एक पत्रकार के छोटे से पत्रकारिता जीवन की दास्ताँ
वाकई में संसार बदल चुका है. वह जमाना बीती बात हो गयी, जब यह संसार सत्कर्म की धुरी पर चलता था. अब भी धुरी तो वही है, पर संसार की चल बिगड़ गयी है. सत्कर्म कमजोर और अपकर्म ताक़तवर हो चुका है. ऐसे में सामाजिक और मीडिया के मूल्यों के वजूद की बात करना ही अपने-आप में हास्यास्पद प्रतीत होता है. फिर भी मैं इस मुद्दे पर कुछ कहने की हिमाकत कर रहा हूँ. जो कुछ भी कहूँगा वह मेरे अनुभव और मन की टीस का शब्दों में रूपांतरण कह लें, तो ज्यादा सही होगा.....पूरी दास्ताँ पढ़े सीधीबात पर
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