11.4.08

दिल्ली : शहर दर शहर

पंकज राग का काम इधर चर्चा में रहा। उनकी पुस्तक धुनों की यात्रा' एक यादगार कृति के रूप में दर्ज की जा रही है। जाहिर है कि ये काम भूलतः नहीं हैं पर पंकज मूलतः कवि हैं। इतिहास के अध्येता पंकज की इस लम्बी कविता में इतिहास और कविता की जुगलबंदी को देखना दिलचस्प होगा। to padhiye pankaj rag ki kvita...mgr dhire-dhre, hadbade ke nhi, nhi to mja nhi aaega...is kvita me dilli ka jra-jra hai...dekho mgr pyar se..kvita psnd aaye to rag sab ko message kr do...fon no. shayad yhi hai-09822039772



खुश हो लें कि आप दिल्ली में हैं

खुश हो लें कि आप मर्कज में हैं

बिना खतों के लिफाफों में

आपके पते बहुत साफ नहीं

फिर भी आप मजमून बना लेंगे

क्योंकि आप दिल्ली में हैं।



आंखों की पुतलियों पर ठहरती नहीं है दिल्ली

हाथ के आईने में रुकते नहीं हैं लोग

फिर भी , दिल्ली जब जब बुलाती है लोग दौड़े चले आते हैं।

सवाल कई उठते हैं

क्या दिल्ली एक आवाज है

क्या दिल्ली की गलियां पुकारती हैं ?

क्या दिल्ली की रातों में आत्माएं भटकती हैं ?

दिल्ली , जो हमेशा से शहर कहलाती रही

वह कहीं टिकती क्यों नहीं ?

यह हमेशा की बेचैनी कैसी ?

बार बार इलाके बदलने की यह कैसी उत्कंठा ?

बदलते मौसमों का यह शहर

क्या पिघलते मौसमों का भी शहर रहा है ?



जवाब सीधे नहीं हैं ,

सीधे जवाब गलत हो जाएंगे

वैसे ही जैसे दिल्ली भी कई बार गलत हो चुकी है

उसका इतिहास गलत हो चुका है

उसके ख्वाब फिर गलतियां कर रहे हैं

यह भूल कर कि

फतह और शिकस्त के जाहिराना सिरों के बीच भी

कितनी ही बूंदों ने लगातार टपक कर जगह तलाशी है

इन जगहों का कोई तूर्यनाद नहीं हुआ

पर वे स्वप्नचित्रा भी नहीं

सैकड़ों वर्षों से उन जगहों पर वक्त चला है ,

दिन ढले हैं ,

तकलीफ में भी नींद मौजूं रही है

और सुबहें कभी कभी सादिक की तरह धुली धुली भी लगी हैं।

उन्हीं जगहों पर इबादत हुई है , खुदा को कोसा भी गया है

होड़ में लोग दौड़े हैं , हताशा में मन बैठा भी है

फि भी रहा है , कोफ्त भी हुई है

शगल भी रहे हैं , बीमारी भी

फरामोशी भी हुई है , वफादारी भी।

बदलते इलाकों में भी यह सब बदस्तूर जारी रहा है

जैसे जन्म और मृत्यु

और उनके बीच कायदों से बंधती , उसे तोड़ती

कभी झूलती , कभी झुलाती

पूरी की पूरी जिन्दगी।



दिल्ली को खोजना है तो ऐसी जगहों पर भी जाना होगा

शहर सिर्फ महामहिम नहीं , बहुत से मामूली लोग भी बसाते हैं

दिल्ली , शहर दर शहर, सिर्फ निगहबानों की नहीं

इंसानों की भी कहानी है।





1.

