14.6.08

कोहरे छंटने लगे संत्रास के

सो रहे हैं आज जो नीचे खुले आकाश के
देखना पन्ने बनेंगे एक दिन इतिहास के
धूप दुख की है,मरुथल है जिन्दगी
मर रहें हैं लोग मारे प्यास के
उपवनों में जाइएगा सोच कर
जंतु जहरीले बहुत हैं घास के
प्रतिदान में प्रभात को दे दो दुआ
कोहरे छंटने लगे संत्रास के
दे के दवाएँ सौरभ कोई न लूट ले
हमसफ़र मिलते नहीं विश्वास के

1 comment:

  1. त्रिपाठी जी,

    बढिया है मगर नयापन नही। ये सब बातें तो हम जानते ही हैं ओर ये तो बरसो से चली आ रही है। वैसे अच्छा लिखा है, आपको बधाई।

    जय जय भडास

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