्धारित जो साफ़्टवेयर्स चलाते हैं उनमें से लैंगिक आयाम से संबद्ध साफ़्टवेयर करप्ट हो जाता है और मर्द खुद को औरत और औरत खुद को मर्द समझने लगते हैं। इस बात पर जरा गहराई से विचार करिये कि यदि कोई बच्चा ’स्टारफिश’ जैसी जिंदगी जीना चाहे तो आप उसे क्या समझेंगे? ’स्टारफिश’ का पाचन संस्थान (digestive system) कुदरत ने ऐसा डिजाइन करा है कि वह जिस अंग से भोजन ग्रहण करती है उसी अंग से पाचन हो जाने के बाद अपशिष्ट मल का उत्सर्जन भी उसी अंग से कर देती है यानि कि मुंह और गुदा का काम एक ही अंग करता है। जबकि मानव देह में पाचन संस्थान की उक्त प्रक्रिया मुंह द्वारा भोजन ग्रहण करने के बाद गुदा द्वारा मल त्याग करने पर पूर्ण होती है। किंतु मानव अगर ऐसा करे कि पाचन के बाद उल्टी करके निकालने का प्रयास करे और इस प्रयास को तर्क से उचित ठहराए तो आप उसे क्या कहेंगे? मेरी नजरों में तो वह विक्षिप्त ही होगा। यौनकर्म में कुदरत ने आनंद की एक विशेष अनुभूति को इसलिये छिपा रखा है कि मानव उसी अनुभूति के लिये संभोग करे और प्रजनन होता रहे व वंशक्रम चलता रहे और प्राणियों की ये प्रजाति लुप्त होने से बची रहे। किन्तु विकास के क्रम में ये संतुलन मानवों द्वारा गड़बड़ा दिया गया और बुद्धि का प्रयोग निसर्ग से हट कर करना शुरू कर दिया। आज के दौर में मानव ने यौनकर्म को दो सर्वथा दो भिन्न हिस्सों में बांट दिया - प्रजनन और यौनानंद। आनंद की प्राप्ति के लिये कुदरती तरीके से भिन्न उपाय सभ्यता के विकास के साथ खोजे जाने लगे। धीरे-धीरे प्रजनन देह से हटकर प्रयोगशालाओं की परखनलियों (test tubes) में सिमटता जा रहा है और शरीर मात्र आनंद का उपकरण बनता जा रहा है।मुझे ऐसा आभास हो रहा है कि कदाचित कुदरत ही अपना संतुलन बनाए रखने के लिये ऐसा कर रही है कि एक एक दिन मनुष्यों की बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के विकराल प्रश्न का एकमात्र उत्तर स्वयं ही सामने आ जाएगा और वह उत्तर है - "समलैंगिकता"। इसी समलैंगिकता के चलते कुछ समय में ही मानवजाति की जनसंख्या स्वयं ही सिकुड़ने लगेगी और अगर यही हाल रहा तो एक दिन धरती से मानव लुप्त हो जाएंगे, खत्म हो जाएगा आदम का वंश..........:- "अर्धसत्य" से सादर
जय जय भड़ास

7 comments:

  1. ठीक किया डाक्टर साहब आपने। एक अपनी साथी हैं मनीषा दीदी। कितनी मुश्किल से तो लिखने पढ़ने की दुनिया में आई हैं। अगर उनका हौसला अफजाई न किया जाएगा तो उन्हें निराशा होगी। उम्मीद है आपके तेवरों से बाकी भड़ासियों की चेतना लौटेगी।

