एक साथी का मेल मिला। पत्रकारों की हालत को लेकर उद्वेलित थे। उनको जो जवाब लिखा लगा, और साथियों से भी सांझा किया जा सकता है।
दूसरों की आवाज उठाने वाला पत्रकार ख़ुद क्यों शोषित होता है? क्यों खाता है नौकरी में गालियाँ ? दरअसल सबकी अपनी मजबूरी है। व्यि तगत और पेशागत भी। अगर आप और आपकी फैमिली एक निर्धारित जीवन स्तर या माहौल की आदी हो गई है तो उसे अचानक बदलना संभव नहीं है। कई तरह की दि कतें सामने आती हैं और यह न्यायोचित भी नहीं है कि आप अपने वैचारिक विरोधों की वजह से परिवार को कष्ट में डाल दें।
मैं अकेला था और शुरू से ही ऐसे लोगों की संगत में पड़ गया जो कथित तौर पर अराजक थे। करीब दस साल पहले मैं दिल्ली की एक अति चिरकुट टाईप मैगजीन में काम कर रहा था। वहां एक साथी थे मृत्युंजय कुमार। संभवत: आजकल जालंधर अमर उजाला में न्यूज एडीटर हैं। हम लोगों ने पूरी मेहनत से काम किया। पर जब वेतन का समय आया तो मालिक बहाने बनाने लगा। कहने लगा कि हमारी स्थिति ठीक नहीं है। वह तय वेतन से काफी कम देने की बात करने लगा। आफिस में छह सात लोग थे। पर विरोध करनेवालों में हम और मृत्युंजय ही थे। मालिक सोच रहा था कि इन बिहारियों को ऐसे ही हड़का के भगा दूंगा। वह बदतमीजी पर उतर आया। मैं मामले को निपटाने की सोच रहा था कि मृत्युंजय ने उसे तमाचा जड़ दिया। सब सन्न रह गए। बाद में खूब हंगामा हुआ। बाकी स्टाफ उसके साथ खड़ा होने लगा तो हमने भी गाली गलौज करते हुए पीसीआर बुला ली। फिर उस मैगजीन का दूसरा अंक कभी नहीं आया। इसका असर यह भी हुआ कि पास में एक और मैगजीन का आफिस था उसने भी हमसे कुछ काम कराया था वहां मारपीट की बात सुनकर पेमेंट तुरंत भिजवा दिया। इसी तरह से काम चल रहा था। लेकिन हर जगह थोड़ा कम अधिक यही स्थिति थी। या करता? नौकरी के ठिकाने ही कितने हैं? भास्कर, जागरण जैसे बड़े अखबारों में भी यही स्थिति है। चप्पू हर जगह चकाचक रहते हैं। चार साल पहले यूएनआई के एक पत्रकार ने बताया था कि उन्होंने ओम थानवी की भरे आफिस में इसलिए छीछालेदर की थी कि उन्होंने जनसत्ता में कई महीने काम करवाने के बाद भी एक पैसा नहीं दिया था। भास्कर पानीपत में जब जगदीश शर्मा जीएम थे तो संपादक मुकेश भूषण को लीड और खबरों का प्लेसमेंट समझाते थे और गीत चतुर्वेदी समेत अधिकतर पत्रकार उसकी हां में हां मिलाकर खुद को धन्य समझते थे। इसे क्या कहेंगे? शायद यह उनकी जरूरतें थी जिसके कारण वे ऐसा करने को मजबूर थे। जो मजबूर नहीं थे वे विरोध करते थे और फिर नौकरी छोड़कर चले जाते थे।
लेकिन सवाल फिर भी वही है कि आखिर कब तक?
मेरी तरह चाय की दुकान खोल लेना भी कोई सही स्थिति नहीं है। यह भी ऐसी व्यवस्था के प्रति भड़ास निकालने का सिर्फ माध्यम है।
aapne kya khoob likhi
ReplyDeletebambm bihari ji
mirtanjai ji amar ujala me mere boss rahe hain. mai unke tewar & nishpachchta se bahut jyada parbhabit hun. kisi karanwash maine amar ujala chodkar dainik bhaskar join kar liya hai. lekin mirtanjai ji jaise boss nahi mil sake.