सूरजकुंड को बने हजार बरस बीत गये

जब वह बना उस वक्त भी बीत चुका था बहुत कुछ

और दूर हो गये थे मौर्य काल के पहले से चली आ रही बसाहटों के अवशेष।

यह अरावली के उत्तर की हवा थी

जिसे तोमर वंश ने अपने गुणगान के लिये रोक रखा था

यह पगड़ियों का जमाना था

जिनके पास पगड़ियां थीं

उनके पास रास्ते थे

रास्तों पर तिलक , चंदन, पूजा और मंदिर की शोभा थी

लगान और लगाम से कसी हुई भीड़ थी

जो सूरजकुंड के पास बने सूर्य मंदिर में बहुत कुछ मांगा करती थी

वही सूर्य मंदिर जो अब नहीं है

धूल और मिट्टी , पत्थर और द्रव्य

कुछ बहे , कुछ रहे

जो उडे+ उनके पास टोलियां थीं

जो पिसे उनके पास घोंसले थे

लाल कोट का पत्थर लाल था

पर चौहानों के आगे पीला पड़ गया

लड़ना व्यावहारिक था , इसलिए धर्म भी था

लाल और पीले टीके चलते रहे

पृथ्वीराज के किला राय पिथौरा में भी जीतना शुभ था

और शुभ ईश्वर था।

समुद्र नहीं था , जानने की ख्वाहिश भी नहीं थी

ख्वाहिशें पगड़ियों के रंगों में सिमटी थीं

और उनसे बाहर जो कुछ भी था

वह तुच्छ था , वह कर्मों का फल था।



वैसे बच्चे उस वक्त भी कहानियां सुन कर सोते होंगे

कुछ बेचारे यूं भी सो जाया करते थे

उनका बचपन सच था कहानी नहीं

सुनने का शौक बड़ों को अधिक था

खास तौर पर अपनी कहानियां

जिनका झूठ भी सत्य था

और सत्य हमेशा वीर था।



ऐसी कहानियां सुनाने वाले हर सदी में रहते और पनपते हैं

अरावली की हवा वाली उस दिल्ली में भी फूले फले चारण और भाट

- पृथ्वीराज की तलवार और ढाल

संयोगिता का रूप बेमिसाल

मुहम्मद गोरी का आतंक

या चंदबरदाई की प्रशस्ति

- इन सब का आप जो चाहें मतलब निकाल सकते हैं

लेकिन आपके सभी मतलब अधूरे ही रहेंगे

क्योंकि गोरी के गुलाम सुल्तान बने पर उनके भी गुलाम थे

कवातुल इस्लाम मस्जिद बनी पर उसके खम्भे मंदिरों के थे

कुतुब मीनार ने सर उठाया पर चंद्रगुप्त का लौह स्तम्भ भी खड़ा रहा।

वे तुर्की के मुसलमान ही थे

चाहे कुतबुद्दीन ऐबक हो , या अल्तमश

या फिर गैर तुर्की गुलाम से प्यार करने वाली

और तुर्की चहलगानी से लड़ने वाली रजिया हो

पर दिल्ली न हिन्दू थी न मुसलमान

वह उसी राजसी खेल के नये पैंतरे देखने वाली दिल्ली थी

जो इजलास में हंसी मजाक की पाबंदगी पर हैरान भी होती थी और फिर

खुदा की परछाईं बने बल्बन पर

पीछे पीछे हंस भी लेती थी

जो नस्ली अभिजात्य के बड़बोलेपन से खौफजदा भी थी

और तुर्की अमीरजादों को सजदा और पैबोस में झुका देख

अपना डर थोड़ा कम भी कर लेती थी

जो मेवाती लुटेरों के डर से मुक्ति पाकर राहत की सांस भी भरती थी

और हलाकू के पोते के साथ आये हजारों मंगोलों के

शहर में बसने से आक्रांत भी हो जाती थी।



पगड़ियां बदलने लगी थीं

बांधने के तरीके भी

आदमी किसी और आदमी को देख रहा था

आदमी किसी और आदमी से लड़ रहा था

और आदमी किसी और आदमी से मिल भी रहा था

आदमी और कुछ और आदमी मिल कर बना रहे थे

मिले जुले आदमी

यह भी एक जिन्दगी थी

जो तमाम राजसी खेलों के समानांतर बड़ी तेजी से चल रही थी

और दिल्ली जी रही थी।



२.

सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह चल रहा था

और वहीं बाहर की कार पार्किंग में एक स्विस महिला के साथ बलात्कार

भीड़ अंदर थी , बाहर सन्नाटा था

और वैसे भी दिल्ली की भीड़ ऐसे मौकों पर अलग ही पायी जाती है

वह जल्दी टोकती नहीं

वह चलती है , चलने देती है

उसे अचरज भी नहीं होता

जैसे उस दिन भी नहीं जब अलाउद्दीन खिलजी ने कुतुब छोड़

अपनी राजधानी सीरी को बनाया।

नयी जगह थी , नये अमीर थे

तुर्की अमीरजादों की कमर तोड़ कर और बुलंद था शाही फरमान

विरोध मना था , षडयंत्रा पर नजर थी

हौजखास से जमातखाना मस्जिद तक फैला था शहर

इमारतों के गुम्बद अब और चौडे+ थे

अमीर उमरा के नस्ली आधार की तरह

लेकिन सीरी में दरख्तों के बीच जगह कम थी

अमीरी का फैलना शक में डालता था

शायद इसलिये दिल्ली में दावतें खुशनसीब नहीं थीं।



दिल्ली को अभी बहुत कुछ देखना था

अभी तो साम्राज्यवाद का पहला डंका था

जो मलिक कफूर के साथ दक्कन तक बजा

अब कुल का नहीं ताकत और लूट का अभिजात्य था

जिसके आगे जौहर में जल गये कुलीनता के ढोये तकाजे

पता नहीं अलाउद्दीन ने किसी पद्मिनी को देखा भी या नहीं

पर रणथम्भोर और चित्तौड़ ने देख लिया इस नये तेवर की दिल्ली को

जिसकी इमारतों में मंगोल कारीगरों ने पहली बार

पद्म की कलियां बनायी थीं

और बनाये थे सच्चे मेहराब

बिना यह समझे कि उसके ऊपर बैठा था हुकूमत का एक ऐसा सच

जो लूटता था पर बांटता नहीं

जो हिस्सा मांगने पर मंगोलों का खून पानी की तरह बहा सकता था

और उस पानी को अपने हौज ए खास में इकट्ठा कर

दिल्ली वालों को पिला सकता था।



साम्राज्यवाद चाहे छुपा हो या बेबाक

मध्यकालीन हो या नवीन

उसकी जड़ों में कहीं न कहीं पोशीदा रहता है बाजार।

मानों दिल्ली से निकली सेनाओं के हुजूम में बैठे थे तीन जादूगर

- अलाउद्दीन के बनाये तीन बाजार

लगान को बढ़ा कर गल्ले की शक्ल दी गयी

इस शक्ल को मुकद्दमों से बदल कर

दोआब के नये आमिलों की कठोर भंगिमा दी गयी

और इस शक्ल को सीधी वसूली से पाला पोसा

एक ऐसा वयस्क शरीर दिया गया

जिसके आगे बच्चों की तरह मचलती कीमतों ने दम तोड़ दिया।



यह सामंतवादी साम्राज्यवाद की हुंकार थी

जहां घोड़े और गुलामों के दाम भी बंधे थे

और विदेशी कपड़ों का सलीका भी नियंत्रिात था

जहां सैनिक और अमीर अभी वैसी पहाड़ी नदियां थे

जो घाट तोड़ नहीं पातीं

और जहां बरनी अमलदारी के अहाते में वजू के लिये हौज की तलाश में

गंगा जमुना को देख नहीं पाता था

लेकिन गंगा भी बह रही थी और जमुना भी

दोनों के पानी से अलग अलग भी स्वर निकलते थे

और साथ साथ भी

अमीर खुसरो की हिंदवी की तरह

जो कभी रबाब के हल्के तरंगों पर

ऐमन और सनम जैसी फारसी रागदारियों के साथ

महफिलों की शमादानों को जलाती थी

तो कभी बिल्कुल अपनी सी बन कर

निजामुद्दीन औलिया और बख्तियार काकी के इर्द गिर्द फैले

तमाम जातियों और मजहबों के हुजूम को

प्रेम का मधवा पिलाती थी।

पनघट की डगर अभी भी कठिन थी

और कई पहेलियां समझ में भी नहीं आती थीं

फिर भी मटकियां जमुना से भरी जा सकती थीं

रात में थक कर लौटने के लिये घर सलामत थे

जिनके अंदर जिहाले मिस्कीं मकुन तगाफुल की दिल्ली

नैना जुड़ाती थी और बतियां बनाती थी।



३.

