28.6.08
गुलाम अली और बाजा
एक थे गुलाम अली और एक था बाजा । बाजा किसी और का था , लेकिन संयोग कुछ ऐसा था कि उसे गुलाम अली भी बजा रहे थे । समाज ऐसा था कि जिसका बाजा था वह अगर उसे चाहे कितना अच्छा या बुरा बजाए कोई चर्चा ही नही करता था , पर कोई और कैसा भी बजाए तो नमक-मिर्च लगाकर चर्चा करता था । तो गुलाम अली के भी बडे चर्चे थे । हालाँकि गुलाम अली को किसी ने बाजा बजाते देखा नही था , पर सबका पक्का विश्वास था कि गुलाम अली उसे जरूर बजाते हैं और जब चाहे बजा लेते हैं । कुछ लोगों का तो यह भी कहना था कि अगर गुलाम अली कभी न भी चाहें और बाजा उन्ही से बजने पर उतारू हो जाए तो वह ख़ुद ही उनके मुंह में घुस जाता है । हलाकि लोगों का स्पष्ट मानना था कि बाजा मुंह से नही बजता था बल्कि उसे बजाने के लिए शरीर के सभी अंगों का सहयोग चाहिए था , पर लोग कहते थे कि गुलाम अली तो गुलाम अली , जब अपनी पर उतर जाते तो चाहे जिस अंग से चाहें वे बजा लेते थे और लोगों का अनुमान था अच्छा बजा लेते थे । गुलाम अली ने दरअसल बाजे को एक ऐसा आश्वाशन दे रखा था कि बाजा ख़ुद ही उनसे अच्छे से बज जाता था । गुलाम अली बडे ओहदेदार थे और हमेशा गर्व से ऐंठे रहते थे , हालाँकि वे ऐसे-ऐसे काम करते थे और रोज करते थे कि उन्हें शर्म से भीगा हुआ रहना चाहिए था , पर यही तो बात है कि उन्हें कभी भी शर्म नही आती थी । चूँकि उन्हें शर्म नही आती थी इसलिए वे निपट मुर्ख होते हुवे भी अपने को बहुत ज्ञानी समझते थे , विद्वान् समझते थे , कवि समझते थे । बाजा उनकी इसी अदा पर तो फ़िदा था । दरसल बाजा भी कुछ-कुछ वैसा ही था । था पुराना मगर अपने को न्य-नवेला समझता था । जब वह बजता होगा तो जरूर उससे कोई अश्लील धुन निकलती होगी , इसीलिए कलयुग के सरे साधक उसे एक बार , कम से कम एक बार बजा कर देख ही लेना चाहते थे । बाजा इस बात को न जानता हो ऐसा नही कहा जा सकता था , लेकिन उसके अपने कलयुगी नखरे थे । एक दिन इसी नखरे में गुलाम अली तमाशा बनेगे , लोग ऐसा सोचते थे । लेकिन गुलाम अली को शर्म नही आती थी और तमाशे को भी वे व्यापार में बदल देने की कला में माहिर थे । गुलाम अली एक बडे संसथान में नौकरी करते थे और कोतवाल थे और बाजा भी । हम चाहते थे एक दिन गुलाम अली हमारे सामने उस बाजा को बजा क्र दिखाएँ , पर हम छोटे लोग थे और गुलाम अली को मजाक-मजाक में भी अपनी इच्छा बता नही सकते थे । हमारे बाल- बच्छे थे , उन्हें हमे पालना था और हमारे अंग विशेष के ऊपर एक पेट था जिसे भरना था नही तो हम भी कौन कम थे हम तो बजाने वाले को ही बजा देने की हसरत रखते थे आमीन ।
जय हो
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद तेवर में दिखे हैं हरे भाई..जय हो...यही तो आपकी स्टाइल है। मस्त, बिंदास, जोरदार और साफ-साफ....। बजाते रहो......।
chutiya mat banao.
ReplyDeletethanedar
bhasha, shaili, prawaaha tumhaara
ReplyDeletehai bilkul anupam
likhne kaa andaaj niraala hai
behad nirmam.
aisi dhaardaar lekhni,
kahan se tumne pai
hamko bhee batlao pyare,
kahan se ayi ye chaturai.
Badhai ho, bahut, bahut.
Balram Dubey.