10.5.08

वीणा के तारों को जितना दुलराया

वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गये
पारे-सा बिखर गया यादों का ताशमहल
दर्पण-सा टूट गया शबनमी अतीत
धूओं मे खो गई संदली हंसी
रूठ गये नयनों से सांवले प्रतीक
राह चले शान से हम तो बहुत
रास्ते खुद-ब-खुद छूटते गये
वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये
ऐसे हैं बस्ती में आदमी यहां
जैसे हों जिंदा परछाइयां
कागज़ के फूल कभी खिलते नहीं
पानी और तेल कभी मिलते नहीं
वैसे तो दोस्तों के काफिले बहुत
राह चले काफिले छूटते गये
वीणा के तारों को जितना दुलराया
उतनी ही रूठते गये।
पं. सुरेश नीरव
मों ९८१०२४३९६६

5 comments:

  1. पंडित जी,मैं कभी भी भावों को स्पष्ट तौर पर समझ नहीं पाया इतने जटिल होते हैं ये हार्मोन्स की इलैट्रोन्यूरोलाजिक प्रतिक्रियाओं से उपजे इम्पल्सेस,बस हड्डी,मांस और रक्तादि देखता रहा लेकिन आप ने तो लगता है कि कसम खा रखी है मुझे भावनाओं को पूरी तरह समझाने की... अब तुकबंदी करने का मन नहीं हो रहा है.....

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  2. बडे भईया प्रणाम। कभी कभी सोचता हूं कि आपको इतनी प्रेरणा कहां से मिलती है। जो बिना किस गैप के सतत हमारे लिए इतनी अच्छी कविताएं लिखते रहते हैं। इसका खुलासा जरूर कीजिएगा। बाकी इसी तरह प्रेरणास्रोत बने रहिए।

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  3. बहुत सुंदर

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  4. पंडित जी प्रणाम,
    एक बार फिर से सॉलिड मारा. आनंद आ जाता है. विचारों के भंवर में उलझ जाता हूँ.
    साधुवाद.

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