दिल्ली की धूप

हमेशा से तीखी

जैसे हर इच्छा , आकांक्षा, विश्वास या सनक के पीछे एक जीवंतता हो।

पहले दिल्ली की गर्मी में चिपचिपाहट नहीं थी

जो भी था वह ठोस ठोस था

जैसे तुगलकाबाद को छोड़ बनाया गया मुहम्मद बिन तुगलक का जहांपनाह

धूसर पत्थरों की किलानुमा इमारतों का सिलसिला

वही खुरदुरापन इतना ज्यादा

कि ढलान वाली दीवारों के बावजूद सुल्तानी दम्भ फिसले नहीं।



इसका कोई तुक नहीं कि मुहम्मद तुगलक के जहांपनाह

की दीवारों के दक्षिण में आज आई.आई.टी. की इमारत है

अतीत की नीरसता और भविष्य की यांत्रिाकी के बीच

एक सीधी रेखा खींचने पर लोग ऐतराज करेंगे

यंत्राचलित विश्व आगे भागता है पीछे नहीं

और गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे को भले ही

दारुल अमन का नाम दे दिया गया हो

पर उससे उसके मौत की दुर्घटना शांत नहीं हो पायी।

मध्यकालीन दिल्ली थी

अफवाहों की गलियां थीं

आज की तरह ही बढ़ा चढ़ा कर सच बताने की दलीलें

होड़ कम पर विश्वास अधिक

तब सतपुल के नीचे पानी ठहरा नहीं था

और निजामुद्दीन औलिया के ÷ अभी दिल्ली दूर है' के कथन की चर्चा

आक्रांत भी करती थी और रोमांचित भी

सूफियाना कव्वालियों की मदमस्ती की तरह

वह एक अलग दुनिया थी

वह भी दिल्ली थी

वहां एक दूसरा जहांपनाह था

उसके मुरीद थे , उसके गरीब थे

जो खुदा को रोज छूते थे , उसमें मिल जाते थे

मिलने की खुशी में अमीर हो लेते थे

पर उसके बाद फिर से गरीब थे

अंधेरा था , फिर भी रोशन थी चिराग दिल्ली।



मालवीय नगर से कालकाजी जाने वाली सड़क पर

शाम के धुंधलके में चलने भर से

उस जमाने की दिल्ली की पर्तें खुलती जाएंगी , ऐसा भी नहीं है।

पर्तें ही सीधी कहां होती हैं

और धूसर इमारतों का धुंधलके में मिल जाने का खतरा

तो हमेशा से ही रहा है।

मुहम्मद तुगलक सूफी नहीं था

पर उसके योगियों और जैनियों से मिलने पर

उसे यौक्तिक और तार्किक कह कर गालियां कइयों ने दीं

दिल्ली से हटा कर देवगिरि को अपनी राजधानी बना कर

दौलताबाद नाम देना यदि राजनीति थी

तो दिल्ली के अफसरान , बड़े लोगों और खुदा से मिलने वाले सूफियों को

दिल्ली छोड़ उस अनदेखे दौलत की ओर

जबरन ले चलने पर मजबूर करने को

जुल्म की शक्ल दी गयी।

बड़े लोग तब भी दिल्ली नहीं छोड़ना चाहते थे

पर विचारों का तिलिस्म बनाने वाले वे ही तब भी थे

शायद इसीलिये इतिहास में कैद नहीं है

दिल्लीवालों के लिये इतने सारे सूफियों के जाने का अफसोस या

बड़े बड़े लोगों से विमुक्त उनकी राहत भरी सांस।

सूफियाना हवाएं दक्कन पहुंचीं या मुहम्मदी फतह कांगड़ा पहुंची

इससे उन्हें क्या

उनकी अनुभूतियों की चादर अभी भी उनकी अपनी थी

और वैसे भी दिल्लीवालों को दिल्ली से बाहर कुछ दिखा ही कब है!

होती रहे चांदी की कमी दुनिया में ,

उनकी कल्पना की दिल्ली तो खुद चांदी थी

यह चांदी थोड़ी धूमिल हो सकती थी

बहुतेरे सूफियों के जाने के मलाल से

या दौलताबाद से पानी की कमी के कारण लौटे अमीर उमरा को लेकर

पर इसका रसूख मस्तिष्क की कई तहों तक फैला था

इसीलिए जहांपनाह के कांसे के सिक्के चल नहीं पाये।

कुछ बरस बाद भी जब मौत की प्लेग चल निकली

और तुगलक बादशाह भी दिल्ली छोड़ स्वर्गद्वारी चल पड़े

तो भी दिल्ली बैठी नहीं ,

मर कर जिन्दा हुई उसी जहांपनाह में

और उसी वक्त जब दोआब में फसल सुधार का सुल्तानी प्रयोग

करों की क्रूर संरचना के कारण दम तोड़ रहा था।

ढांचा तो नहीं बदला

पर कभी कभी शाम के उसी ढलान पर

बिना बामुलाहिजा होशियार

दिल्ली जीतती रही।



४.

