राजनीति में तर्क और सिद्धांत अपनी जरूरत के मुताबिक किस तरह गढ़े जाते हैं , वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य इसकी मिशाल है । २२जुलाइ को संसद में जहाँ भाजपा परमाणु करार का विरोध करते हुए सरकार को गिराने में कोई कोर कसर नही छोड़ना चाहेगी वहीं अन्य दल भी अपने राजनैतिक नफे नुकसान को ध्यान में रखते हुए अपना रुख तय करेंगे । इस विश्वास मत में जीत हार किसी की भी हो लेकिन अहम् सवाल यह है की परमाणु करार के इस संवेदनशील और गंभीर मसले पर जिस तरह की चर्चा संसद में होनी चाहिए थी क्या वह हुई ? विडम्बना ही है की जिस भाजपा ने इस समझौते की नींव रखीथी वही इस समझौते को विफल करने में अपनी सारी ताकत झोंक रही है । परमाणुकरार का यह मुद्दा विमर्श से दूर जाकर राजनैतिक अहं की लडाई का केन्द्र बिन्दु बन गया है।
दीपेन्द्र
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