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  2. डाक्टर साहब आपकी सजगता वाकई काबिलेतारीफ है। आपके कमेंट भी अमूमन हर भडासी के कमेंट बाक्स में मिल जाएंगे। आपकी शिकायत को दूर करने का प्रयास करूंगा। मनीषा जी को कहिएगा कि वह खूब लिखें कमेंट की चिंता ना करें। उनकी पोस्ट जरूर पढी जाती है कमेंट भले न आते हों। जब से मैं देख रहा हूं भडास पर किसी साथी की पोस्ट ने 20 कमेंट से उपर का आंकडा नहीं पार किया है इसका मतलब यह नहीं कि लोग पढते नहीं 270 भडासी सभी को कमेंट नहीं करते यदि करते तो उपरोक्त आंकडा कुछ और ही होता। इसलिए यह सोच कर कोई साथी लिखना छोड दे कि कमेंट नहीं मिल रहे गलत है। मनीषा जी पढी जाती हैं यह बात सत्य है। रही कमेंट की बात तो मैं व्यक्तिगत तौर पर इसका ख्याल रखूंगा। अच्छा लगा कि आप दूसरों के बारे में इतना सोचते है।

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  3. डा० साहब ऐसा तो हो ही नही सकता
    कि किसी भडासी को या उसकी पोस्ट को
    नज़र अंदाज़ किया जा सके, हर व्यक्ति की एक
    अलग शख्सियत है, और एक अलग ही
    विचारधारा भी। व्यक्तिगत स्तर पर मुझे
    मनीषा की पोस्ट हमेशा से विचारोत्तेजक लगी हैं।
    रही बात आपके द्वारा कमेंट ना करने की तो
    वो बात एकदम जायज़ है और हम सभी को
    इस का ध्यान रखना होगा चूंकि ना केवल इससे
    प्रोत्साहन मिलता है, अपितु सभी लोगो के
    विचारों का आदान प्रदान भी होता है।
    ये तथ्य प्रकाश में लाने के लिये सादर
    धन्यवाद।
    अंकित...

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  4. अबरार भाई,डा.रूपेश श्रीवास्तव दूसरा तो किसी को समझते ही नहीं हैं बस यही तो है उनका बड़प्पन। मैं यशवंत दादा की बात से सहमत हूं कि अगर किसी की हौसला अफ़जाई भी न कर सकें तो फिर भला क्या अंतर मौहल्ला या भड़ास में,कुछ बच्चे जो चल नहीं पाते उन्हें विशेष देखभाल की जरूरत होती है जब वे चलने की कोशिश करें बस वैसा ही कुछ है मनीषा दीदी के साथ में; कमेंट की चिंता उन्हें नहीं है बल्कि हमें होना चाहिये वो तो हम सब से बहुत बड़े दिल वाली हैं। उनका लिखा हुआ या उनपर लिखा हुआ diaryofanindian.blogspot.com
    visfot.blogspot.com
    पर भी आपको मिल जाएगा तो कम से कम हम तो उनकी कद्र करें। एक-दो लाइन लिखने से कोई छोटा तो नहीं हो जाएगा.......

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  5. सुल्ताना जी बुरा मत मानिएगा अब आप भी नहीं नजर आतीं भडास पर।

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  6. बुरा क्या मानना मेरे भाई,स्कूल में बच्चों की परीक्षाएं चल रही हैं तो जरा कम ही वक्त मिल रहा है अभी उत्तर पुस्तिकाएं जांचनी हैं और फिर रिजल्ट....

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  7. रुपेश भाई,
    वैसे से मैं सुरु से ही मनीषा जी के लेखनी का प्रशंशक रहा हूँ, और जिस बेबाकी से वह लिखती हैं वो सिर्फ़ काबिले तारीफ नही है अपितु वह हमारे, आपके जैसे झूलते लोथरेधारी और दो इंच की जगह वाली को जो अपने आपको समाज समझते पे बड़ा करारा तमाचा होता है जो शायद हमारे समाज के स्वंभू संचालकों को रास नही आता,
    हमें मनीषा जी को मुख्यधारा मे लाने के लिए उनकी बातों को सबके सामने सिर्फ़ रखना नही अपितु उस पर गहन विचार की जरूरत है।
    हमें उनको तवज्जो देनी ही होगी और ये उनका अधिकार है,
    जय जय भडास

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