तुम मुझे फीरोजी बना दो

दिल्ली की उस मध्यमवर्गीय लड़की ने अपने पास बैठे लड़के से कहा

कोटला फीरोजशाह के स्लेटी खंडहरों के बीच

उस लड़के का उत्तर फंस सा गया

फिर इन दोनों की कहानी का कुछ नहीं हुआ

वैसे ही जैसे फीरोजाबाद का भी कुछ न हो सका

मानों कुलीनों और उलेमा को मनाते मनाते थक कर

फीरोजशाह शिकार पर निकल गया हो

शहर से दूर- जोर बाग और करोलबाग में

वहीं जहां कुलीन बसते हैं और जहां कुलीन नहीं बसते हैं।



फीरोजाबाद में ही कुलीनता वंशानुगत हुई

फीरोजाबाद की औरतों को फकीरों की मजारों पर जाने की मनाही हुई

फीरोजाबाद के सिपाहियों को तनख्वाह नहीं , गांवों की लगान का हक मिला

और फीरोजाबाद के घोड़ों को ताकत से नहीं रिश्वत से तौला गया

पर हौजखास से पीर गैब तक फैले इस शहर में हवा फिर भी बहती रही

सिर्फ जमुना के किनारे से निकाली नहरों के पास ही नहीं

बल्कि खैराती अस्पतालों , मदरसों

और सरकारी दहेज से ब्याही विपन्न बेटियों के पास भी।

फिर चीजों के दाम कम थे ,

इसलिए मुफलिसी भी पल ही गयी

वैसे देखा जाये तो इससे हवा को क्या फर्क पड़ता

कि फीरोजशाह ने उलेमा से डर कर

अपने महल की चित्राकारी खुद खुरचवा दी

या कि फीरोजशाह की बनवायी इमारतों से

अधिक सराही गयीं बेगमपुरी और खिड़की मस्जिद जैसी

उसके वजीर खान ए जहान जूनां शाह की सात मस्जिदें

पर दिल्ली को हमेशा फर्क लगा है

खुशामदगी के उलझते धागों को दिल्ली

न कभी सुलझा पायी और न बांध ही पायी

वह बस फीरोज की तरह कुतुब मीनार की मंजिलें बढ़वाती रह गयी।

जिस अशोक स्तम्भ को फीरोज शाह ने

अम्बाले से लाकर कुश्क ए फीरोज में लगाया

उसका रंग तो और भी स्याह था

एक लाख अस्सी हजार गुलामों को छूकर बहते बहते

हवा भी फीरोजी न रही

और अंदर ही अंदर सीझते शहर की मौत तक शिकारगाहें भी पस्त हो चली थीं।



फीरोज अपनी मुश्किलों के साथ हौजखास में दफ्न हुआ

कोटला फीरोज शाह की आलीशान जामी मस्जिद में नमाज सशंकित सी रही

वही मस्जिद जिसके खंडहरों में बैठे जोड़ों की कहानी आज भी आगे नहीं बढ़ पाती

दिल्ली उन्हें ठुकराती नहीं

पर बेसलीके ही सही उनकी उलझनों को किनारे कर

समय आते ही आगे निकल जाती है।



५.

वह छोटी सी थी पर उसे भूलिएगा नहीं

- अठकोण और चौकोर मकबरों की दिल्ली को

सय्‌यद और लोदी सामंतों की दिल्ली को

तैमूर की रूह के ऊपर धड़कती उस दिल्ली को

जो शहर बनते बनते रह गयी।



मुबारकाबाद की गलियों की दबी दबी पदचापों की तरह

जिन्दगी फिर भी चलती है।

शिल्पकारों के बिना , कारीगरों के बिना भी

पेड़ फल फूल लेते हैं

बेलें और पत्तियां बगीचे बना देती हैं

शाखों के बीच से तब भी झांका ही था दिल्ली का छोटा आकाश

अफगानी सल्तनत की चुनौतियों , अभिराधन, शमन और दमन के बीच

फिर भी झलकती ही रही वही पुरानी हिन्दुस्तानी जहांदारी

ऐसी झलकों के सहारे ही पुख्ता रही हैं शाखें

खरक , केंदु, अशोक और महुए की तमाम गंधों के साथ

जिनके बीच दिल्ली आज भी लोदी गार्डेन में टहलने जाती है।



६.

पुराने किले में कम भीड़ रहती है

जिन्होंने पांडवों की तलाश वहां कर ली , उनके कदम भी चुक गये

जिन्होंने प्रगति के साथ मैदान जोड़ा वे दोनों को ही ढूंढ रहे होंगे

शायद अंततः वे अप्पूघर और चिड़ियाघर को खोज कर खुशी भी जाहिर कर दें

वैसे भी नाम में क्या रखा है

यहां हुमायूं का शहर था दीनपनाह जो अब नहीं है

जब था तब भी क्या वह दीन की पनाह था

या जहांपनाह की मुगलाई शान का एक मजमा

जिनके साथ अपने तख्त के सहारे हुमायूं गणित और रहस्यवाद का खेल खेलता था।

वैसे भी उसके पत्थर सीरी के वही पुराने खिलजी पत्थर थे

जिनकी जड़ें कमजोर थीं

इतनी कि हुमायूं की पूरी शानो शौकत ढह गयी

और जब वापस आयी

तब तक शेरशाह तो न था ,

पर उसके अपने पत्थर जम चुके थे

पुराने किले की दीवारों पर , किला ए कोहना मस्जिद की मेहराबों पर

और शेर मंडल की सीढ़ियों पर

- वही सीढ़ियां जिन पर चढ़ कर हुमायूं अपने पुस्तकालय में जाता था

और वही जिनसे नमाज के लिये उतरते हुए वह लुढ़क कर खुदा को प्यारा हुआ।

तालीम और खुदा के रिश्ते को बहुत गाढ़ा करना

उस वक्त भी खतरनाक था

दिल्लीवालों ने इस बात को ठहर ठहर कर समझा है

फिर भी थोड़ी कमी रह ही गयी है ,

शायद इसीलिए जमुना पुराने किले से दूर खिसक गयी है।



७.

