एक माँ जब तकलीफ में होती है तो उसका दर्द, उसकी तड़प उसकी अपनी औलादों में एक बेटे की बनिस्बत सब से ज्यादा उसकी बेटी महसूस करती है. ये बात पूरी तरह सच साबित हो चुकी है. अपवाद हर जगह होते हैं , इस जगह भी होंगे लेकिन एक माँ को जितना बेटी समझ सकती है , शायद बेटा नही.
लेकिन उसी बेटी का वजूद , माँ को बीमारियां देने का बाएस(वजह) बनने लगे तो सोचिये , कैसा महसूस होता है. लेकिन बदकिस्मती से रिपोर्ट यही कहती है..
हाल ही में दून के एम्.के.पी. कॉलेज के सायिकालोजी डिपार्टमेन्ट ने अपनी एक रिसर्च के बाद ये खुलासा किया है कि दो बेटियों के बाद प्रेग्नेंट होने वाली माएं हाई ब्लड प्रेशर,एन्जाईटी , डाईबिटीज़ और डिप्रेशन जैसी बीमारियों में मुब्तेला (ग्रुस्त) हो जाती हैं.
इस में शहर के २५० जोडों (दम्पति) के सैम्पल लिए गए थे जिस में से दो बेटियों वाली माओं में तीसरी बार प्रेग्नेंट होने की सूरत में बीमारियों के निशान उजागर हुए .
इस रिसर्च में तीन तबकों(वर्गों) को शामिल किया गया था.पहला प्रेग्नेंट औरतें ,दूसरा गायनेकोलाजिस्ट और रेडिओलाजिस्ट और तीसरा , समाज और कानून .तीनों तबकों से जो बातचीत की गई उसके नतीजे में ही नक़ल कर सामने आया कि पहली प्रग्नेंसी के दौरान औरत किसी तरह के तनाव या फिक्र (चिंता) में नही होती. उस वक़्त बस सेहतमंद(स्वस्थ) औलाद ही उसकी पहली ख्वाहिश होती है.
पहली बार जब उसके यहाँ बेटी जन्म लेती है तब भी उसकी खुशी में ख़ास कमी नही आती. पहली बेटी निहायत लाड प्यार में परवरिश पाती है. लेकिन --दूसरी बेटी होते ही हालात में एकदम ही काफ़ी बदलाव आजाता है.
ये तब्दीली परवरिश को लेकर नही , बल्कि माँ के मन में पलने वाली फिक्र को लेकर होती है. उनके मुस्तकबल (भविष्य) के बारे में सोचने वाली माँ में पहली बेटी के बाद दूसरी बार बेटी की चाह नही दिखाई दी.और दूसरी के बाद तीसरी बार प्रेग्नेंट होने वाली माएं तो इस बार बेटी ना हो , इस खौफ को लेकर बीमारी का ही शिकार हो गयीं.
रिसर्च में इस बात का भी खुलासा हुआ है कि दूसरी मर्तबा भी बेटी होने की सूरत में अक्सर मियाँ बीवी(पति पत्नी ) के आपसी रिश्ते भी मुतास्सिर (प्रभावित)हो जाते हैं . रिश्तों में खिंचाव आने लगता है. इसके पीछे उनकी फैमिली का दबाव या परिवार में बच्ची की पैदाईश को लेकर हो रही टेंशन भी एक वजह बन कर उभरी.
सब मिला कर नतीजा साफ तोर से ये निकल कर सामने आया कि बेटी के जन्म पर उदास ना होने वाले लोग भी दूसरी और तीसरी बेटी के हामी नही होते.
एम्.के.पी. कॉलेज की मनोविद डा.गीता बलोदी के मुताबिक ‘दो बेटियों की माओं के ब्लड प्रेशर, डिप्रेशन जैसी बीमारियों में मुब्तेला होने के पीछे वजह सोसिएटी का दबाव भी है. इसके अलावा ससुराल वालों का प्रेशर तो काम करता ही है. कुल मिला कर दो बेटी के बाद माँ के मन में बस यही फिक्र दिखायी दी कि कहीं तीसरी भी बेटी न हो……
ये रिसर्च और इसकी रिपोर्ट सिर्फ़ एक शहर की नही है, कम-ओ-बेश यही हालात छोटे शहर से लेकर बड़े शहर हर जगह हैं.
हैरत तो तब होती है जब एक अखबारी रिपोर्ट के मुताबिक, एन.आर.आई भारतीयों में एक सर्वे के दौरान पाया गया कि पहली बेटी के जन्म के बाद बेटे की ख्वाहिश उन में इस कदर होती है कि कई बार लिंग परीक्षण के बाद वो बड़ी आसानी से अबार्शन करवा देते हैं. सर्वे के मुताबिक, हैरानी की बात ये है कि अप्रवासी हिन्दुस्तानियों को हाई एजोकेटेड लोगों में शुमार(गिना) किया जाता है.
