शहर की धमा-चौकडी से अब मन भर गया पुरे बारह साल से एक खानाबदोश की तरहे जिन्दगी जीते जीते अब अधमरा सा हो गया हुँ यहाँ के काले धुयें से तो जैसे एक लगाव सा हो गया है क्योकी ये बिन बुलाये ही मिल जाती है जबकि यहाँ दोस्ती भी पैसे से मिलती है पेशे से एक आई टी प्रोफेश्नल, पेट अब थोडे से आगे की ओर खिसक रही है आज गाव की याद बहुत आ रही थी क्योकी माँ जी बीमार है खेत मे खुरपी चला रही थी हाथ मे लकडी घुस गया ईलाज चल रहा है अजीब कश्मकश है सारे दोस्त आज भी कापसहेडा बार्डर पर एक्स्पोर्ट कम्पनी में काम करते है कुछ यादे है जिन्हे मै समेटना चाहता हुँ पर लगता है उन्हे समेट्ने को शायद मेरे पास वक्त नही ईसलिये सोचा चलो ब्लोग ही लिख डालते है...
अब वो सारी बाते एक बीते हुये परीकथा की तरह लगती है हमारे दिन की शुरुआत माँ जी पुकारने पर ही शुरु होती, तब हम आँख मीचते उठते और सीधे नदी के तरफ, मैदान वगैरह हो कर अब दातुन की बारी आती और हमारे पास होते ढेरो आप्शन नीम,बबुल,बाँस आखिर मे बाँस पर ही मन अटकता क्योकि ये आसानी से नदी के किनारे मिल जाताअब बारी आती नहाने की तो बस पुछीये मत नदी मे जो एक बार कुदे की बस हो गया भोलवा से लेकर राजेश,राकेश्,भगत जी,लंगडा और पुरे मलाही पट्टी के सब के सब कुद पडते और बस सारे खेल शुरु तभी बीच मे कोई बोलता की रे ओह पार के कान्ही वाला लीची देखले एक दमे मस्त साला एगो खईले की बेटा मीठाई भुला जएबे, बस फिर क्या "अन्धा पाओ दुआख" सारे वानर सेना एक साथ कुच कर जातेकुबेर भाई की लीची की पेड् साला पकडा गेले त बोखार छोडा देथुन, थोडी सी खरखराहट की सबके सब नदी में धम्म तभी याद आता की आरे तेरी के लुल्वा के केरा के पेड कटायल है फिर सबके सब गोली लेखा भागते और केला के थम्ब लेके नदी मे कुद जाते फिर मस्त धमाल पता ही नही चलता की कब टाईम निकल गया सब के सब नंग धढंग तभी पापा की गरजती आवाज "रे मास्टर साब आ गेलन तु सब निकलबे की आऊ हम"सबके सब नदी से निकल भागते और गिरते पडते घर पहुचते
दादी दुआरे पर खडी रहती आज तोहरा के मार के बोखार गिरा देतऊ तोहर बाप, गेले की न रे जल्दी से स्कुल बस हम झटपट खाते और स्कुल के लिये निकल पडते, सीधे रास्ता न पकड कर जोतल खेत राहे भागते की जल्दी पहुँच जायेपहुचने पर घेघवा वाला मास्टर साहेब सामने- का हो आजकल खुब मस्ती होईत बा तोहनी के, हम सब देखई तारी, हई जा आ एक लोटा पानी ले आव जा... पहली घण्टी हिन्दी से शुरु होती या गणित से उसके बाद हम बेरा(गाव के प्रचलित टाईम देखने का तरीका) को घडी घडी देखते की कब सुरुज भगवान ओकरा छुवस, बस छुला के देरी की टिफिन, सब के सब आपन आपन बोरीया बस्ता ले के फिरार आ ओकरा बाद सीधे घर, खाओ और फिर भागो, अब टीफीने मे गुल्ली ड्ण्टा शुरु....मस्त..............
क्रमश:.............................
सच चौरसिया जी आपकी रचना के दर्द और मिठास को वही समझता सकता है जिसका बचपन गाँव में बीता हो। आपने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी तथा तस्वीर दिखा कर तो रुला ही दिया।
ReplyDeleteगाँव में नदी की मस्ती, दुसरे के बगीचे से फल को चुराने का आनंद, दादी, अम्मा का प्यार और पिता जी की डांट. सचमुच में गाँव में खो गया हूँ. इस क्रमश: को ख़तम कीजिए बड़ी बेसब्री है.
ReplyDeleteसचमुच वापस उसी दुनिया में जाने का दिल करता है.
भाई,आप रुलाने की साजिश करे बैठे हैं जान पड़ता है, हम सब की धमनियों में अब तक गाँव का ही हवा पानी मिट्टी है जो संस्कार बन कर दौड़ रहा है वरना शहर में तो कबके रोबोट बन गये होते...
ReplyDeleteभाईजी बहुत बढिया कइली रउआ. मजा आ गइल. पर हम आउर भाई लोगन जइसन नइखि. 2-3 महीना पर गांव त जरूरे घूम आइला. हमरा ब्लॉग haftawar.blogspot.com पर एक नजर देख लिहल जाए. शीर्षक बाटे पत्ता बुहारती औरतें. लडिकपन के बाते कुछ और होला. बहुत निम्म लागल.
ReplyDeleteअजीत भाई एक कसक सी तो उठती ही है क्या करे कही न कही ये भडास तो निकालनी पडेगी ना...
ReplyDeleteडाँक्टर साहब,झा जी और राकेश भाई बहुत बहुत धन्यवाद रऊआ लोगिन के हमार ब्लोग पढे खातिर, ई त भडासी भैया के कृपा बाडे की हमनी सबके बतियावे खातिर आ दिल के भडास निकाले खातिर भडास बना दिहले|
ReplyDeleteराकेश भाईजी हम राउर ब्लोग पर भी गईनी बहुत ही निमन ब्लोग लागल, अब यु समझ की ली रऊरा एगो नियमीत पाठक मिल गईल|