वैसे आप लाख बिगाड़ लें पर दिल्ली की जो हवा है

वह इलाकों की चाल से ही बहेगी

और उसमें जो पुश्तैनी गंध है

वह उन बस्तियों से आज भी उठ लेगी

जिसे अगर आप आंख बंद कर महसूस करें

तो आप भी शायद उसे शाहजहांनाबाद ही कहें।



क्योंकि शाहजहांनाबाद सिर्फ शाहजहां का नहीं था

करीब अस्सी बरस बाद बनी राजधानी की शक्ल में एक रवायत थी

जो तख्ते ताऊस की बुलंदी को

दीवाने खास के संगमरमरी बहिश्त को

बादशाही हमाम की खुशबू को

या मीना बाजार की बेगमों की हंसी को

अपने हिसाब से कभी खुल कर

या कभी रहस्य भरी सरगोशी के साथ

लाल किले की छनछनाती उतार से छान कर

सड़क के बीचों बीच

अंधेरे उजाले का खेल खेलती

झिलझिलाती हुई एक चांदनी चौक बनाती थी।

वह कुछ खुशफहमियों का जमाना था

सीताराम बाजार की बड़ी हवेलियों का जमाना

जिसके दरीचे बाहर कम

अंदर के विशाल आंगन की ओर अधिक खुलते थे।

रसोई घर की थी , बातें बाहर की

- सरपरस्ती के साथ साथ चुगलियों की चटनी

जब रसोई की गंध थम जाती थी

तो अपच बदगुमानी बन दरवाजे से बाहर

गलियों की हवा खाने से बाज नहीं आती थी।

नीचे गलियां , कटरे और मुहल्ले

पेशेवर नाम , पेशेवर किस्से, कुछ पेशेवर फि भी

जिनकी हदों से अलग

जहालत और जिल्लत की बू से

खुद ही मरती कुछ बस्तियां

जिनके पेशे गरीबी से भी बदतर थे।

ऊपर जामा मस्जिद की मीनारें

खुदपरस्ती की खुदाई उड़ान

हवाई उड़ान के नशे में मस्त भागते

गोले और काबुली कबूतर

उन्हें उड़ा कर और भिड़ा कर बादशाहत का भ्रम पालता

एक बहुत बड़ा वर्ग

जो नीचे देखना नहीं चाहता था ,

जो नीचे देखने से डरता था।



यूं भी दिल्ली के इन इलाकों में ही मिलते हैं भिखमंगे और पागल

और उनसे हमेशा से एक अलग गंध आती रही है

जो न शाहजहां के फरमानों के आगे दबी

न ही जहांआरा की सवारी की कस्तूरी खुशबू के आगे

जिसे कहवाघरों की जमात तब न दबा पायी

जिसे वातानुकूलित गाड़ियों का हुजूम अब भी न कुचल सका

उनसे बचने के लिये ऊपर ही ऊपर उड़ता रहा शाहजहांनाबाद

चाहे दरबारी मिर्जे , सेठ, सौदागर, दुकानदार हों

या इल्म और हुनर के कलाकार

- कुछ बहुत ऊपर, कुछ थोड़ा ऊपर

लेकिन सभी ऊपर , बेशक ऊपर।

परवाजों की ये कहानियां आज तक गाहे बगाहे सुनायी पड़ती हैं

दिल्ली के इन इलाकों में

जिनके नसीब में आगे जमीनी हकीकतों का सिलसिला हो

वे ऐसी कहानियों को बडे+ प्यार से पालपोस कर बड़ा करते हैं

साथ में हाय हाय भी लगी रहती है

गिरने की हाय ,

गिर कर न उठ पाने का अफसोस

अंदर के खोखलेपन को न मान कर इधर उधर की वजहें तलाशने की उत्कंठा

औरंगजेब की कट्टरता के बढे+ चढे+ किस्से

रोशनआरा की उच्छृंखलता के कारनामे

फरूखसियर के दोगलेपन के चर्चे

बरहा भाइयों की नमकहरामी पर लानत

लालकुंअर की खूबसूरत चालबाजियों पर तौबा

या अदारंग और सदारंग के खयालों में डूबे

मुहम्मद शाह रंगीले की शराबों पर लाहौल।



दिल्ली बतकहियों का शहर बन गया

चांदनी चौक के बीचोंबीच बहता पानी गंदलाता गया

पानी के कीटाणु तो दिल्ली की तीखी चाट ने मार डाले

पर नादिरशाही जुल्म का खून ऐसा जमा

कि झिलमिलाती चांदनी लाल नजर आने लगी

उस दिन से लाल किले के पत्थर कुछ स्याह नजर आने लगे

जाटों , मराठों और रोहिलों के घुड़सवारों के बीच

बादशाही नजर पथरा गयी

शाहआलम की इन्हीं आंखों को फोड़ा था रोहिलों ने

तहजीब के पास घोड़े नहीं थे

हिनहिनाते कैसे ?

अंगरखों में सिकुड़ कर बैठ गया दिल्लीपन

जीनतुल मस्जिद में

शहरे आशोब लिखा नहीं गया , महसूस किया गया

दीवान ए खास की शमां आखिरी शमां थी

इसकी रोशनी में चमकने के लिये न कोहेनूर था न रत्नों की पेटियां

रोशनी गालिब , जौक और मोमिन से होकर

अंततः बहादुरशाह जफर पर ठहर कर थरथरा जाती थी

मानो बल्लीमारान की गलियों से निकल कर

हजारों ख्वाहिशें लाल किले की सिमटी बारादरियों में दम तोड़ रही हों

मानो मौत के साथ चलने का इंतजार हो

फिर भी बादशाहत के पास होने की खुशी ऐसी

कि पास कोई दूसरा तो नहीं।



किले की दीवारें बेनूर सही

अभी भी दीवारें तो थीं

शहर उस पार था

जिससे अभी भी कुछ दूर थीं इस पार की शामें

और जिनके सहारे सारे दिन महफूजियत के कुछ भ्रम

उस पार भी फैलाये जा सकते थे

दरियागंज की उन हवेलियों के बीच भी जहां फिरंगी रहने लगे थे

जहां आक्टरलोनी को लूनी अख्तर कह कर दिल्लीपन की इंतहा मानी जा सकती थी

जहां विलियम फ्रेजर के हरम को अपनी तहजीब की अगली कड़ी समझा जा सकता था

जहां गदर के सिपाहियों को सामंती तहजीब के पैमाने से

कुछ लुच्चे उत्पातियों की शक्ल दी जा सकती थी

जहां सब्जीमंडी की आर पार की लड़ाई से

जितना खून खौला , जितना खून बहा

उतना ही पतला भी रहा

जिस दिन खूनी दरवाजे पर मुगलिया सल्तनत के खून का आखिरी कतरा गिरा

उस दिन भी दिल्ली शांत ही रही

कोतवाली के पास फांसियों की कतार के बीच भी कोई हलचल नहीं हुई

घंटेवालान की मिठाइयां बनती रहीं

निहारी के कबाब बिकते रहे

परिन्दे उड़ते रहे

तमाम प्यार , मुहब्बत, फि और तकरीर के बावजूद

दिल्लीपन अंततः एक शब्द साबित हुआ

अधिक से अधिक एक जुमला

जो तमाम पुरानी गंधों के बीच

आंखें खोल कर देखने पर

आपके चारों तरफ इस तरह उछलेगा

जैसे भीड़ भरे बाजार की होड़ में ललचाता एक ब्रांड नेम।



८.

