बडी करीब से देखा है
कूडे के ढेर में।
सिसकती है जिंदगी
गरीबी के अंधेर में।
है गन्दगी के बीच वो
जर्जर से झोपडे।
कुत्तों की किस्मत से उनमें
रास्ते हैं बडे -बडे।
उन्ही में देखा उस तरुणी को
जो कोने में सिमटी थी।
रूप माधुर्य की मल्लिका
फटे कपडो में लिपटी थी ।
बाप बूढा था हुआ
बेटी के भार से ।
कमर भी झुकी थी
शायद दहेज़ के मार से ।
पिता ने दामाद
अपनी उम्र का ढूंढा था ।
पैसे ने उसके अरमानो को
पैरों तले रौंदा था ।
फ़िर देखा उस सनकी को
जो पति उसका भावी था ।
प्यार नही उसकी आंखों में
बस हवस ही उस पर हावी था ।
गिंजता था जैसे वो
बेजान खिलौना थी ।
केवल दौलत के कारण ही तो
वो देवी भी बौना थी ।
हामी भी न पूछा
और पल्लू थमा दिया ।
बेटी को इस बाप ने
आख़िर ये कैसी सज़ा दिया।
बेमेल झोपडे की
ये बेमेल विवाहें ।
देख दिल रोता रहे
और निकलती रही आहें।
पुकार कर उसे एकांत में बुलाया
फ़िर मैंने उसे कुछ यूँ समझाया
मन से इसे पति स्वीकार कर सकोगी?
यदि नही! तो फ़िर विरोध क्यों नही करती हो?
समाज के चोंचलों से आख़िर क्यों डरती हो?
सुन मेरी बातें कहीं खोने लगी वो
फ़िर आँचल में मुंह छुपा कर रोने लोगी वो
उठी जो नज़र तो कमाल कर गई
जवाब मैंने माँगा था
सौ सवाल कर गई....
afroz jee... aapki ye kavita waqai kamaal kar gayi.... waise aapke saare post mujhe acchhe lagte hain.....
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