मौन को कहकर
सर्वश्रेष्ठ आभूषण
खड़ा किया तुमने
संप्रेषणीयता का संकट
हां, बोल पड़ेंगे हम
देखकर तुम्हारी चुप्पी
कि उदास हो जाया करेंगे
देखकर तुम्हारे चेहरे पर
तनाव की रेखाएं।
एक दिन बहुत दूर ले जाएगी
अपनों को अपनों से ही
संवादहीनता की स्थिति
जीवन की सार्थकता
चंद मधुर संवादों में है
क्या तुम बोलोगी
आज की शाम को
-विद्युत प्रकाश मौर्य
(मार्च , 1995)
बहुत खूब। विलुप्त हो रही गंवई संस्कृति को आवाज देने के लिए बधाई। महानगरीय जीवन ने वाकई में हमशे एक दूसरे के दुख सुख में शामिल होने वाली परंपरा को छीन लिया है। पर हम सब इसे फिर से कायम करने की शुरुआत कर सकते हैं और इंसा अल्लाह कामयाब भी होंगे। बहुत अच्छा लगा आपको पढकर। धन्यवाद
ReplyDeleteक्या बात है, कहां छिपा रखा थे अपने कवि को। बढ़िया कविता है। ताजा माल क्या है, उसे भी पेश करें।
ReplyDeleteइलैक्ट्रिक भइया, हम तो यकीन करते हैं ओल्ड इज़ गोल्ड पर तो अगर बीस साल बाद ये लिखते भड़ास पर तो भी उतना ही रस बरसता बल्कि शायद दो-चार धार ज्यादा निकल जातीं। अब जरा जो सबसे पुराना हो उसकी गांठ खोल कर टेंट ढीली करौ प्रभु.......
ReplyDeleteविद्युत भाई ,
ReplyDeleteबिल्कुल बिजलिएका झटका दिए जा रहे हो, लगे रहो गुरु लगे रहो।
कमाल है बिकुल ।