दिल्ली के अनवरत रेंगते टै्रफिक में

जब कॉकटेल्स की छलकती रंगीनियां सूखने लगती हैं

और हयात या शांगरीला से निकले

कार्पोरेट मल्टीनेशनल धनाढ्यों की भाषा को हिचकियां आने लगती हैं

उस वक्त रेडियो मिर्ची या एफ.एम. से जो ÷ हिंगलिश' का

लटकेदार प्रलाप होता है

वह उतना बेमानी भी नहीं जितना आप समझते हैं

वह नव साम्राज्यवाद का आलाप है

जहां अर्थहीनता का ही अर्थ है

आप झुंझलायें नहीं , व्यवस्था को गाली न दें

आप एक खिलखिलाती नवयौवना से होलीडे पैकेज ,

आइटम गर्ल्स , हॉलीवुड की चमक और

वॉलीवुड के सितारों की बातें सुन कर समय का सदुपयोग करें

और खुश हो लें कि आप भी ग्लोबल हो गये हैं।



भाषा की अपनी सत्ता होती है

हमेशा से रही है

उस वक्त भी थी जब माल रोड पर टहलते सिविल लाइंस के

अंग्रेजों को देख देख

दिल्लीवालों ने मुगलिया यादें छोड़ अंग्रेजी सीखना शुरू किया।

कश्मीरी गेट पर , १८५७ के मैगजीन विस्फोट के स्थल के

बिल्कुल पास शुरू हुए सेंट स्टीफेंस और हिन्दू कॉलेज

और १८५७ की दहशत को मन में लिये

उत्तर की ओर दूर दूर फैलता गया

एक प्रजातीय अलगाव

सिविल लाइंस के बंगलों की शक्ल में

जहां हेलीबरी से निकले

नये ब्रिटिश राज्य के इंडियन सिविल सर्विस ने

स्टील फ्रेम की तरह एक नयी दिल्ली बसायी।

स्टील फ्रेम में जकड़ी दिल्ली कांपती रही

मिर्जां गालिब अपनी पेंशन के लिये भटकते रहे

सूरज चमकता रहा

चांद टटोलता रहा रास्ते

मेडेन्स की दूधिया दीवारों के बीच , लुडलो कासल के पोर्च के दरम्यान

जिसके अंदर के ठंडे बरामदों पर

जिन और टॉनिक के बीच

ईश्वर सम्राट को बचाता रहा।



दिल्ली में अब नौबतखाना नहीं था , भीड़ भाड़ की वह चटख रंगत भी नहीं

पहलूनशीं होने का वह जमाना भी गया

चहलकदमी के नये अंदाज थे

नसीमे सहर विलायत से चली थी ,

गुनगुनी शाम कश्मीरी गेट में होती थी

और चांदनी चौक उसे नीमनिगाही से देखता था।



कनखियों के इस खेल से दिल्ली बहुत मुफीद होकर निकली

बंगाल की गर्म हवाओं की तुलना में

ठंडे ठंडे लगे यहां के बंगले

राजधानी दिल्ली को फिर बनना ही था

साम्राज्यवाद बहुत जटिल था

और उतना ही ठोस

रस्मी दिल्ली से बहुत अलग

कागजों की सभ्यता के आगे दम तोड़ते आचार और व्यवहार के अदब

कचहरियों की नयी जमात

कारकूनों की नयी कतारें

जमीन और मिल्कियत की नयी हकीकत

जिसके आगे बदतमीज लगते थे उर्दू के अफसाने

और सुरों से भटकता था गजलों का रियाज।



महफिलों का नहीं कैम्पों का जमाना था वह

कैम्प भी शहर बन सकते थे

जैसे जॉर्ज के दरबार का किंग्सवे कैम्प

जिसकी शान के आगे झुके झुके थे हमारे सैकड़ों हुक्मबरदार

वफादारी से गलगलाये ,

नजरानों की बौछार में लिजलिजे

कुछ और तोप दगवाने की इनायत से गदगद।



यह बंगाल नहीं दिल्ली थी

यहां कोई स्वदेशी आंदोलन नहीं था

यहां कालीबाड़ी के आगे शपथ लेते नौजवान नहीं थे

और अभी भी मजलिसे रक्सो सरोद की यादों के मातमी बादल तो थे

पर बारिश नहीं थी।

इसलिए दिल्ली को फिर से राजधानी बनाना

लाट साहबों के लिये तो महफूज था

पर दिल्ली अचकचा गयी।



अचकचा कर उठने वालों के दिल अक्सर धड़कते हैं

दिल्ली भी धड़की

जब हार्डिंज पर सरे बाजार बम फेंका गया

पर अपने बाजारों में सड़क के दोनों तरफ चलना

दिल्ली वालों ने कभी नहीं छोड़ा है

लाला हरदयाल का गदर आंदोलन बहुत दूर था

और अब तो बाजार बढ़ रहे थे

उपनिवेशवाद तिजोरियों में नहीं

पूरी दुनिया की तिजारतों , बैंकों और पूंजी के साथ

नये नये रूप धर कर आ रहा था

जिन्हें सम्भालते सम्भालते चांदनी चौक का चेहरा भी बदलने लगा था।



दिल्ली एक बार फिर कई चेहरों के साथ थी

प्रथम विश्वयुद्ध की मार से कराहते चेहरे एक ओर

तो रायसीना की पहाड़ी की तरफ फैलती नयी राजधानी की ओर

उत्सुकता से लगी ठेकेदारी की कल्पनाएं दूसरी तरफ

नयी दिल्ली बनी तो ऐसी बनी जैसे