जब इतने पढे लिखे लोगों की, जिन्होंने अपनी हाई एजोकेशन की बदौलत दूसरे मुल्कों में अपना लोहा मनवाया है, ये मानसिकता है तो ज़रा सोचिये कि गाँव देहात के उजड्ड देहाती लोगों का क्या हाल होगा.
ऐसा नही है कि हालात बिल्कुल नही बदले .औरतों ने अपने हुकूक (अधिकार )मनवाये हैं. लड़कियों की ताक़त उनको तकरीबन(लगभग) हर तरफ़ मिल रही कामयाबी से ज़ाहिर भी हो रही है. लेकिन अभी बहुत कुछ बदला जाना बाकी है.
इन बदतरीन हालात की वजह अगर जेहालत (अशिक्षा) होती तो तब्दीली की उम्मीद आसान थी लेकिन जेहालत अगर पढे लिखे दिमागों में भरी हो तो हालात का बदलना आसान नही होता.
वूमनस डे मनाते हुए अकसर लोग समझते हैं कि हालात बदल चुके हैं . लेकिन सच तो ये है कि अभी अँधेरा बहुत गहरा है.इस घने स्याह अंधेरों में कहीं कहीं रौशनी की किरनों की झिलमिलाहट आने वाली सुबह की झलक ज़रूर दे जाती है, लेकिन ये अंधेरे अभी बहुत देर तक आने वाली सुबह की सफेदी का रास्ता रोकेंगे।
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अपने प्रिय पढने वालों से ------- तबियत की खराबी की वजह से मुझे आप सब से इतने दिन दूर रहना पड़ा, चाह कर भी इस बीच कुछ नही लिख सकी, ना ही आप सब को पढ़ सकी, उम्मीद है आप सब का प्यार उसी तरह मेरे साथ रहेगा...खुदा करे आप सब अपनी -अपनी जगह बिल्कुल ठीक हों (आमीन)
रख्शंदा
आपा, आप रख्शंदा हैं या रक्षंदा? आपसे कम से कम मुझे ये उम्मीद थी कि अपनी तेजस्वी लेखनी बेटे-बेटी से हट कर हमारे जैसे बदकिस्मत लोगों के लिये भी उठाएंगी पर मालुम होता है कि आप साहस नहीं जुटा पा रही हैं। ईश्वर आपको स्वस्थ और विचारवान बनाए।
ReplyDeleteजय भड़ास
aapne shandar likha hai. abhi bhi hamara samaj kayi mamlon me behad dakiyanusi hai. esi ke chalte betiyon aur matawon ko kayi dikkaten uthani padti hai.
ReplyDeleteummid hai aapka swasthya behatar hoga.
मुझे अपना वादा याद है मनीषा दीदी, बस प्रॉब्लम ये हैं कि आप लोगों के बारे में मुझे इतनी जानकारी नही है,मैं कोशिश कर रही हूँ और इंशाल्लाह मैं इस पर लिखने की भी कोशिश करुँगी...दुआ कीजियेगा की मैं अपना ये वादा निभा सकूं.
ReplyDeleteरक्षंदा जी,
ReplyDeleteअच्छा विषय उठाया है, मगर ये विषय ही अपनेआप में पिछडेपन की कहानी बयां कर देता है. एक बच्चा या दो बच्चे से आगे ही क्योँ. मुझे लगता है की आपने जिस विषय को उठाया है ये सिर्फ विज्ञान का विषय है खोज का विषय है. डॉक्टर कुछ भी करें हम डॉक्टर नहीं आप डॉक्टर नहीं. समाज की चेतना और जागरूकता बच्चे की गिनती .
विचार करें.
जय जय भडास
रक्षंदा आपा,आपने विचारणीय विषय लिया है। समाज में परिवर्तन अवश्य आएगा बस हम और आप जैसे लोग इसी तरह लिख कर अलख जगाते रहें। स्वास्थ्य का ध्यान रखिये...
ReplyDeleterakshandaji bahut gahra vishay hai .par tab tak shayad kuch na ho sakega jabtak khud aurat ise rokna nahi chahegi , khud aawaj nahi uthayegi kyuki dekha gaya hai ki akshar beta-beti par jyada vivad ghar ki bujurg aurte hi karti hai .iska ye arth nahi ki purush nahi karte par sacchai to yahi hai beti paida na karne ya paida hone par taane dene mai purusho se jyada mahilao ka haath hota hai.
ReplyDeleteरक्षंदा जी ,
ReplyDeleteमैं आपकी बात से सहमत हूँ कि बेटियाँ माँ ही नहीं बाप के भी दुःख दर्द को ज्यादा समझती हैं परन्तु यह हमारा समाज है जो आज भी बेटे बेटियों में फर्क करता है. इसमें कालांतर में कुछ सुधार हुए है और इंशाल्लाह आगे स्थिति और सुधरेगी.
वरुण राय
rakshanda aapa...bahut marmik
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