पिछले दिनों एक एनजीओ के मीडिया सेमिनार में जाने का मौका मिला। व्यक्ितगत आग्रह था, साथ में सिविल सोसायटी के कुछ कथित बुद्धिमान लोगों से मिलने का लोभ भी था। संगोष्िठ का विषय बैनर में पंचायती राज और महिलाओं के मुद्दे पर मीडिया की भूमिका जैसा कुछ था। मेरे तजुर्बे के अनुसार ऐसी संगोष्िठयां सिर्फ आपसी मेल-मुलाकात के नतीजे के साथ ही खत्म हो जाती हैं, क्योंकि मीडिया और सिविल सोसायटी के बीच हमेशा इस बात का द्वंद्व चलता रहता है कि दोनों में से बड़ा, अहम और परिवर्तनकारी कौन है। यहां भी यही बात नजर आई। पहले सत्र में जहां मीडिया को उसकी भूमिका समझाने की कोशिश की गई, लेकिन बाद के सत्रों में जब मीडियाकर्मियों ने मोर्चा संभाला सिविल सोसायटी के लोग उनके आक्रामक तेवरों के आगे नतमस्तक थे। एक अहम सवाल सामने आया कि मीडिया के लोग सिविल सोसायटी के काम को इतना तवज्जो क्यों नहीं देते? सामाजिक सरोकारों की बात आते ही मीडिया क्योंकर अपना दामन छुड़ाने की कोशिश करती है।बाजार का तकाजा, व्यावसायिकता और एक-दूसरे के पूर्वाग्रहों से जुड़े़ कई पैने सवालों के बीच सबसे अहम सवाल यह है कि समाज के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता की कसौटी पर दोनों में से कौन खरा उतर सका है ? पटना के राजकीय मूक-बधिर बालिका स्कूल में एक मास्टरजी 50 बालिकाओं को अपनी बेटियों के समान मानते हुए तमाम मुश्िकलों के बावजूद पढ़ा रहे हैं, तो राजधानी दिल्ली के किसी कोने में सड़क पर कूड़ा बीनकर जिंदगी गुजारने वाले बच्चों का एक बैंक चल रहा है। ये दोनों खबरें अखबारों के ही किसी पन्ने पर छपी हैं, लेकिन इसे छपवाने के लिए किसी संगठनात्मक कोशिश की जरूरत नहीं पड़ी।30 से 40 हजार और कभी-कभी तो लाखों रुपए खर्च कर आयोजित की जाने वाली ऐसी संगोष्िठयों का मकसद क्या होता है मीडियावाले इसे बखूबी समझते हैं। यहां असल सवाल सरकार पर दबाव बनाने का है, जिसके लिए फिलहाल मीडिया का ही पलड़ा भारी है। ऐसी संगोष्िठयों में मीडिया को सिविल सोसायटी के बीरबल चाहे लाख कोसें, पर शाम को अखबारों के दफ्तरों पर कॉलम की साइज का सौदा करते भी नजर आते हैं।दिक्कत यह है कि समाजसेवा की मूल भावना चंद लोगों को ही समझ आती है। चंद रोज पहले की ही बात है। एक शख्स होटल में प्रवेश कर रहे थे कि देखा दरवाजे पर एक गरीब बच्चा दहाड़े मारकर रो रहा है। दरबान से पूछा तो उसने बताया, साब रोज का हाल है। खाना मांगने आ जाते हैं। रोज पिटते हैं, पर शर्म नहीं आती। उन साहब को दया आ गई। बच्चे का हाथ पकड़ा, साथ में अंदर ले गए और कुर्सी-टेबल पर बिठाकर उसे प्रेम से खिलाया। बच्चा (सुनील) कुछ पांच साल का था। 10 मिनट में उसने गपागप भोजन खत्म किया और चलता बना। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछा, साहब क्या पूरे जमाने को खाना खिलाओगे ? जनाब हंसकर बोले, आज मेरी जेब इसकी इजाजत नहीं देती। पर कल का वादा पक्का है।बाहर निकले तो उस दरबान ने झुककर उन जनाब के हांथों को थाम लिया। कहा, आप भगवान हैं। वो मेरा ही बेटा था, सुबह से भूखा था। ड्यूटी पर हूं, इसलिए डांटना पड़ता है, मजबूरी है क्या करें। सेठ ने दो महीने से पगार नहीं दी है। पांच बच्चों को क्या खिलाऊं ?इतना सुनना था कि उन जनाब ने अपने बटुए में से 100 का नोट निकालकर उसके हाथ में रख दिया और घर की ओर निकल गए। कितने ऐसे लोग होंगे इस दुनिया में ? उनके पास अगर करोड़ों रुपए का फंड होता तो क्या उन्हें भी पब्िलसिटी की जरूरत पड़ती ? इन सवालों का जवाब पाने के लिए संगोष्िठ की नहीं आत्ममंथन की जरूरत है।
बात अच्छी है अतः सबके सोचने के लिए समर्पित
संजीव भाई,आत्ममंथन किया और उसमें से जो मक्खन निकला वो ये कि अभी और सोचो और फिर इन सवालों का उत्तर दक्षिण से निकालो....
ReplyDeleteसंजीव भाई,
ReplyDeleteसोचने को हम सब तैयार नहीं बैठे हैं. वो दिन दूर नहीं जब हम करते हुए नजर आयेंगे. वैसे आपके इस लेखन ने एक परत और उघेरी है.