सूरज कभी ढलेगा ही नहीं

वह सिर्फ लुटयेंस और बेकर का वास्तुशास्त्रा लेकर नहीं आयी

वह भव्यता का सदियों पुराना शास्त्रा लेकर आयी

जहां नये वाइसराय निवास की किलेनुमा दीवारों से लेकर

विशालकाय बंगलों तक के सिलसिलों में कुछ भी सूफियाना न था

अब ढेर सारे बल्बन थे , कितने ही अलाउद्दीन

और मुंह में चुरुट दबाये , एड़ियां खटखटाते

ऊंचे खम्भों वाले कनाट प्लेस में

पृथ्वी की तरह गोल गोल घूमते

ताजमहल को भी बर्तानिया ले जाने के सपने देखते

कई कई शाहजहां।



औपनिवेशिक रोमांस में भी औरतें आ सकती हैं

जैसे माउंटबैटन का एडविना को दिल्ली में प्रपोज करना

पर वह पुराने वाइसराय निवास की बातें थीं

जहां अब विश्वविद्यालय था

इसलिए वे बातें भी शायद किताबी थीं।

उपनिवेशों में प्रेम हमेशा उपयोगी होना चाहिए

मुनाफे के लिये ऊपर के होंठ को कड़ा रखना चाहिए

साम्राज्यवाद पूर्णतः मर्द होता है

और दिल्ली के हुनर बाजार नहीं , बूढ़ी तवायफों के कोठे थे।



वैसे मुनाफे का हमेशा से कुछ हिस्सा दिल्ली वालों के हाथ भी लगता ही रहा है

अबकी बार ठेकों से उपजी नयी रईसी थी

जिसके खुले बंगलों को विदेशी शिष्टाचार की बयार सम्भ्रांत बनाती थी

यहां बंद कमरे न थे

लेकिन जहां थे वहां कानाफूसी से शुरू होकर बातें बढ़ने लगी थीं

और बढ़ते बढ़ते चौराहों तक भी आने लगी थीं

विदेश ने देश को पहचान दी थी ,

और इस पहचान में जो प्रेम उमड़ा था

वह सूखे सख्त होठों से नहीं

तरल और ऊष्म आवाजों से ओत प्रोत था।

अभ्यावेदनों की दुनिया से हट कर दिल्ली खिलाफत के नये शब्द सीख रही थी

असहयोग , बहिष्कार, सत्याग्रह और सविनय अविज्ञा

लोगों को संगठित करने के नये तरीके

अपने और पराये के भिन्न प्रतीक

मानों विशिष्ट और साधारण के बीच की गहराई को

पाटने के लिये बनाये जा रहे हों कई कई पुल

और बताया जा रहा हो लगातार

कि इन्हें पार करके ही पाओगे तुम श्वेत , शुभ्र लिबास

धारण किये हुए उस गरिमामय औरत की गोद

जो तुम्हारी मां है।

उल्लास के बार बार उठते कई हुजूम थे

सड़कों पर सुबह दोपहर शाम सभी उजले उजले थे

गांधी टोपियों और खादी के कुर्तों और साड़ियों की तरह

जो उमंग की हवाओं से फड़फड़ाते हुए

बार बार यह भूल जाते थे कि सेण्ट्रल असेम्बली के बम के पीछे

उजले कपड़ों की नहीं बिना कपड़ों के मजदूरों की भी बातें थीं

और कि दिल्ली में बिना दरारों के पुल और बिना गढ्ढों

की सड़क कभी नहीं बन पाये हैं।



इसलिए जब आजादी आयी

तो वह किसी करिश्माई गुब्बारे के मानिन्द न थी जो खुले आकाश में उड़ा ले जाता

वह कोई व्यक्ति भी नहीं जो सिर्फ अपने नाम से पहचान लिया जाता

आजाद मुल्क की राजधानी की पहली सुबह को

जिन अहसासों के साथ आना चाहिए था वैसा हुआ नहीं

कुछ तो आदमी हमेशा से खुद अपना दुश्मन रहा ही है

कुछ विभेदों के पूरी तरह मिटने की आशा भी संशकित सी थी

और खुशी के उस दिन भी कुछ काले बादल छाये ही रहे।

एक बहुत बड़ा हिस्सा जो अपना था वह अपना न रहा

रोटियां टुकड़ों में बंट गयीं

दस्तरखान सिमट गये

बरसात की उस टूटी टूटी धूप में

कितनों से इलाके ही नहीं , पूरी की पूरी दिल्ली छूट गयी

मिट्टी की गंध तो ले गये , पर मिट्टी धरी रह गयी।



दिल्ली फिर से सवालों का शहर था

दंगाइयों का खून भी अगर दिल्ली के उन्हीं गली कूचों से निकला था

तो वह कत्ल हुए बाशिंदों से अधिक मजहबी कैसे हो गया ?

पाकिस्तान के इबादतखाने क्या दिल्ली की जामा मस्जिद से अधिक पुख्ता थे ?

लाहौर में कबूतर दिल्ली से ज्यादा करतबी कब से हो गये ?

महात्मा गांधी हे राम बोल कर क्यों मरे ?

वह कौन सा हिन्दू था जिसने उन्हें मार डाला ?

क्या शरणार्थिंयों के कैम्पों की जिल्लत और रंज से ही दिल्ली

कुछ कट्टर हो चली है ?

क्या अंग्रेज सचमुच चले गये ?

तो फिर नयी दिल्ली के उन बंगलों और क्लबों में

हमें घुसने क्यों नहीं दिया जाता ?