बिहारी भाईसाहब,क्या मान लिया जाए कि हर उस आदमी को जो इज्जत से जीना चाहता है कुछ निजी व्यवसाय चला लेना चाहिये साइड में ताकि आड़े वक्त में सम्मान से समझौता न करना पड़े।
ReplyDeleteअरे भाई बमबम जी,
ReplyDeleteआप कहां गायब हो गए थे, इसका पता भड़ास पर चाय की दुकान से चला। मैं सोच रहा था कि मीडिया नारद से कहां गायब हो गए। उस पर एक भी पोस्ट नहीं दिखी। अब मैं भड़ास से उठाकर यही पोस्ट वहां पेस्ट कर रहा हूं। आशा है यशवंत जी को आपत्ति नहीं होगी। और भइया एक बात और। अब पुराने किस्से निकालकर क्यों बदनाम करा रहे हो। मोबाइल में लाइफ टाइम रिचार्ज ही डलवा लो। बात तो हो सकेगी। एक बात सेठ जी से ...भाई इतना अच्छा नहीं हूं जितनी आपने तारीफ की है। पूंजीगत व्यवस्था की छत के नीचे भी बस अपना छोटा स्पेस बनाए रखने की कोशिश करता हूं।
भाई,
ReplyDeleteमुझे लगता है, वक्त बदलने वाला है. अभी तक की स्थिति ये थी कि पत्रकार तमाम शोषण के ख़िलाफ़ आवाज बुलंद करते थे परन्तु यदि उनका शोषण उनके मालिकों के द्वारा हो रहा हो तो(जो कि होता ही रहा है ) उसके ख़िलाफ़ आवाज उठाने का कोई उपाय नहीं था सिवाय कोर्ट के. पत्रकारों की इस मजबूरी का जम कर फायदा उठाया गया है, ख़ास कर प्रिंट मीडिया के मालिकों के द्वारा. परन्तु आज हमारे पास भड़ास और अन्य ऐसे ही स्थान हैं जहाँ हम इन शोषकों की करतूतों का पर्दाफाश कर सकते हैं और देर सवेर इसका असर इन मोटी चमड़ी वालों पर भी होगा ऐसा मेरा विश्वास है. इसलिए बिना हताशा के हमलोग इसी तरह हर अन्याय के ख़िलाफ़ झंडा बुलंद किए रहें इसकी बहुत जरूरत है.
वरुण राय
khoob bambam bihari ji..khoob
ReplyDeletebam bam bhai,
ReplyDeleteaapne mast kar diya, waisai ye satya kahne ka sabse bada or acha jagah hai, or ab to besabri ke saath aapke aage ke satya ko jane ki lalak hai. de daliye agla bhi.
jai jai bhadaas
दोस्तों वोल्गा से गंगा तक बहुत पानी बह चुका है। कल तक जो क्रांति की बात करते थे आज भी वो चेंबरों के बाहर मजदूरों की वकालत और लंच डिपलोमेसी करते नजर आ जाएंगे। अब फर्क सिर्फ इतना है कि वो रिपोर्टर, जूनियर सब एडिटर, सब एडिटर की जगर डीएनई और न्यूज एडीटर हो गए हैं। अब उनको भी यह समझ में आ गया है कि तनख्वाह बढवाने के लिए अपने साथियों का खून चूसना यानि की कम से कम मैन पावर में अखबार चलाना जरूरी है। कुरसी जब तक नहीं मिली थी तो कुरसी वालों को गरियाते रहना और करसी पर बैठते ही सामने वालों का गरियाना इन्होंने सीख लिया है। आखिर तमाशा तो कुरसी का ही है ना। कल और आज में अब बहुत फर्क है यह पुराने साथियों को भी समझ लेना चाहिए। कुरसी किसी की सगी नहीं होती, दोस्त यार सब भाड में जाएं अपनी कुरसी सही सलामत रहे और आगे को सरकती जाए यही मूलमंत्र है। सो कल क्या हुआ यह विषय नहीं विषय यह है कि वो आज आखिर क्या कर रहे है। साथियों इस पर सोचना जरूरी है। महान कहने से कोई महान नहीं हो जाता। उठो, जागो और समय को पहचानो।
ReplyDeleteअनाम भाई। आप क्या कहना चाहते हो? ये मेरी समझ में नहीं आ रहा। पहली बात यह कि बिना नाम के कमेंट लिखना ही कायरता है। दूसरी बात, अगर लिख भी रहे हो तो खुलकर लिखो कि किसके बारे में लिख रहे हो। बिना नाम के, वह भी संकेतों में लिखना आपके पिलपिलेपन की ओर ही इशारा करता है। इसलिए हे बंधु अनामदास आगे से नामधारी होकर ही कमेंट करें तो अच्छा होगा।
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