ऐसे कई सवाल थे जिनसे दिल्ली आक्रांत रही है

कई अभ्युक्तियां भी कहीं न कहीं अब सवाल ही थीं

जैसे लाल किले पर तिरंगा साल दर साल फहराता रहा

करोल बाग , पटेल नगर और पंजाबी बाग की बड़ी बड़ी कोठियों में शरणार्थियों ने

एक अनूठे जीवट का अध्याय भी लिखा

कॉफी हाउस में नये फलसफे और नयी कहानियों के बीच

ढेर सारी सुलगायी सिगरेटों को अधभरे प्यालों में मसल कर बुझाया गया

कॉलेजों में दुनिया को बदलने की हवा भी चली

नेहरू का शांतिवन विचारधारा का विश्वविद्यालय बन खलबलाता रहा

राष्ट्रीयकरण के सपनीले दौर में नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक भी खींचते रहे

अदब का एक बहुत बड़ा संसार बांये चला

फिर दिल्ली के बढ़ते यातायात के दबाव में धीरे धीरे

यातायात के नियम तोड़ता गया

तुर्कमान गेट की बस्ती आपातकाल के दौरान तोड़ी गयी

पालिका बाजार वहीं बना जहां पहले कॉफी हाउस था

एशियन गेम्स के समय दिल्ली में रंगीन टी.वी. का आना बड़ी बात बन गयी

सिख दंगों के दौरान कनाट प्लेस और करोलबाग में भी सन्नाटा छाया रहा

इससे भी बड़ा सन्नाटा पूरी दिल्ली की सड़कों पर तब छाया जब

हर हफ्ते रामायण सीरियल दिखाया गया

दिल्ली में जगराते भी इसी दौरान बड़ी तेजी से बढे+

दिल्ली भी उतनी ही तेजी से बढ़ी है

पहाड़गंज में जहां १८०३ में लार्ड लेक ने मराठों को हराया था

वहां मराठे नहीं बिहारी अधिक रहते हैं

दिल्ली के मिस्त्राी , रिक्शेवाले, चौकीदार अब सब के सब पुरबिया हैं

दिल्ली में फूलवालों की सैर अब भी बख्तियार काजी की दरगाह से जोगमाया मंदिर जाती है

पर उससे अधिक भीड़ छठ के समय घाटों पर

और दशहरा के दौरान रामलीला मैदान में रहती है।



दिल्ली में उमस बहुत बढ़ गयी है

बहुत सारे लोगों ने अब शीशे चढ़ा रखे हैं

अंदर पूंजी का सामंतवाद बहता है

जो दिमाग को ठंडा रखता है

और जिसे गर्मी महसूस होने पर

खरीदा और बेचा जा सकता है

डी.एल.एफ. के बड़े बड़े शापिंग माल्स में

बड़े बड़े मल्टीनेशनल पे पैकेजों के सहारे

बार्बी डॉल्स की तरह

जिनकी गुड़ियों सी शादी नहीं होती

और जो विचारशून्यता की अंतर्राष्ट्रीय खुशी में

माचो मर्दों से लिपट लिपट कर क्रेजी किया करती हैं।



सुनते हैं कि दिल्ली अब एक फैलता हुआ शहर नहीं दुनिया है

वैसे ही जैसे भारत अब देश नहीं , विश्व हो रहा है

दिल्ली में रहने वाले भी अब विश्व देख रहे हैं

विदेशी कम्पनी वाले , यू.एन.डी.पी. और यहां तक कि भारतीय नौकरशाह भी

उन्हें बता रहे हैं

कि अट्टालिकाओं में जो वैश्वी सोना इकठ्ठा हो रहा है

उसका द्रव्य रिस रिस कर नीचे ही गिरेगा

और यह दिल्ली पर है कि वह सवालों की कैद से बाहर आकर

उसे कितनी तेजी से अपनी हथेलियों में लपक लेती है।



इसी रेलमपेल में भाग रही है दिल्ली

सांसें फुुलाते हुए , आसमान की ओर देखती

हवाओं से दुनिया खींच कर मुट्ठियों में बंद करने को व्याकुल

लेकिन गाड़ियों की बेतहाशा बढ़ती कतारों के इस वक्त में

जब सड़क पार करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा हो

हर शाम हजारों चलने वालों के लिये

दिल्ली फिर एक शहर हो जाती है

पसीने से लस्त ऐसे लोगों का शहर

जिन्हें थोड़ी देर के लिये रात का सन्नाटा चाहिए ,

थोड़ी नींद चाहिए

और छोटे छोटे सपने चाहिए

जिसमें विश्व नहीं ,

उनकी ही कदकाठी की

उनकी ही जुबान बोलती

सीधी सादी , सच्ची आंखों वाली शरीके हाल सी दिल्ली हो।

3 comments:

  1. शानदार हैं हरे भाई......दिल्ली को लेकर बड़े सचेत तरीके से मैं भी सोचता रहता हूं। इन कविताओं में ऐसी ढेर सारी बातें हैं जो मेरे अवचेतन में थीं, पर शब्दों का रूप नहीं धर पा रही थीं। खासकर मेरे लिए ये लंबी कविता किसी नई खरीदी कविता संग्रह की किताब सरीखी सुख देने वाली रही। मेरी तरफ से कवि को बधाई....।


    हरे भाई, एक बात और...रोज किसी एक कवि की कुछ कविताएं पढ़ाने का ये जो अनजाना सा अंदाज है, वो अब चिरपरिचित सा लगने लगा है, ये अब जरूरत में शुमार हो चुका है। इसे कांटीन्यू रखिएगा। अगर आप कभी भूल भी जाएं तो फिर ये जिम्मा किसी और उचित व्यकित को सौंप दीजिएगा।
    यशवंत

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  2. शानदार हैं हरे भाई......दिल्ली को लेकर बड़े सचेत तरीके से मैं भी सोचता रहता हूं। इन कविताओं में ऐसी ढेर सारी बातें हैं जो मेरे अवचेतन में थीं, पर शब्दों का रूप नहीं धर पा रही थीं। खासकर मेरे लिए ये लंबी कविता किसी नई खरीदी कविता संग्रह की किताब सरीखी सुख देने वाली रही। मेरी तरफ से कवि को बधाई....।


    हरे भाई, एक बात और...रोज किसी एक कवि की कुछ कविताएं पढ़ाने का ये जो अनजाना सा अंदाज है, वो अब चिरपरिचित सा लगने लगा है, ये अब जरूरत में शुमार हो चुका है। इसे कांटीन्यू रखिएगा। अगर आप कभी भूल भी जाएं तो फिर ये जिम्मा किसी और उचित व्यकित को सौंप दीजिएगा।
    यशवंत

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  3. ekdam sahi kahaa yashvant dada aapne.

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